दिल्ली की यमुना में झाग, प्रतीकात्मक छवि : आईस्टॉक
दिल्ली की यमुना में झाग, प्रतीकात्मक छवि : आईस्टॉक

यमुना के पानी का बंटवारा, भविष्य की लड़ाई

1994 में यमुना के जल को छह राज्यों के बीच बांटने के लिए एक समझौता हुआ था, तीन दशक बाद यह समझौता अब बेअसर साबित हो रहा
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यमुना नदी केवल जल का एक स्रोत मात्र नहीं, अपितु उत्तर भारत के बड़े भू-भाग की जीवनरेखा भी है और साथ ही पारिस्थितिकी, सामाजिक और राजनीतिक चुनौतियों का केंद्र भी। उत्तराखंड के यमुनोत्री ग्लेशियर से शुरू होकर प्रयागराज में गंगा से मिलने तक 1,376 किलोमीटर की यात्रा करने वाली यह नदी करोड़ों लोगों की जीवनदायिनी है। यमुना उनके खेतों को सींचती है और उनकी सांस्कृतिक विरासत को सहेजती है। लेकिन यही यमुना अब एक दोराहे पर खड़ी है। इसका जल सूख रहा है, इसकी पारिस्थितिक सेहत ढह रही है और इसके पानी के बंटवारे को लेकर छह राज्यों- हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश के बीच 1994 का जल-बंटवारा समझौता सवालों के घेरे में है। 

2025 में इस समझौते की समीक्षा होनी है। समीक्षा के नतीजे तय करेंगे कि क्या यह नदी बच पाएगी या यह फिर यूं ही अंतर-राज्य विवाद, प्रदूषण और उपेक्षा का शिकार बनी रहेगी ?

1994 का जल-बंटवारा ढांचा: दबाव में एक नींव

1994 में यमुना के जल को छह राज्यों के बीच बांटने के लिए एक समझौता हुआ था, जिसमें नदी के अनुमानित वार्षिक प्रवाह 11.48 अरब घन मीटर (बीसीएम) को इस तरह विभाजित किया गया था- हरियाणा (4.66 बीसीएम, 40.6%), उत्तर प्रदेश (4.03 बीसीएम, 35.1%), राजस्थान (1.19 बीसीएम, 10.4%), दिल्ली (0.73 बीसीएम, 6.3%), हिमाचल प्रदेश (0.19 बीसीएम, 1.7%), और उत्तराखंड (0.38 बीसीएम, 3.3%)।

हरियाणा के हथिनीकुंड बैराज से जल प्रवाह को नियंत्रित करने की व्यवस्था की गई, जिसमें पर्यावरणीय प्रवाह  के लिए न्यूनतम 10 क्यूमेक पानी छोड़ने का प्रावधान था।

उस वक्त खेती, पेयजल और पर्यावरण की जरूरतों के लिहाज से यह ढांचा व्यावहारिक था। लेकिन तीन दशक बाद यह साफ है कि यह समझौता बढ़ती आबादी, गहराते जलवायु संकट और अनियंत्रित प्रदूषण के साथ तालमेल नहीं बिठा सका। कभी पर्याप्त समझा जाने वाला 10 क्यूमेक का पर्यावरणीय प्रवाह अब नाकाफी है।

राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान ने नदी की पारिस्थितिकी को बचाने के लिए कम से कम 23 क्यूमेक की सिफारिश की है। 2025 की समीक्षा का प्रावधान अब तीखे विवादों को जन्म दे सकता है, जिसमें राज्य अपने जल अधिकारों और जिम्मेदारियों को लेकर आमने-सामने हो सकते हैं।

पर्यावरणीय प्रवाह संकट: सांस लेती नदी का दम घुटना

पर्यावरणीय प्रवाह किसी भी नदी का प्राण तत्व है। यह ऑक्सीजन स्तर बनाए रखता है, जलीय पारिस्थितिकी को सहारा देता है और प्रदूषण को कम करता है। यमुना के लिए यह जीवनरेखा कमजोर पड़ रही है। हथिनीकुंड से छोड़ा गया 10 क्यूमेक पानी 170 किलोमीटर दूर दिल्ली तक शायद ही पहुंचता हो। अधिकांश पानी वाष्पित हो जाता है, रिस कर भूतल में चला जाता है या सिंचाई के लिए निकाल लिया जाता है। दिल्ली में प्रवेश करने तक इसका प्रवाह नगण्य हो जाता है और यह सीवेज और औद्योगिक कचरे से ठठे पड़े एक ठहरे हुए नाले में बदल जाती है।

दिल्ली में यमुना का केवल 2 प्रतिशत हिस्सा इसके कुल प्रदूषण का 79 प्रतिशत भार वहन करता है। जैव रासायनिक ऑक्सीजन मांग स्वस्थ स्तर  3 मिग्रा/लीटर से काफी ऊपर 70 मिग्रा / ली तक पहुंच गई है, घुलित ऑक्सीजन 0 मिग्रा/लीटर है, जबकि इसे 5 मिग्रा/लीटर होना चाहिए। 

फीकल कॉलिफॉर्म की संख्या सुरक्षित सीमा  2500 एमपीएन प्रति 100 एमएल की बजाय 84 लाख एमपीएन/100 मिली है। 2025 की शुरुआत में ये आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली में यमुना जैविक रूप से मृत है और  इसके पानी में जहरीला झाग तैर रहा है और यह किसी काम का नहीं।

2015 में राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने हरियाणा को 10 क्यूमेक पर्यावरणीय प्रवाह बनाए रखने का आदेश दिया था, लेकिन पालन आधा-अधूरा रहा और यह प्रवाह अपर्याप्त साबित हुआ। दिल्ली का तर्क है कि 23 क्यूमेक तक बढ़ोतरी जरूरी है, ताकि प्रदूषण बह सके और नदी सांस ले सके।

हरियाणा अपने जल संकट और 1994 के समझौते पर अडिग रहने का हवाला देते हुए इसका विरोध करता है, जिसमें 2025 में ही संशोधन संभव है। यह गतिरोध पर्यावरणीय प्रवाह प्रबंधन में वैज्ञानिक और गतिशील दृष्टिकोण की कमी को उजागर करता है: ।

दिल्ली बनाम हरियाणा: जल युद्ध में कोई विजेता नहीं

दिल्ली और हरियाणा के बीच यमुना विवाद भारत के अंतर-राज्य जल संघर्षों का प्रतीक है।दो करोड़ से अधिक आबादी वाला दिल्ली अपने 70 प्रतिशत पेयजल के लिए हरियाणा पर निर्भर है, जो मुख्य रूप से पश्चिमी यमुना नहर से आता है। हर गर्मी में यह निर्भरता तनाव पैदा करती है। दिल्ली हरियाणा पर आपूर्ति रोकने का आरोप लगाती है, जबकि हरियाणा कहता है कि वह भी पानी की किल्लत झेल रहा है। 2024 में दिल्ली सरकार ने इसे साजिश करार दिया, वहीं हरियाणा ने अपने हिस्से से अधिक देने से इनकार किया।

यह दोषारोपण एक गहरी सच्चाई को छिपाता है कि दोनों राज्य अतिशय जल निकासी, खराब प्रबंधन और जलवायु-प्रेरित सूखे की मार झेल रहे हैं। हरियाणा का कृषि क्षेत्र पानी मांगता है तो दिल्ली का अनियंत्रित शहरीकरण इसकी व्यवस्था पर दबाव डालता है। दोनों ने संरक्षण या वैकल्पिक स्रोतों में निवेश नहीं किया, जिसका खामियाजा यमुना भुगत रही है।

दिल्ली से परे: दूर तक असर

यमुना की मुश्किलें दिल्ली-हरियाणा तक सीमित नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में मथुरा, आगरा और इटावा जैसे शहर दिल्ली के गंदे नालों का पानी झेलते हैं, जिससे स्थानीय प्रदूषण बढ़ता है। 4.03 बीसीएम आवंटन के बावजूद उत्तर प्रदेश ने यमुना के बाढ़ क्षेत्र को चिह्नित नहीं किया, जिससे अतिक्रमण और रेत खनन ने नदी को और घेर लिया। राजस्थान, जो भरतपुर के लिए 1.19 बीसीएम इस्तेमाल करता है, अपने हिस्से में किसी कटौती का विरोध करता है। हिमाचल प्रदेश सहायक नदियों में घटते जलस्तर की शिकायत करता है, जो ग्लेशियर पिघलने और मानसून के बदलते स्वरूप का संकेत है।

राज्यों की ये अलग-अलग प्राथमिकताएं एक गर्म होते ग्रह पर साझा संसाधन के प्रबंधन की राह में मौजूद जटिलताओं को दर्शाती हैं। यमुना का ऊपरी हिस्सा सूख रहा है, मध्य भाग प्रदूषण से बर्बाद है और निचला हिस्सा अपनी पुरानी शक्ल खो चुका है। समन्वित कार्रवाई के बिना 2025 की समीक्षा महज राजनीतिक खेल बनकर रह जाएगी।

2025 की समीक्षा: निर्णायक मोड़

2025 की समयसीमा नजदीक आते ही यमुना समझौते की समीक्षा जल प्रबंधन पर फिर से विचार का मौका देती है। तीन संभावनाएं सामने हैं:

  1. पर्यावरणीय प्रवाह  में संशोधन: 23 क्यूमेक तक बढ़ोतरी से पारिस्थितिक संतुलन बहाल हो सकता है, लेकिन इसके लिए हरियाणा का सहयोग और किसानों के लिए मुआवजा जरूरी है। केंद्र की मध्यस्थता अहम होगी।

  2. नया जल ट्रिब्यूनल: दिल्ली ने कावेरी जल विवाद ट्रिब्यूनल की तर्ज पर सुनवाई का संकेत दिया है। यह कानूनी रास्ता अंतर-राज्य तनाव को बढ़ा सकता है।

  3. तकनीकी हल: गाद निकालना, भूजल पुनर्भरण और सीवेज उपचार से प्रवाह और गुणवत्ता सुधर सकती है। इसके लिए निवेश और इच्छाशक्ति चाहिए, लेकिन दोनों की ही कमी नजर आती है।

समीक्षा का नतीजा इस पर टिका है कि क्या यमुना जल समझौते में शामिल सभी भाजपा शासित राज्य (हिमाचल को छोड़कर) तालमेल बिठाएंगे या अपनी-अपनी राज्य केंद्रित राजनीति को सामने रखकर अड़े रहेंगे । बहरहाल, यमुना का भविष्य राजनीति से ऊपर है—यह एक पर्यावरणीय आपदा है, जिसके लिए साहसिक कदम जरूरी हैं।

पुनर्जनन का रास्ता

यमुना को बचाने के लिए विज्ञान और सहयोग पर टिकी बहुआयामी रणनीति चाहिए:

  • पर्यावरणीय प्रवाह  प्रबंधन: राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान की 23 क्यूमेक की सिफारिश वास्तविक समय निगरानी और मौसमी बदलावों के अनुकूल नीतियों के साथ अपनाई जानी चाहिए।

  • प्रदूषण नियंत्रण: उद्योगों के लिए शून्य-तरल निर्वहन लागू किया जाए और सीवेज उपचार क्षमता बढ़े। रोज 3,500 मिलियन लीटर कचरा डालने वाले दिल्ली के 18 बड़े नालों का उपचार जरूरी है।

  • जल पुनर्भरण: वर्षा जल संचय, आर्द्रभूमि बहाली और गाद निकालने से प्राकृतिक प्रवाह बढ़ेगा। हरियाणा और यूपी को बाढ़ क्षेत्र संरक्षण पर जोर देना होगा।

  • जन जवाबदेही: नदी किनारे समुदायों को पानी की गुणवत्ता पर नजर रखने और सरकारों पर दबाव बनाने के लिए जोड़ा जाना चाहिए।

यमुना सिर्फ दिल्ली की नदी नहीं-यह उत्तर भारत की साझा धमनी है। इसका पतन हमारी उस सामूहिक नाकामी को दिखाता है, जो पानी को सीमित, जीवंत संसाधन मानने से इनकार करती है। 2025 की समीक्षा को पुरानी राह से हटकर नीति सुधार और पारिस्थितिक बहाली का मिश्रण बनाना होगा। तभी यह पवित्र नदी जीवनदायिनी की भूमिका फिर से निभा सकेगी, न कि उपेक्षा का प्रतीक बनेगी।

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