डायपर उद्योग की चमक के पीछे छिपा कचरे का अंधेरा
दुनिया भर में बच्चों के लिए डिस्पोजेबल नैपी यानी डायपर का इस्तेमाल पिछले कुछ दशकों में बेतहाशा बढ़ा है। यह उद्योग अब केवल एक उत्पाद बेचने का मामला नहीं, बल्कि एक जीवनशैली गढ़ने का हिस्सा बन चुका है। एक तरफ अरबों डॉलर का मुनाफा कमाने वाला यह कारोबार है तो दूसरी तरफ इसका फैलता दायरा प्रदूषण, कचरे और स्वास्थ्य संबंधी खतरों की एक लंबी श्रृंखला को जन्म दे रहा है।
1956 में प्रॉक्टर एंड गैंबल ने ‘पैम्पर्स’ के रूप में पहला बड़े पैमाने पर डिस्पोज़ेबल नैपी बाजार में उतारा। यह उत्पाद महज कुछ दशकों में कंपनी का पहला दस अरब डॉलर का ब्रांड बन गया। 2012 में यह मुकाम हासिल हुआ और इसके बाद से बाजार की रफ्तार थमने का नाम नहीं ले रही। 2021 में वैश्विक स्तर पर शिशु डायपर की बिक्री 2013 की तुलना में 36 प्रतिशत अधिक रही।
2020 में इस बाजार का आकार लगभग 50 अरब डॉलर था, जो आज 60 अरब डॉलर पार कर चुका है और 2030 तक इसके 80 अरब डॉलर तक पहुँचने का अनुमान है। यह उछाल खासकर ग्लोबल साउथ—एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे क्षेत्रों—में आक्रामक प्रचार के दम पर आया, जहां अक्सर कचरा प्रबंधन की व्यवस्था कमजोर होती है। नतीजतन, प्रदूषण का बोझ और गहरा जाता है। इंडोनेशिया में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट बताती है कि प्रमुख शहरों की नदियों में पाए जाने वाले कुल कचरे का 21 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ नैपी का है।
लंदन से प्रकाशित पर्यावरण पत्रिका ‘द इकोलाजिस्ट’ में एडम रामसे की शोधपरक रिपोर्ट बताती है कि बड़ी कंपनियों ने आक्रामक मार्केटिंग और सुनियोजित संदेशों के जरिए माता-पिता को बच्चों की पॉट्टी ट्रेनिंग देर से कराने के लिए प्रेरित किया। तर्क यह दिया गया कि डायपर से बच्चे ज्यादा आराम में रहते हैं, नींद बेहतर आती है और माता-पिता को झंझट कम होता है। लेकिन इसके पीछे का असली मकसद खपत और बिक्री दोनों में इजाफा करना था।
ब्रिटेन में 1940 से 1970 के दशक के बीच बच्चे औसतन 12 से 18 महीने की उम्र में पॉट्टी ट्रेन हो जाते थे। लेकिन 2004 तक यह औसत 2.5 वर्ष हो गया और 2021 में यह बढ़कर 3.5 वर्ष तक पहुँच गया। इसका सीधा अर्थ है कि हर साल लगभग एक अरब अतिरिक्त डिस्पोज़ेबल नैपी का इस्तेमाल होने लगा। कंपनियों ने यहीं नहीं रुककर ‘ट्रेनिंग पैंट्स’ और पांच साल से अधिक उम्र के बच्चों के लिए भी नैपी लॉन्च कर दिए, ताकि यह आदत लंबी खिंच सके।
विशेषज्ञ मानते हैं कि पॉट्टी ट्रेनिंग का सही समय 20 से 30 महीने के बीच होता है। इसके बाद बच्चों को ट्रेन करना मुश्किल हो जाता है, जिससे वे लंबे समय तक डायपर पर निर्भर रहते हैं। यह न केवल कचरे का पहाड़ खड़ा करता है, बल्कि मूत्र मार्ग संक्रमण जैसी समस्याओं का खतरा भी बढ़ाता है।
भारत में भी यह बदलाव तेजी से नजर आने लगा है। 2014 में भारतीय डायपर बाजार का आकार लगभग 1,400 करोड़ रुपये था, जो 2024 में बढ़कर 5,000 करोड़ रुपये से ऊपर पहुँच गया है। अनुमान है कि 2030 तक यह दोगुना हो जाएगा। इसके पीछे तेज़ शहरीकरण, एकल परिवारों की संख्या में वृद्धि और सुविधा-प्रधान जीवनशैली जैसे कारण हैं। दिलचस्प है कि यहां केवल शिशु डायपर ही नहीं, बल्कि वयस्क डायपर का बाजार भी तेजी से फैल रहा है, खासकर बुजुर्ग आबादी और अस्पतालों में।
डायपर के समर्थकों की सबसे बड़ी दलील यही है कि यह समय बचाता है, बच्चे को लंबे समय तक सूखा रखता है और व्यस्त माता-पिता के जीवन को आसान बनाता है। लेकिन सुविधा की यह कीमत केवल जेब से नहीं, पर्यावरण से भी चुकानी पड़ रही है। डिस्पोज़ेबल नैपी लैंडफिल में सैकड़ों साल तक सड़ते रहते हैं। इनमें मौजूद प्लास्टिक आधारित पॉलिमर, सेल्यूलोज पल्प और रसायन 300 से 500 साल में विघटित होते हैं। इस दौरान ये मिट्टी और पानी में प्रदूषक छोड़ते हैं और मीथेन गैस पैदा करते हैं, जो जलवायु परिवर्तन में योगदान देती है।
दिल्ली जैसे महानगरों में हर दिन लाखों इस्तेमाल किए गए डायपर कचरा स्थलों पर पहुँचते हैं। एक बच्चे के शिशु काल में लगभग पांच से छह हजार डायपर इस्तेमाल हो सकते हैं। भारत में हर साल जन्म लेने वाले ढाई करोड़ बच्चों में से यदि सिर्फ 20 प्रतिशत भी डिस्पोज़ेबल डायपर का इस्तेमाल करें, तो सालाना अरबों डायपर का कचरा पैदा होगा।
शहरी निकाय पहले से ही ठोस कचरा प्रबंधन के बोझ तले दबे हैं।
डायपर कचरा इस बोझ को कई गुना बढ़ा देता है क्योंकि यह न तो आसानी से रिसाइकल होता है और न ही सुरक्षित रूप से नष्ट किया जा सकता है। लैंडफिल में पड़े डायपर बारिश के पानी के साथ मिलकर लीचेट नामक जहरीला तरल बनाते हैं, जो मिट्टी और भूजल को प्रदूषित करता है। यह कचरा जैविक कचरे के साथ मिलकर सड़ता है, बदबू फैलाता है और मीथेन गैस छोड़ता है। जब यह पानी के स्रोतों में पहुँचता है, तो इनमें मौजूद रसायन जल की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं और जलीय जीवन के लिए खतरा बनते हैं।
डायपर कचरे का संकट केवल पर्यावरण तक सीमित नहीं—यह सीधा स्वास्थ्य से जुड़ा मामला भी है। इस्तेमाल किए गए डायपर में मानव मल-मूत्र के साथ मौजूद रोगाणु, बैक्टीरिया और वायरस होते हैं। जब इन्हें खुले में या बिना सही प्रोसेसिंग के कचरे में फेंक दिया जाता है, तो ये संक्रमण फैलाने का माध्यम बन सकते हैं।
सिर्फ इतना ही नहीं—डायपर के निर्माण में इस्तेमाल होने वाले रसायनों और सुगंधित परतों में कुछ ऐसे कंपाउंड होते हैं, जो लंबे समय तक त्वचा के संपर्क में रहने से एलर्जी, डायपर रैश, और यहां तक कि हार्मोनल असंतुलन जैसे प्रभाव डाल सकते हैं।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के 2021 के अध्ययन में स्पष्ट कहा गया कि सामान्यतः रीयूज़ेबल नैपी का पर्यावरणीय असर सिंगल-यूज़ डायपर की तुलना में कम होता है, खासकर जब इन्हें नवीकरणीय ऊर्जा और पर्यावरण-अनुकूल डिटर्जेंट के साथ इस्तेमाल किया जाए। दिलचस्प यह है कि ब्रिटेन की 2008 की एक सरकारी रिपोर्ट में दावा किया गया था कि रीयूज़ेबल नैपी ज्यादा हानिकारक हैं, लेकिन 2023 में इस रिपोर्ट को अपडेट कर यह माना गया कि समय के साथ नवीकरणीय ऊर्जा और बेहतर धुलाई तकनीकों के चलते इनका असर काफी कम हो गया है।
दुनिया भर में कई जगह अब वैकल्पिक मॉडल को अपनाने की कोशिशें हो रही हैं। कपड़े के डायपर, जिनका इस्तेमाल पीढ़ियों से होता आया है, फिर से लोकप्रियता बटोर रहे हैं। कुछ लोग हाइब्रिड डायपर का इस्तेमाल करते हैं, जिनका बाहरी हिस्सा धोकर दोबारा प्रयोग किया जा सकता है, जबकि केवल अंदरूनी पैड डिस्पोज़ेबल होता है। कुछ शहरों में “क्लॉथ डायपर बैंक” जैसी पहल भी शुरू हुई हैं, जो आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों को मुफ्त या कम कीमत पर पुन: प्रयोग योग्य डायपर उपलब्ध कराती हैं।
इस संदर्भ में कुछ नीतिगत स्तर पर भी बदलाव जरूरी है। जिस तरह प्लास्टिक बैग और सिंगल-यूज़ प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाए गए, उसी तरह डायपर उद्योग के लिए भी मानक तय करने होंगे। कई देशों में पहले से ही “डायपर रीसाइक्लिंग प्रोग्राम” चल रहे हैं, जिनमें इस्तेमाल किए गए डायपर से प्लास्टिक और जैविक पदार्थ अलग कर पुन: उपयोग में लाए जाते हैं। भारत में भी पायलट प्रोजेक्ट्स के जरिए इस दिशा में शुरुआत की जा सकती है।
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