वर्ष 2023 में हिमालयी राज्यों ने तीव्र मौसमी घटनाओं के बीच बांधों के चलते चुनौतीपूर्ण स्थिति को झेला है। उत्तराखंड में जोशीमठ भूधंसाव और जलविद्युत परियोजना, हिमाचल प्रदेश में मॉनसून के साथ आई तबाही और विकास परियोजनाओं का निर्माण और सिक्किम में हिमानी झील और बांध टूटने से आई बाढ़ ने हिमालयी क्षेत्रों में बड़ी विकास परियोजनाओं को लेकर सवाल खड़े किए हैं।
इसी समय उत्तराखंड के हल्द्वानी में गौला नदी पर वर्ष 1975 से प्रस्तावित जमरानी बहुउद्देशीय परियोजना को केंद्र सरकार से मंजूरी मिली है। 25 अक्टूबर 2023 को केंद्र सरकार की आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने इसे मंजूरी दी। मार्च, 2028 तक 2,584.10 करोड़ रुपए की अनुमानित लागत वाली परियोजना को पूरा करने के लिए उत्तराखंड को 1,557.18 करोड़ की केंद्रीय सहायता मिलेगी जबकि 594.38 करोड़ रुपए लागत उत्तर प्रदेश वहन करेगा।
इस परियोजना में उत्तराखंड के नैनीताल और उधम सिंह नगर जिलों और उत्तर प्रदेश के रामपुर और बरेली जिलों में 57 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि में अतिरिक्त सिंचाई की व्यवस्था होगी। हल्द्वानी और आसपास के क्षेत्रों में रहनेवाली 10.65 लाख से अधिक आबादी के लिए 42.70 मिलियन क्यूबिक मीटर पीने के पानी का प्रावधान और 14 मेगावाट जलविद्युत ऊर्जा उत्पादन होगा।
गौला नदी बेसिन 750 वर्ग किमी में फैला हुआ है। समुद्र तल से 2,633 मीटर से 221 मीटर तक ऊंचाई पर बहने वाली इस मौसमी नदी का उद्गम नैनीताल जिले में है। पहाड़ों से उतरकर हल्द्वानी और उधमसिंह नगर के भाबर क्षेत्र में बहते हुए, उत्तर प्रदेश की सीमा में बरेली में रामगंगा नदी में मिल जाती है। रामगंगा नदी गंगा में समाहित होती है। इसलिए गौला भी गंगा नदी बेसिन की एक अहम नदी है।
बारिश के मौसम में तेज बहाव वाली नदी में सर्दियां आते-आते पानी बहुत कम रह जाता है। यहां तक कि नैनीताल के भाबर क्षेत्र में पेयजल जरूरतें भी इससे पूरी नहीं हो पाती।
जमरानी बांध के लिए पर्यावरणीय अध्ययन में नदी की हाइड्रोलॉजी (जल विज्ञान) यानी पानी की उपलब्धता, बाढ़ और रेत, पत्थर, बजरी समेत अन्य तत्व (sedimentation) का अध्ययन वर्ष 1977 से 2006 के डाटा के आधार पर किया गया।
एशियन डेवलपमेंट बैंक की वित्तीय मदद (80:20 अनुपात) से 1989 में 144.84 करोड़ अनुमानित लागत की परियोजना की लागत वर्ष 2019 में 2584.10 करोड़ आंकी गई। वर्ष 2019 की डीपीआर में दोबारा वन, पर्यावरण और नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा से जुड़ी अनुमतियां लेने की बात लिखी गई है।
विशेष तौर पर सिंचाई और पेयजल से जुड़ी जरूरतों को पूरा करने के उद्देश्य से बनाई जा रही जमरानी परियोजना को विशेषज्ञ नई जलवायु परिस्थितियों, चुनौतियों और ताजा अध्ययन के आधार पर देखने पर जोर दे रहे हैं।
मौजूदा आशंकाएं
गौला नदी पर अध्ययन कर चुके और वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान से सेवानिवृत्त वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ एसके बरतरिया उम्मीद जताते हैं कि जमरानी बांध बनने से संभव है कि भूजल स्तर बेहतर होगा, लेकिन कुछ मुद्दों पर गौला का नए सिरे से विश्लेषण करना होगा। जैसे कि, गौला नदी में साल भर पानी की उपलब्धता कितनी है, क्या ये पानी कम हो रहा है, पुराने उपलब्ध डाटा से तुलना कर, नये सिरे से इसके अध्ययन की जरूरत है।
डॉ बरतरिया की ये आशंका नए शोध सही साबित करते हैं। जल स्रोतों के सूखने, वनों की खराब हालत, अत्यधिक रेत खनन और बदलती मौसमी परिस्थितियों में गौला नदी में मानसून के अलावा पानी का प्रवाह बेहद कम पाया गया है।
1989 के अपने अध्ययन के आधार पर डॉ बरतरिया कहते हैं “पूरे देश में पहाड़ की नदियों की तुलना में गौला में सबसे ज्यादा सेडिमेंट्स (तलछट) आते हैं। यह एक बड़ी चुनौती होगी क्योंकि इससे बांध का जीवनकाल कम हो जाता है”।
डीपीआर में वर्ष 2006 तक के अध्ययन के आधार पर नदी में सेडीमेंटेशन दर के आधार पर लिखा गया था कि नदी में सेडिमेंटेशन की दर स्थिति में बहुत बदलाव नहीं आया है और यह 14.29 हेक्टेअर-मीटर/100 वर्ग किमी./प्रति वर्ष के आधार पर बढ़ रही है।
बरतरिया की तीसरी आशंका गौला नदी के सक्रिय भूकंपीय क्षेत्र को लेकर है। “अपने अध्ययन के दौरान हमने पाया था कि यह नदी एक्टिव सिस्मिक जोन में है और फॉल्ड लाइन और फ्रैक्चर में नदी के पानी का सीपेज होता है। 150.6 मीटर ऊंचे बांध को इस लिहाज से भी देखने की जरूरत है”।
हालांकि इन आशंकाओं के बावजूद डॉ बरतरिया जमरानी बांध को पेयजल और सिंचाई के लिहाज से महत्वपूर्ण परियोजना के तौर पर देखते हैं और उम्मीद जताते हैं कि इससे भूजल स्तर में सुधार आ सकता है।
इसके उलट बांधों को लेकर कार्य कर रहे पर्यावरण कार्यकर्ता और जलविशेषज्ञ हिमांशु ठक्कर कहते हैं कि वर्षों से लंबित योजना का मौजूदा परिस्थितियों में इसकी व्यावहारिकता और खतरों का आकलन नहीं किया गया है। पुराने जल विज्ञान के आधार पर परियोजना आगे बढ़ाई जा रही है जबकि पिछले कुछ सालों में नदी की हाइड्रोलॉजी बिलकुल बदल चुकी है। बांधों से जितना फायदे का दावा किया जाता है, वह कभी उतना मिलता नहीं है।
भारत में सिंचाई का सबसे बड़ा स्रोत भूजल है। हिमांशु कहते हैं, बड़े बांध सिंचाई का स्रोत नहीं हैं। सिंचाई के लिए इतनी बड़ी परियोजना, निर्माण और खतरा मोल लेने से बेहतर है कि हम लगातार नीचे गिरते भूजल स्तर को बेहतर बनाने के लिए कार्य करें जो हमारे जीवन का आधार हैं। भूजल स्तर सुधार के हम पेयजल समस्या भी दूर कर सकते हैं”।
हिमांशु कहते हैं कि बड़ी विकास परियोजनाएं दरअसल आर्थिक रफ्तार बढ़ाने के लिए पॉलिटिकल इकॉनमी के तहत लिए गए फैसले हैं। “बडे बांधों में बड़ा पैसा चलता है। सीमेंट, स्टील, कंसलटेंसी कंपनियां समेत अन्य कारोबार बढ़ता है। सरदार सरोवर, कालेश्वरम, पोलावरम समेत कई परियोजनाएं हैं, जिन्हें लागत और फायदे के लिहाज से ये सफल परियोजनाएं नहीं हैं”।
वह बताते हैं, “उत्तराखंड में बांधों के चलते वर्ष 2012, 2013, 2014 और 2021 में आपदाओं के समय नुकसान कई गुना बढ़ा है लेकिन हम कोई सबक लेने को तैयार नहीं हैं। जमरानी परियोजना का जलवायु परिवर्तन के लिहाज से कोई आकलन नहीं हुआ है। आपदा की संभावना शीलता के लिहाज से इसका आकलन करने की जरूरत है।”
जलवायु परिवर्तन के लिहाज से जोखिम का आकलन जरूरी
हिमालयी इतिहास के विशेषज्ञ माने जाने वाले इतिहासकार डॉ. शेखर पाठक अक्टूबर 2021 में नैनीताल के रामगढ़ में आई आपदा को याद करते हैं। जब तीन दिन की लगातार बारिश और भूस्खलन के चलते बड़ा नुकसान हुआ था। “जब मैं रामगढ़ गया तो विश्वास नहीं हो रहा था कि यहां इतना बड़ा नुकसान हो सकता है। हिमालय की तलहटी में गौला समेत अन्य गैर-हिमानी नदियों का व्यवहार तेजी से बदला है। गौला नदी बरसात में बहुत विस्तार लेती है। हमें नदी के मौजूदा प्रवाह और जल विज्ञान को समझने की जरूरत है”।