जून 2022 से सत्ता के गलियारों में साहिबी नदी को पुनर्जीवित करने की चर्चा गर्म है। नजफगढ़ नाले के रूप में जानी जाने वाली यह नदी राजस्थान से हरियाणा होते हुए दिल्ली तक बहती है। योजना थी कि पहले दिल्ली में तिमारपुर और बसई दारापुर के बीच 12 किलोमीटर तक नदी को पुनर्जीवित किया जाएगा और फिर राष्ट्रीय राजधानी की सीमा के भीतर नदी के पूरे 57 किलोमीटर के हिस्से को पुनर्जीवित कर जलमार्ग के रूप में विकसित किया जाएगा।
दिल्ली के सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण विभाग के एक अधिकारी का कहना है कि सफाई, गाद निकालने और तटबंधों की बहाली की योजना है। सिंचाई विभाग पुरानी गाद निकालने और तटबंधों की बहाली को देखेगा, वहीं दिल्ली जल बोर्ड को 126 नालों को नदी में गिरने से रोकने और पानी के उपचार का काम सौंपा गया है।
पर्यटन विभाग नदी पर यात्री और मालवाहक नौकाओं के संचालन की जिम्मेदारी निभाएगा। मौजूदा योजना दिल्ली के अलावा पूरी नदी को पुनर्जीवित करने की जरूरत को नजरअंदाज करती है।
राजस्थान और हरियाणा में नदी तल का बड़ा हिस्सा सूखा रहता है और कई क्षेत्रों में इसका कोई निशान दिखाई नहीं देता। हालांकि दिल्ली में साहिबी का रास्ता पता लगाया जा सकता है, लेकिन इसका पानी अब शहर तक नहीं पहुंचता। दिल्ली में नदी का असली कायाकल्प दो पड़ोसी राज्यों में इसके पुनरोद्धार पर निर्भर है।
नदी के व्यवस्थित कायाकल्प के लिए पहला कदम पैलियो-चैनल मैपिंग के माध्यम से नदी के मूल पथ की पहचान करना हो सकता है। हाल ही में यह काम नागरिकों के योगदान से हुआ है। इस मैपिंग में जीआईएस सॉफ्टवेयर का उपयोग करके उपग्रह छवियों, स्थलाकृतिक शीट और प्रशासनिक मानचित्रों का विश्लेषण किया गया था जिसने स्थापित किया कि नदी लगभग 317 किमी लंबी है।
इसका उद्गम स्थल राजस्थान के नीम का थाना जिले में सेवर पहाड़ियों की पूर्वी ढलान है और यह पास के गांवों से होकर बहने वाली कई छोटी नदियों जैसे अडा नाला, बुज गंगा, सोटा, सुरखनली और बनगंगा से पोषित होती है। नदी तल इसके ऊपरी हिस्से के साथ-साथ इसके उद्गम स्थल से करीब 93 किमी दूर सोडावास और करोदा गांवों के बीच एक पुल के नीचे भी देखा जा सकता है।
नीम का थाना में नदी के उद्गम से लगभग 114 किमी दूर राजस्थान-हरियाणा सीमा के पास अजरका रेलवे पुल के नीचे भी नदी दिखाई देती है। 87 पिलर वाला यह पुराना रेलवे पुल नदी की पुरानी चौड़ाई का प्रमाण देता है।
मैपिंग से यह भी पता चलता है कि नदी कोटकासिम की ओर बढ़ती है और अकोली गांव के पास हरियाणा के रेवाड़ी में प्रवेश करती है। यहां मसानी बैराज का निर्माण 1977 की भीषण बाढ़ के बाद किया गया था, जिसमें हरियाणा और दिल्ली के कुछ हिस्से जलमग्न हो गए थे।
बैराज के बाद नदी का मार्ग दादरी तोए गांव तक गुमनाम रहता है, जहां आउटफॉल ड्रेन नंबर 8 दिल्ली में प्रवेश करता है और साहिबी में पानी छोड़ता है। दिल्ली के 126 छोटे-बड़े नालों के साथ गुरुग्राम के बादशाहपुर और धरमपुर नाले भी साहिबी में अपना अपशिष्ट जल छोड़ते हैं। इस अपशिष्ट जल के साथ साहिबी वजीराबाद बैराज के पास यमुना में मिल जाती है।
प्रवाह में कमी
नदी किनारे कई गांवों और कस्बों की मौजूदगी समुदाय के लिए इसके महत्व को इंगित करते हैं। नदी की बदहाली के साथ बदतर हुए समुदाय के जीवन में सुधार तभी आ सकता है जब सभी राज्यों में नदी का कायाकल्प हो।
आसपास के समुदाय गवाही देते हैं कि साबी के रूप में जानी जाने वाली यह नदी अपने “अच्छे दिनों” यानी 1978 से कुछ समय पहले तक पूरे साल अपने प्रवाह को बनाए रखती थी। सूखती थी तो केवल गर्मियों के महीनों में।
अपने मार्ग को बदलने की प्रवृत्ति के लिए चर्चित साहिबी 3 मीटर या उससे अधिक (बाढ़ के दौरान) गहरी हो जाती थी और इसकी चौड़ाई 400 मीटर से लगभग 3 किमी (उफनाने पर) के बीच थी। मॉनसून के मौसम ने ऊंचे भूभाग पर बसे गांवों को यह टापू बना देती थी। कोटकासिम जैसे कुछ गांवों में बाढ़ रोकने के लिए चारों तरफ तटबंध थे।
1978 के बाद से साहिबी नदी बदहाल होने लगी। इसमें आखिरी बार प्रवाह 1990 के दशक के मध्य में दर्ज किया गया था। स्थानीय समुदाय नदी की दुर्दशा के लिए अरावली में खनन, वनस्पति को नुकसान, वर्षा में गिरावट के साथ चेकडैम और सड़कों के निर्माण से मौसमी धाराओं की रुकावट को संयुक्त रूप से जिम्मेदार मानते हैं।
2021 में प्रकाशित पुस्तक “इंडिया: क्लाइमेट चेंज इम्पैक्ट्स, मिटिगेशन एंड अडेप्टेशन इन डेवलपिंग कंट्रीज” के एक अध्याय में ऑस्ट्रेलिया और हरियाणा के शोधकर्ताओं ने 57 साल की अवधि (1961-2017) में राजस्थान में साहिबी बेसिन के नौ स्टेशनों से वर्षा के आंकड़ों का विश्लेषण किया। उन्होंने क्षेत्र में मॉनसून और इसके बाद की वर्षा दोनों में आंशिक कमी देखी। हालांकि यह उल्लेखनीय नहीं थी।
जीवनदायिनी थी कभी
पहले नदी के आसपास के गांवों में भूमिगत जल 3 मीटर की गहराई पर उपलब्ध था। जल की इस प्रचुरता ने क्षेत्र को कृषि संपन्न बनाया। किसानों ने खरीफ फसलों के रूप में बाजरा, ज्वार, ग्वार, मूंग और मटकी (मोठ) सहित अनेक प्रकार की फसलों की खेती की। रबी में वे गेहूं, सरसों, चना और तरबूज उगाते थे। रबी फसलों को नदी के पास मिट्टी की उच्च नमी से विशेष लाभ हुआ करता और सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। किसानों का दावा है कि फसल की कम पैदावार के बावजूद उपज की गुणवत्ता बेहतर थी और जैविक पद्धति से खेती होती थी।
पानी की प्रचुरता ने वनस्पतियों को बढ़ाने में योगदान दिया। नीम, पीपल, बरगद, बबूल और खेजड़ी जैसी देसी प्रजातियां बहुतायत में थीं। नदी किनारे स्थानीय रूप से झुंडा या सरकंडा के नाम से मशहूर मुंजा घास की उपस्थिति ने मिट्टी के कटाव को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस घास का इस्तेमाल अन्य चीजों के अलावा पारंपरिक फर्नीचर, रस्सियां, बेलों के लिए ट्रेलिस सिस्टम और छप्पर बनाने के लिए भी किया जाता था।
छोटी-छोटी मछलियों से भरी नदी न केवल पारिस्थितिक विविधता में इजाफा करती थी, बल्कि विशेषरूप से कोटकासिम में कहार समुदाय के लिए आजीविका भी उपलब्ध कराती थी। कहा जाता है कि मुगल शासक अकबर ने नदी को बांधकर रेवाड़ी शहर ले जाने का प्रयास किया था जिसमें वह असफल रहा। इसीलिए यह कहावत प्रचलित थी-
अकबर बांधी ना बंधू ना रेवाड़ी जाऊं,
कोट तला कर नीकसूं साबी नांव कहाऊं
(अकबर के बांधने से भी नहीं बंधूंगी और न ही रेवाड़ी जाऊंगी। मैं कोटकासिम के पास से निकलती हूं और साबी नाम से जानी जाती हूं)
अब साहिबी से सटे इलाकों में भूजल स्तर 30 मीटर से लेकर 67 मीटर तक गिर गया है और कुछ स्थानों में इसका स्तर बेडरॉक (आधारशिला) के करीब पहुंच गया है। हालांकि, हरियाणा में मसानी बैराज के पास निखरी जैसे कुछ गांवों में लाल बहादुर शास्त्री रिचार्ज चैनल से अतिरिक्त पानी छोड़े जाने और पास के सीवेज उपचार संयंत्रों (एसटीपी) से अपशिष्ट जल को सूखी नदी तल में मोड़ने के कारण भूजल स्तर में वृद्धि प्रतीत होती है।
भूजल स्तर में समग्र गिरावट के कारण क्षेत्र में वनस्पति सूख गई हैं और फसल की गुणवत्ता और विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, जिससे खेती मुख्य रूप से गेहूं और बाजरा तक सीमित हो गई है। पारंपरिक रूप से सर्दियों में नदी किनारे गीली मिट्टी में उगाया जाने वाला चना अब नदी के सूखने के कारण पनप नहीं पा रहा है।
पिछले एक दशक में राजस्थान के खैरथल-तिजारा जिले में किसानों ने भूजल का उपयोग करके कपास उगाना शुरू कर दिया है, क्योंकि यह पारंपरिक फसलों की तुलना में अधिक फायदेमंद है। कुछ क्षेत्रों में जहां भूजल में काफी गिरावट आई है। वहां के निवासी पानी में फ्लोराइड की मौजूदगी की पुष्टि करते हैं। यह उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है।
शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों से अनुपचारित अपशिष्ट जल को साहिबी के सूखे तल में बहने से ये समस्याएं लगातार बढ़ रही हैं। उदाहरण के लिए रेवाड़ी शहर और धारूहेड़ा औद्योगिक क्षेत्र अनुपचारित अपशिष्ट जल को मसानी बैराज के पास नदी तल में बहा देते हैं जबकि बावल औद्योगिक क्षेत्र अपशिष्ट जल को अहीर बघोला गांव के पास सूखे तल में छोड़ रहा है। इससे भूजल दूषित होने के साथ ही जानवरों और पक्षियों की मौत हो रही हैं। मसानी बैराज के पास निखरी और खरखड़ा जैसे गांवों के लोगों ने बोरवेल के पानी में झाग के आधार पर भूजल प्रदूषण पर चिंता जाहिर की है।
सूखी हुई नदी का तल बहुत से अतिक्रमणों का शिकार है। इस पर खेतों, घरों और सड़क, रेलवे लाइन जैसे बुनियादी ढांचे के जरिए अतिक्रमण कर लिया गया है। माजरी खोला में गांव के निवासियों ने पारंपरिक ज्ञान के अनुसार, ऊंचाई पर बने अपने घरों को त्याग दिया है और वे नदी तल पर बने घरों में बस गए हैं।
वहीं कोटकासिम में घर और सड़कें नदी के ऊपर ही बन गई हैं। नदी तल पर इस प्रकार का अविवेकी निर्माण और बसावट, भारी वर्षा के कारण साहिबी में बाढ़ आने की स्थिति में जीवन और संपत्ति के लिए बड़ा खतरा बन सकती है। यह स्पष्ट है कि साहिबी के किसी भी पुनरोद्धार का प्रयास समग्रता में होना चाहिए। यह किसी खास हिस्से के बजाय पूरे क्षेत्र में होना चाहिए।
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की एक उल्लेखनीय पहल के माध्यम से हाल ही में एक महत्वपूर्ण सफलता मिली है। रेवाड़ी जिले के खरखरा गांव के निवासी प्रकाश यादव ने एनजीटी को रेवाड़ी शहर और धारूहेड़ा औद्योगिक क्षेत्र में कई एसटीपी से अनुपचारित अपशिष्ट जल को साहिबी में छोड़े जाने के बारे में सचेत किया था।
एनजीटी ने अपने फैसले में नदी के जलग्रहण क्षेत्र दोहन से बचाने और न्यूनतम पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित करने के लिए दिल्ली, राजस्थान और हरियाणा द्वारा सहयोगात्मक प्रयासों की आवश्यकता पर बल दिया, जिसका अंतिम लक्ष्य नदी की पारिस्थितिकी को बहाल करना और जलीय जीवन की रक्षा करना है।
इसके लिए कई स्तरों पर सहयोग की आवश्यकता है, जैसे सरकारों के बीच, सरकार और समुदायों के बीच और स्वयं समुदायों के बीच। साहिबी का पुनरोद्धार इन सामूहिक प्रयासों की सफलता पर निर्भर करता है जो सभी के लिए एक टिकाऊ भविष्य की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित होगा।
(लेखिका टेरी स्कूल ऑफ एडवांस्ड स्टडीज, नई दिल्ली में एक रिसर्च स्कॉलर हैं। उनकी जल निकायों के टिकाऊपन पर शोध में विशेष रुचि है)