“हमारे यहां सारस, लाल सुर्खाब, सफेद सुर्खाब, नीलसर, जलकाग जैसे प्रवासी पक्षी हज़ारों की संख्या में आया करते थे। महासीर जैसी दुर्लभ मछली, लालपरी, सुआ, सेवड़ा, लोंछी, किरण, गोल्डन फिश, रोहू जैसी मछलियां हजारों की संख्या में रहती थीं। हमने यहां 70-70 किलो वज़न तक के कछुए देखे हैं। जब से रेत-बजरी खनन शुरू हुआ नदी के भीतर से जीव-जंतु, जलीय पौधे सब घटने लगे। मशीनों के शोर ने पक्षियों को यहां से जाने पर मजबूर कर दिया। रात्रिचर जीव भी पलायन कर गए। खनन के चलते हमारी यमुना मरने की कगार पर पहुंच गई है।”
यमुना तट पर मरी हुई मछली दिखाते हुए स्थानीय निवासी किरणपाल राणा कहते हैं कि खनन वाहनों के पहियों के नीचे आकर नदी के भीतर और बाहर जलीय जीव और पौधे नष्ट हो रहे हैं। फोटो: वर्षा सिंह
यमुना के किनारे खड़े होकर किरनपाल राणा जब ये बता रहे थे, वहीं रेत पर एक छोटी मरी हुई मछली पड़ी थी। वह दिखाते हैं “यहां बचे-खुचे प्राणियों का यही हश्र है। खनन वाहनों के पहियों के नीचे आकर इनके अंडे, बच्चे, बीज, छोटे पौधे सब नष्ट हो जाते हैं”। वह हरियाणा के यमुनानगर जिले के जगाधरी तहसील के कनालसी गांव में रहते हैं। यहां वर्ष 2016 में 44.14 हेक्टेअर नदी क्षेत्र में 9 वर्ष के लिए खनन की अनुमति मिली।
गंगा की सबसे लंबी सहायक नदी यमुना उत्तराखंड में 6,387 मीटर ऊंचाई पर यमनोत्री ग्लेशियर से निकलकर 5 राज्यों में 1,376 किलोमीटर का सफ़र तय करते हुए, उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले में गंगा में मिल जाती है।
भारतीय वन्यजीव संस्थान में वैज्ञानिक डॉ सैयद ऐनुल हुसैन नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा से जुड़े हैं। कनालसी गांव में खनन के चलते यमुना में जलीय जीवों की घटती संख्या पर वह बताते हैं “नदी से तय मात्रा से अधिक रेत खनन पूरे क्षेत्र को असंतुलित करता है। जलीय पौधे, सूक्ष्म जीव सब प्रभावित होते हैं। नदी और उसके ईर्दगिर्द रहने वाले जीवों की खाद्य श्रृंखला प्रभावित होने से जानवरों को भोजन नहीं मिलेगा। खनन क्षेत्र में जीव-जंतुओं की संख्या कम होना या स्थानीय तौर पर विलुप्त होना इसका संकेत है”।
रेत खनन का यमुना नदी और इसके जलीय जीवन पर किस तरह असर पड़ा है, इस पर अब तक कोई ठोस वैज्ञानिक अध्ययन किया ही नहीं गया।
चंबल नदी पर रेत खनन के असर का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक डॉ एसआर टैगोर भी यह सवाल उठाते हैं। वह कहते हैं “इटावा में यमुना की सहायक चंबल नदी पर किए गए हमारे अध्ययन से ये सिद्ध हो चुका है कि रेत खनन से नदी की जैव-विविधता पर खतरा आता है। हमने पाया कि चंबल में रेत खनन से घड़ियाल और कछुओं के प्रवास स्थल, नेस्टिंग पैटर्न, अंडे देने की प्रक्रिया बाधित हुई और इन जीवों ने उस नदी क्षेत्र से पलायन किया”।
डॉ टैगोर कहते हैं कि नदी क्षेत्र में भोजन की उपलब्धता के आधार पर पक्षी अपना प्रवास चुनते हैं। कई पक्षी नदी के बीच बने टापुओं पर अंडे देते हैं। खनन से होने वाली उथलपुथल जीव-जंतुओं की इन प्रक्रियाओं में बाधा आती है और उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ता है। किरणपाल राणा के मुताबिक उनके गांव में यही हो रहा है।
यमुना स्वच्छता के लिए सक्रिय किरणपाल राणा बताते हैं कि रेत खनन से पहले यहां हजारों की संख्या में प्रवासी पक्षी आया करते थे। अब गिने-चुने पक्षी ही नजर आते हैं। उन्होंने 2015 की यह तस्वीर हमारे साथ साझा की। फोटो: वर्षा सिंह
“यमुना जिए” अभियान चला रहे पूर्व आईएफएस अधिकारी मनोज मिश्रा कहते हैं यमुना की जैव-विविधता रेत खनन से कैसे प्रभावित हो रही है, इस पर कोई अलग से अध्ययन नहीं किया गया है। लेकिन गंगा या चंबल पर रेत खनन को लेकर किया गया अध्ययन यमुना पर भी लागू होता है।
धरती अपनी जैव विविधता बड़े पैमाने पर खो रही है। वर्ष 2018 की डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1970 से 2014 के बीच वैश्विक स्तर पर वन्यजीवों की आबादी 60% तक घटी है।
अवैध खनन पर वर्ष 2012 में दीपक कुमार व अन्य बनाम हरियाणा सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला नज़ीर माना जाता है। इस महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वर्षों से हो रहे खनन से जलीय जीवों के अस्तित्व पर संकट आ गया है। बेलगाम रेत खनन से भारत की नदियां और नदियों का पारिस्थितकीय तंत्र बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।
नदियों का इकोसिस्टम प्रभावित होने के साथ उनके किनारों कमजोर हो रहे हैं, उन पर बने पुल खतरे में हैं और नदी और उसके किनारे रहने वाले जीवों का प्राकृतिक आवास, उनका प्रजनन प्रभावित हो रहा है। पक्षियों की कई प्रजातियों के संरक्षण को लेकर आपदा जैसी स्थिति हो गई है। इस फैसले के 10 साल बाद भी नदियां और नदियों पर निर्भर जीवन के संरक्षण के लिए कोई ठोस उपाय नहीं किए गए।
कनालसी गांव के लोगों का आरोप है कि नियम के विरुद्ध रात के समय भी नदी से रेत खनन किया जाता है। रेत की धुलाई के लिए दिन-रात भूजल दोहन किया जाता है। फोटो: वर्षा सिंह
भूजल संकट
इंसान का पेट रोटी और पानी से भरता है। नदी का पेट रेत और पानी से। यमुना में जब रेत ही नहीं होगी तो पानी धरती में कैसे समाएगा, गांव के बुजुर्ग कहते हैं।
ज्यादातर ग्रामीण भूजल स्तर में आ रही गिरावट और भविष्य के जल संकट से चिंतित हैं। कनालसी गांव के किसान महिपाल सिंह कहते हैं “यमुना के करीब 5 किलोमीटर लंबाई में 40-50 स्क्रीनिंग प्लांट लगे हैं। रेत-बजरी की धुलाई के लिए ये प्लांट दिन-रात भूमिगत जल का दोहन करते हैं। खनन के चलते नदी का तल भी नीचे जा चुका है। पहले ज़मीन में 25-30 फुट पर पानी आ जाता था। अब 60 फुट तक मुश्किल से पानी आता है। किसानों के ट्यूबवैल बिलकुल ठप पड़ गए और नए बोरिंग करवाने पड़े। अगले 5 साल खनन की यही स्थिति रही तो सिंचाई और पेयजल का बड़ा संकट होगा”।
खनन के चलते भूजल स्तर गिरने, सांस, आंख, त्वचा संबंधी बीमारियों, खराब सड़कों, धूल से पशुओं का चारा खराब होने, प्रदूषण जैसी समस्याओं को लेकर कनालसी के ग्रामीणों ने वर्ष 2021 में हरियाणा के मुख्यमंत्री को लिखा पत्र दिखाया। जिसमें शिकायत करने पर खनन ठेकेदारों से धमकियां मिलने का भी जिक्र किया गया।
मंडोलीगग्गड़ गांव के मल्लाह कहते हैं कि खनन के चलते उन्हें अपना पारंपरिक पेशा छोड़ना पड़ा। अब उनके गांव के ज्यादातर मल्लाह मजदूरी करने शहर की ओर चले गए हैं। फोटो: वर्षा सिंह
मल्लाह बने मजदूर
खनन से जलीय जीव संकट में आ गए जबकि मल्लाह, मछुआरे रोजगार बदलने पर मजबूर हो गए। यमुनानगर के छछरौली तहसील के मंडोलीगग्गड़ गांव में 60 मल्लाह परिवार रहते हैं। जिनका पारंपरिक पेशा यमुना में किश्तियां चलाना और नदी तट पर खेती करना रहा है।
कभी मल्लाह रहे प्रमोद कुमार कहते हैं “अब हमारे समुदाय के लोग शहर की प्लाईवुड फैक्ट्रियों में मज़दूरी करने जाते हैं। नदी में अब किश्तियां नहीं लगती। हम यमुना में लौकी, करेला, कद्दू, ककड़ी, खीरा, तरबूज, खरबूजा जैसी बेल वाली सब्जियां-फल उगाते थे। हमारे पूर्वज यही काम करते आए थे। तब नदी हम सबकी हुआ करती थी, अब सिर्फ खनन वालों की है”।
"तब नदी हम सबकी हुआ करती थी, अब सिर्फ खनन वालों की है"–– प्रमोद कुमार
खनन के चलते यमुना का बहाव एक समान न होने से मल्लाहों ने किश्तियां चलाने में खतरे की समस्या बताई। क्षेत्र में अब गिने-चुने मल्लाह ही यमुना में किश्तियां ले जाते हैं। फोटो: वर्षा सिंह
नदी पार लगाने वालेबाकी बचे गिने-चुने मल्लाह मायूसी जताते हैं। जगाधरी तहसील के बीबीपुर गांव के युवा मोहम्मद मुकर्रम इनमें से एक हैं। सड़क से जो दूरी दो घंटे में तय होती है, किश्ती से दस मिनट में। मोटरसाइकिल सवारों के वाहन नदी पार कराते हुए मुकर्रम बताते हैं “खनन के बाद नदी कहीं बहुत ज्यादा गहरी तो कहीं उपर है। पानी का बहाव एक समान नहीं रह गया। इससे किश्तियां चलाने में डर लगता है”।
‘हम नदी से नाराज़ नहीं’
जगाधरी तहसील के बहरामपुर गांव के किसान लक्ष्मीचंद की आवाज़ रुआंसी हो उठती है। वह यमुना की जद में आए अपने खेत दिखाते हैं। “जहां खनन होना चाहिए, वहां नहीं होता, कहीं और हो जाता है। ये सामान्य कटाव नहीं है। नदी को रोक दिया है। जब पानी को निकलने का रास्ता नहीं मिलेगा तो नदी कहां जाएगी। सरकार की कमाई तो खूब होती है। लेकिन सरकार हम पर ध्यान नहीं देती। गांव के कई किसानों की ज़मीन कट गई है। हमारे पेड़ नदी में समा गए”।
( यह स्टोरी इंटरन्यूज अर्थ जर्नालिज्म नेटवर्क के सहयोग से तैयार की गई है)
यमुना में रेत खनन की निगरानी करने में क्या यमुनानगर का प्रशासन सक्षम है? इस कहानी का अगला हिस्सा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।