सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी नर्मदा बांध प्रभावितों को नहीं मिला न्याय: स्टडी

अमेरिकी संस्था यूनिवर्सिटी नेटवर्क फॉर ह्यूमन राइट ने मंगलवार को भोपाल में वेटिंग फॉर द फ्लड शीर्षक के साथ रिपोर्ट जारी कर कहा कि नर्मदा घाटी में रहने वाले आदिवासियों के मानवाधिकारों का हनन हुआ
सरदार सरोवर बांध के डूब क्षेत्र में आए गांवों में पानी भर आया है, पुनर्वास के बिना लोग गांव में ही रहने को मजबूर हैं। फोटो: मनीष चंद्र मिश्रा
सरदार सरोवर बांध के डूब क्षेत्र में आए गांवों में पानी भर आया है, पुनर्वास के बिना लोग गांव में ही रहने को मजबूर हैं। फोटो: मनीष चंद्र मिश्रा
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सरदार सरोवर बांध बनने की प्रक्रिया में मध्यप्रदेश के सैकड़ों गांवों के हजारों आदिवासी और ग्रामीण विस्थापन का दंश झेल रहे है। विस्थापितों के साथ किस तरह की समस्याएं आ रही है और पुनर्वास के लिए किए गए सरकारी प्रयास कितने कारगर हैं इन सवालों का जवाब देती हुई एक रिपोर्ट मंगलवार को भोपाल में जारी की गई।

अमेरिका स्थित मानवाधिकार संगठन यूनिवर्सिटी नेटवर्क फॉर ह्यूमन राइट ने वर्ष 2017 और 2018 में नर्मदा घाटी में रहने वाले विस्थापित आदिवासियों से बातचीत कर यह रिपोर्ट तैयार की। यूनिवर्सिटी नेटवर्क से जुड़ी रूहान नागरा ने रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि गुजरात सरकार की जिद की वजह से बांध की ऊंचाई इस वक्त 136 मीटर से भी अधिक है। इस वजह से बिना उचित पुनर्वास मिले डूब प्रभावित लोगों की हालत चिंताजनक है। उन्होंने मांग की कि बांध का जलस्तर तब तक न बढ़ाया जाए, जब तक उचित पुनर्वास न हो जाए।

इस रिपोर्ट के माध्यम से आदिवासियों की उन चिंताओं और उनकी स्थिति को सामने लाया जा रहा है। 100 पृष्ठों की इस रिपोर्ट में सरदार सरोवर बांध योजना की शुरुआत से लेकर विस्थापन और पुनर्वास की प्रक्रिया के बारे में जानकारी के अलावा बांध प्रभावित गांव रोलीगांव, महलगांव, कुकडिया, भादल और भिताड़ा गांव के लोगों की दयनीय स्थिति को भी शामिल किया गया है। इस रिपोर्ट में आदिवासियों ने डूब क्षेत्र में आने के बाद आजीविका खत्म हो जाने की बात भी कही है।

सामने आया आदिवासियों का दर्द

रालीगांव के हजारिया तोरसिंह की कहानी इस रिपोर्ट में शामिल है। वे मध्यप्रदेश के अलीराजपुर जिले के इस गांव में अपने 6 बच्चों और पत्नी के साथ रहते हैं और खेती का काम करते हैं। वर्ष 1993 में ही उनकी जमीन डूब में चली गई और उन्हें जमीन के बदले जमीन नहीं दी गई । वर्ष 2011 में उन्होंने इसके खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ी, जिसका फैसला सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में उनके पक्ष में दिया। सरकार को आदेश दिया गया कि उन्हें जमीन और मकान के लिए घर दिया जाए जो कि अब तक नहीं मिला। तोरसिंह का परिवार पुनर्वास के बिना गरीबी में मजदूरी कर अपना समय काट रहा है।  

इसी गांव के किसान जबरिया भाईसिंह की कहानी भी कुछ इस तरह की है। डूब क्षेत्र में आने के बाद सरकारी लिस्ट में इनका नाम नहीं आया, बल्कि इनके बदले किसी ऐसे व्यक्ति का नाम पुनर्वास के लिए लिस्ट में मौजूद था जो कि असल में मौजूद ही नहीं है। जबरिया ने इसकी शिकायत की और 2016 में फैसला इनके पक्ष में आया, हलांकि जमीन अभी तक नहीं मिली। कुकडिया गांव के भीम सिंह ने भी जमीन के बदले जमीन और पुनर्वास के लिए पैसा नहीं मिलने की वजह से डूब प्रभावित क्षेत्र में रहने की मजबूरी बताई। डूब प्रभावित आदिवासी भानसिंह गुलाबसिंह ने कहा कि उसके पिताजी डूब क्षेत्र में खाली जमीन पर खेती करते थे, जो कि उनके परिवार का एक मात्र कमाई का स्त्रोत था। डूब के बाद उनके परिवार की जीविका प्रभावित हो गई और वे किसान से मजदूर बन गए।

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