सुमित डूकिया और ममता रावत नई दिल्ली स्थित गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी में यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ एनवायरमेंट मैनेजमेंट से संबद्ध हैं
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जहरीली होतीं जीवनधाराएं: संकट में थार की जीवनदायिनी

मरुभूमि में कई नदियां जीवन देती हैं लेकिन पाली में कपड़ा और चर्म उद्योग बांडी नदी को लगातार प्रदूषित कर रहे हैं
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“लूणी” नाम से ही पता चलता है कि नमक का इस नदी से जरूर कुछ संबंध है। अजमेर शहर के नजदीक अरावली पर्वतमाला के नाग पहाड़ से निकलकर पश्चिमी दिशा में लगभग 495 किमी बहते हुए गुजरात में कच्छ के रण के उत्तरी भाग में ये नदी विलुप्त हो जाती है। तकरीबन 69,442 वर्ग किलोमीटर के कुल जलग्रहण (वर्षा जल संचयी) क्षेत्र वाली सबसे लंबी और सबसे बड़ी नदी राजस्थान राज्य के अजमेर, नागौर, पाली, बालोतरा (2024 में नवगठित जिला), बाड़मेर और जालोर और फिर गुजरात के कच्छ जिले में पहुंचकर आखिरकार कच्छ के रण की दलदली भूमि में समा जाती है। यह वर्षा आधारित नदी है। छह प्रमुख सहायक नदियां सुकड़ी, जवाई, बांडी और गुहिया इस नदी के रास्ते में दाहिने किनारे से मिलती हैं जबकि जोजरी और लिलरी इसके बाएं किनारे से मिलती हैं। ऐतिहासिक रूप से इसे थार रेगिस्तान की जीवन रेखा माना गया है।

मॉनसून के मौसम के शुरुआती दिनों में ताजे पानी के प्रवाह का कच्छ तक पहुंचना मॉनसून की वर्षा पर निर्भर करता है, जो पश्चिमी राजस्थान में बहुत अनियमित और अनिश्चित है। पश्चिमी राजस्थान का बड़ा हिस्सा थार रेगिस्तान की उत्पत्ति के बाद से बसा है और लूणी नदी यहां न सिर्फ पेयजल का स्रोत है बल्कि भूमिगत जलभंडारों को भी रिचार्ज करती है। लूणी की सहायक नदियों पर कई बांधों के माध्यम से बहते मीठे पानी को रोका जा रहा है। इन बांधों का निर्माण मुख्य रूप से जल प्रवाह को प्रबंधित करने और राजस्थान के सूखे क्षेत्रों में सिंचाई सहायता प्रदान करने के लिए किया गया है। इनमें सबसे अहम जवाई बांध भी शामिल है। लूणी की एक प्रमुख सहायक नदी जवाई पर स्थित यह बांध पश्चिमी राजस्थान के सबसे बड़े बांधों में से एक है। एक अन्य महत्वपूर्ण सहायक नदी बांडी पर हेमावास बांध स्थित है। 1905 में तैयार सरदार समंद बांध पाली जिले में स्थित है जो सिंचाई और जल प्रबंधन प्रयासों में मदद करता है। उधर, सुकड़ी नदी पर स्थित बांकली बांध जालोर जिले में सिंचाई में योगदान देता है।

ये सभी बांध सहायक नदियों के मौसमी प्रवाह को नियंत्रित करने और इस शुष्क क्षेत्र में कृषि को सहारा देने में अहम भूमिका निभाते हैं। हालांकि लूणी को अक्सर पानी के खारेपन की समस्या से दो-चार होना पड़ता है। खासतौर से बालोतरा और बाड़मेर जैसे निचले क्षेत्रों में लवणीय मिट्टी के चलते ऐसा होता है। चूना पत्थर और जिप्सम के भूमिगत जमाव के चलते पानी की मूल प्रकृति बदल जाती है। नदी शुष्क क्षेत्रों के भीतर लवणीय मिट्टी से होकर बहती है। यह अपने पूरे मार्ग में खनिजों को इकट्ठा करती है, वाष्पीकरण बढ़ाती है और लवणों को केंद्रित करती जाती है। इसके चलते बालोतरा से आगे पानी नमकीन और खारा हो जाता है। मीठा पानी केवल इसके ऊपरी भाग में मौजूद है। मुख्य रूप से जुलाई से सितंबर के दौरान लूणी में पानी आता है और साल के बाकी समय नदी के कई हिस्से सूखे रहते हैं। लूणी नदी के पानी का कभी भी सिंचाई के लिए सीधे तौर पर उपयोग नहीं किया गया, हालांकि इसकी सहायक नदियों का पानी सिंचाई और पीने के लिए छोटे से लेकर बड़े बांधों के जरिए इकट्ठा किया गया है।

राजस्थान के इस हिस्से में ज्ञात सबसे पुराना उद्योग कपड़ा क्षेत्र है। भारत की आजादी से पहले भी यहां कुछ कारखाने थे। साल 1940 में स्थापित महाराजा श्री उम्मेद मिल्स सबसे बड़ी है, जो अब भी चालू है। ये हजारों कामगारों को रोजगार प्रदान करने के साथ-साथ संबंधित छोटे कारखानों को सामग्रियों की आपूर्ति करती है। औद्योगिक कचरे को लेकर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया। अधिकांश कचरा तरल के रूप में था, जो पास के नालों में मिलकर आखिरकार भू-दृश्य की प्राकृतिक जल निकासी में चला जाता था। पाली शहर और इसके आस-पास के इलाके कई उद्योगों (मुख्य रूप से कपड़ा और चमड़ा/चर्म उद्योग) का केंद्र बन गए और सारा कचरा बांडी नदी (जिसे हेमावास नदी भी कहा जाता है) में बहाया जाने लगा, जो पाली शहर के बीच से होकर बहती है।

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल द्वारा गठित चार सदस्यीय विशेषज्ञ समिति की 23 अप्रैल, 2018 को प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार पाली में प्रवेश करने से पहले बांडी नदी के पानी की गुणवत्ता “किसी भी दृश्य स्रोत से प्रदूषण के किसी भी निशान के बिना बहुत अच्छी है। पाली में नदी के प्रवेश करने और मंडिया रोड औद्योगिक क्षेत्र को पार करने के बाद ही इसे उद्योगों से प्रदूषक मिलना शुरू होता है।” समिति ने रिपोर्ट में कहा है कि नदी के किनारे स्थित कपड़ा उद्योग सतह और भूजल के प्रदूषण का प्रमुख और सबसे अहम स्रोत हैं। स्थानीय लोगों द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार पिछले चार दशकों से बांडी नदी के जरिए जल प्रदूषण फैल रहा है। 600 से अधिक कपड़ा इकाइयों के कारण किसान संकट में आ गए हैं। उनके पास संकट यह है कि वे भूमिगत जल का इस्तेमाल सिंचाई के लिए नहीं कर सकते क्योंकि उसमें रासायनिक कचरा मिल चुका है। जल प्रदूषण के कारण उनकी भूमि बंजर हो गई है। गंदे पानी का उपचार न होने के कारण भूजल नीले-हरे रंग का हो गया है। पानी में प्रदूषण मापने के लिए टोटल डिसॉल्व्ड सॉलिड (टीडीएस) सामान्य मापदंडों में से एक है। बांडी नदी के पानी का टीडीएस 7,500 - 8,500 मिलीग्राम प्रति लीटर तक है, जिसके कारण यह इस्तेमाल लायक नहीं है। भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) के अनुसार, पीने के पानी में टीडीएस की स्वीकार्य सीमा 500 मिलीग्राम/लीटर है। पाली से गैर-शोधित और अनियंत्रित कचरा लगभग 55 किमी निचली सतह की ओर बहता है, जिससे नदी किनारे के कई गांवों में भूजल पीने या सिंचाई के लायक नहीं रह गया है।

जोजरी नदी की भी ऐसी ही कहानी है, जो पड़ोस के शहर जोधपुर से होकर गुजरती है। जोधपुर पश्चिमी राजस्थान का सबसे बड़ा शहर है और यहां कपड़ा, स्टील रोलिंग के साथ-साथ कई अन्य धातु आधारित उद्योगों वाले सबसे बड़े औद्योगिक समूह भी हैं। जोधपुर औद्योगिक क्षेत्र में संचालित कपड़ा और स्टील रीरोलिंग इकाइयां पिछले कई वर्षों से जोजरी नदी में अशोधित प्रदूषित पानी छोड़ रही हैं। प्रदूषित पानी की सफाई के लिए 20 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रतिदिन) क्षमता वाला एक सामान्य औद्योगिक प्रवाह शोधन संयंत्र (सीईटीपी) मौजूद है, लेकिन संयंत्र अपनी पूरी क्षमता के साथ काम नहीं कर रहा है। औद्योगिक कचरों के अलावा घरेलू सीवेज नदी में प्रवाहित होता है, जिससे आसपास के क्षेत्रों में भूजल प्रदूषण बढ़ गया है। शहर में पैदा सीवेज के शोधन के लिए जोधपुर में 70 एमएलडी की कुल क्षमता के दो सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित किए गए हैं। एनजीटी द्वारा गठित समितियां समय-समय पर सीवेज और औद्योगिक कचरा निपटान की समस्या बरकरार रहने की जानकारी देती रहती हैं। इस उत्सर्जित ठोस को वर्ष 2000 से जोजरी नदी के निचले प्रवाह वाले 50 किमी के इलाके में ढोली-धावा-मेलबा गांवों के आसपास जमा किया जा रहा है। मॉनसून के दौरान साल दर साल बड़े क्षेत्र के रसायन से लदे अशोधित औद्योगिक अपशिष्ट जल के पानी में मिलने से नदी का मार्ग बदलता जा रहा है। जोजरी नदी के प्रदूषण पर नजर रखने के लिए एनजीटी द्वारा कोर्ट कमिश्नर के रूप में नियुक्त प्रो. अजीत प्रताप सिंह ने रिपोर्ट में बताया है, “जोजरी में प्रदूषण मुख्य रूप से ऊपरी इलाकों में औद्योगिक गतिविधियों और घरेलू सीवेज द्वारा उत्पन्न अशोधित और आंशिक रूप से शोधित अपशिष्ट जल के कारण होता है। नदी में सीधे जाने वाले अशोधित और आंशिक रूप से शोधित अपशिष्ट जल के लिए जिम्मेदार कारकों में सीईटीपी की अक्षमता, अधिकृत और अनधिकृत उद्योगों से अपशिष्ट जल का प्रत्यक्ष निपटान और नगरपालिका क्षेत्र का अशोधित सीवेज शामिल हैं।”

साल-दर-साल स्थिति गंभीर होती गई है। दीर्घकाल तक लगातार पानी इकट्ठा होने से सतह के अनेक जल स्रोतों के साथ-साथ भूमिगत जलस्रोत भी प्रदूषित हो गए हैं। फिलहाल जोजड़ी नदी में नाइट्रेट की मात्रा काफी ज्यादा है, जो तमाम खुले कुओं के पानी में निर्दिष्ट सीमा से अधिक है। नाइट्रेट की उच्च मात्रा का कारण गैर-शोधित सीवरेज पानी का छोड़ा जाना था। जोजड़ी नदी के भूजल के नमूने भी गैर-शोधित सीवरेज और औद्योगिक प्रदूषण के कारण प्रदूषित पाए गए। लौह तत्व भी उच्च अनुपात में पाया गया। हालांकि आयरन 0.3 मिलीग्राम/लीटर से अधिक नहीं होना चाहिए लेकिन धावा-डोली क्षेत्र के आसपास भूजल में यह 7 मिलीग्राम/लीटर से अधिक था। भूजल में कुल घुलनशील ठोस पदार्थों (टीडीएस) की स्वीकार्य सीमा 500 मिलीग्राम/लीटर है, लेकिन केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और राजस्थान प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार खुले कुएं में यह 10,761 मिलीग्राम/लीटर पाया गया। पाली में 46.68 एमएलडी की संचयी क्षमता वाले चार कॉमन एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट (सीईटीपी) हैं जबकि बाड़मेर में 72.5 एमएलडी की कुल क्षमता वाले 6 सीईटीपी और जोधपुर में 20 एमएलडी की क्षमता के साथ एक सीईटीपी है।

हालांकि पानी के शोधन के लिए कुछ अपशिष्ट शोधन संयंत्र स्थापित किए गए हैं, लेकिन साल के ज्यादातर महीनों में सूखी रहने वाली इन मौसमी नदियों के बहते पानी में प्रदूषण का स्तर स्पष्ट रूप से इशारा करता है कि अपशिष्ट शोधन संयंत्र रोजाना पैदा होने वाले गंदे पानी की इस मात्रा को संभालने में सक्षम नहीं हैं। ये दोनों नदियां बरसात के मौसम में अपशिष्ट जल को आगे ले जाकर लूणी नदी में मिला देती हैं। ये ट्रीटमेंट प्लांट भी उद्योगों द्वारा पैदा किए गए कचरे को संभालने में सक्षम नहीं हैं और इस तरह लूणी नदी को किसी भी सतही प्रदूषण स्रोत से मुक्त नहीं रख पाते हैं। दिलचस्प बात ये है कि समय-समय पर, स्थानीय लोग जल प्रदूषण का मुद्दा उठाते रहे हैं। इनमें से कुछ मामलों की सुनवाई माननीय राजस्थान उच्च न्यायालय और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल द्वारा भी की जाती रही और 1980 के दशक से इस मुद्दे को सुलझाने के लिए कई आदेश पारित किए गए। हालांकि, लूणी नदी अपनी अधिकतम लंबाई में दशकों तक लगभग सूखी रहती है, लेकिन इसके पास थार मरुभूमि की इस जीवन रेखा का उत्सव मनाने के लिए अच्छी यादें और सांस्कृतिक विमर्श मौजूद है। मानवीय लालच से पैदा घोर लापरवाही और व्यवस्थागत विफलता की उदासीनता नदी को खत्म करने पर उतारू है। थार रेगिस्तान की एकमात्र नदी उद्गम से लेकर कच्छ के रण की दलदली भूमि में विलीन होने तक अपने पूरे सफर में आश्रित मानव जाति को अपनी मौजूदगी दिखाने के लिए जीवंत अवस्था में लौटती रहती है।

(लेखक नई दिल्ली स्थित गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी में यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ एनवायरमेंट मैनेजमेंट से संबद्ध हैं)

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