केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना, अभी भी सवालों में बनी रहेगी

मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के बीच केन बेतवा नदी परियोजना को लेकर समझौता हो चुका है, लेकिन कई बड़े सवाल बाकी हैं
बेतवा नदी का फाइल फोटो : अमित शंकर
बेतवा नदी का फाइल फोटो : अमित शंकर
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22 मार्च 2021 को विश्व जल दिवस के अवसर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मौजूदगी में केन-बेतवा लिंक परियोजना को लागू करने के लिए पानी के बंटवारे को लेकर मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश के बीच चले आ रहे विवाद का समाधान हुआ और एक आपसी सहमति पर संधि हुई है। ऐतिहासिक बताए जा रहे इस समझौते में केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत की मध्यस्थता में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान व उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने संधिपत्र पर हस्ताक्षर किए। 

पानी के बंटवारे पर दो प्रदेशों के बीच हुए इस संधि पत्र में हालांकि उन पर्यावरणीय सवालों पर कोई बात नहीं है जो समय-समय पर उठते रहे हैं और जिसे लेकर सर्वोच्च न्यायालय की सेंट्रल एम्पावर्ड कमिटी ने अपने अंतिम निष्कर्ष और सिफ़ारिशाें के रूप में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पेश 2019 को पेश की थी।  

30 अगस्त 2019 को केन वेतबा नदी जोड़ो परियोजना (केन वेतबा रिवर लिंकिंग प्रोजेक्ट) को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की सेंट्रल एम्पावर्ड कमिटी ने जो अपने अंतिम निष्कर्ष और सिफारिशें पेश की थीं, उनकी गंभीरता को देखते हुए यह समझना मुश्किल है कि इस परियोजना को आगे बढ़ाने की दिशा में इस समझौते के क्या मायने हैं?

उस समय यह माना गया था कि अगर सुप्रीम कोर्ट इन निष्कर्षों पर गंभीरता से विचार करता है तो तो यह तय है कि अटल बिहारी वाजपेयी के समय तैयार हुई इस महत्वाकांक्षी परियोजना पर पूर्ण विराम लग जाना चाहिए। इसका व्यापक असर अन्य नदी –जोड़ो परियोजनाओं पर भी पड़ना तय माना जा रहा था। हालांकि 22 मार्च को हुई इस संधि व समझौते की खबर के पीछे सेंट्रल इम्पावर्ड कमिटी की सिफ़ारिशों को छिपा लिया गया है। यह खबर भी अभी नहीं है कि इन सिफ़ारिशों पर देश के सर्वोच्च न्यायालय ने क्या कदम उठाए। 

सीईसी (सेंट्रल इम्पावर्ड कमिटी) के अवलोकनों और इसके द्वारा उठाए गए सवालों पर गौर करें तो देश में परियोजनाओं को लेकर बरती जाने वाली असावधानियां व अविवेकपूर्ण ढंग से इन परियोजनाओं को दी जाने वाली ‘हरी झंडियों’ पर गंभीर प्रश्न खड़े होते हैं। उम्मीद जताई जा रही थी कि सुप्रीम कोर्ट सीईसी के अध्ययन व पड़ताल के आधार पर दिये गए निष्कर्षों को संज्ञान में लेते हुए न केवल इस परियोजना को रद्द करेगा बल्कि परियोजना को तमाम तरह के क्लीयरेंस देने वाली जिम्मेदार संस्थाओं को भी दोषी मानेगा।

सीईसी (सेंट्रल इम्पावर्ड कमिटी) ने अपने अध्ययन के आधार पर परियोजना के लगभग हर पहलू पर अपने अवलोकन दिये थे। यह फेहरिस्त लंबी है। इसमें केन नदी में पानी की उपलब्धता के भ्रामक व अस्पष्ट आंकलन से लेकर दो राज्यों के बीच पानी के बंटबारे में मौजूद अस्पष्ट व दोषपूर्ण समझौते व बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए गए लाभ (सिंचाई) के दावे शामिल हैं। इसके अलावा परियोजना के उद्देश्यों को लेकर किसी वैकल्पिक तरीके पर विचार न किए जाने की कवायद, लागत –लाभ का भ्रामक और अपूर्ण मूल्यांकन, पन्ना टाइगर रिज़र्व जैसे संवेदनशील वन्य क्षेत्र को लेकर बेहद गैर-जिम्मेदार रवैया, केन घड़ियाड़ अभ्यारण्य पर होने वाले प्रभावों की उपेक्षा, गिद्दों व अन्य प्रकार के सरसृप जीवों के पर्यावास की आपराधिक अनदेखी और समृद्ध जैव-विविधता पर होने वाले दुष्प्रभावों को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ किये जाने पर तो गंभीर आपत्तियाँ जताई थीं।

लेकिन सबसे महत्वपूर्ण पहलू पर गहन अध्ययन करते हुए सीईसी ने राष्ट्रीय वन्य जीव बोर्ड ( केन्द्रीय बोर्ड ऑफ वाइल्ड लाइफ) की पूरी कार्य-शैली को कटघरे में खड़ा किया है। यही वो जिम्मेदार संस्था है जिसने वन्य जीवों के पर्यावास पर इस परियोजना के कारण किसी भी तरह की हानि न होने की पुष्टि करते हुए 23 अगस्त 2016 को अनापत्ति दी।  

सुप्रीम कोर्ट में यह मामला भी इसी अनापत्ति को लेकर पहुंचा। जिस पर सामाजिक व पर्यावरण कार्यकर्ता मनोज मिश्रा ने सवाल उठाए थे। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इसकी पड़ताल के लिए ही सीईसी की नियुक्ति की थी। हालांकि ये सारी आपत्तियाँ जो सीईसी ने उठाईं हैं, केन नदी के साफ पानी के नीचे सहज ही दिखलाई दे जाने वाली रेत या पत्थरों की तरह देश के पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और स्थानीय निवासियों को शुरू से ही दिखलाई पड़ रहीं थीं।

सीईसी ने तो केवल परियोजनाओं को स्वीकृति देने में बरती गयी गंभीर और आपराधिक लपरवाहियों को भी अपनी रिपोर्ट में दर्ज़ किया है पर हमारी स्मृतियों में तत्कालीन जल संसाधन मंत्रालय की मंत्री उमा भारती की वह अहमक़ हठधर्मिता मौजूद है जब उन्होंने इस परियोजना को पर्यावरण स्वीकृति की प्रक्रिया पर 31अगस्त 2017 को यह कहते हुए दबाव बनाया था कि अगर पर्यावरण स्वीकृति देने में ढील बरती गयी तो वह आमरण अनशन करेंगीं।

सीईसी ने प्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण स्वीकृति की प्रक्रिया पर तो नहीं लेकिन इस जलवायु क्षेत्र विशिष्टता पर अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि ‘इस भौगोलिक क्षेत्र में मौजूद जैव विविधतता,नैसर्गिक गुफाएँ, पेड़ों की विशेष प्रजातियाँ, सैकड़ों प्रकार की घास, झरने,केन नदी के किनारे की जैव विविधतता से समृद्ध वनस्पती व तमाम जल जीवों आदि के पर्यावास के रूप में जाना जाता है। अगर यह परियोजना स्थापित होगी तो हम इस नैसर्गिक संपदा को हमेशा के लिए खो देंगे’।

इसके अलावा एक और टिप्पणी यहाँ बहुत महत्वपूर्ण है जो सीईसी ने राष्ट्रीय वन्य जीव बोर्ड द्वारा इस परियोजना को मंजूरी दिये जाने के निर्णय पर सवाल करते हुए की है कि – राष्ट्रीय वन्य जीव बोर्ड ने स्वयं सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक अन्य फैसले में दिये निर्देश को नज़रअंदाज़ किया जिसमें कोर्ट ने कहा है कि –“किसी भी परियोजना को स्वीकृति देते समय इस बात को अनिवार्य रूप से तवज्जो देना चाहिए कि हमारी कोशिश (एप्रोच) इको-सेंट्रिक हो न कि एंथ्रोपोसेंट्रिक यानी पारिस्थितिकी केन्द्रित हो न कि केवल मानव-केन्द्रित। इसके साथ ही यह भी ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है कि उस पर तमाम प्रजातियों के मानक नैसर्गिक  हित सुरक्षित हो रहे हैं कि नहीं।क्योंकि सभी प्रजातियों को धरती पर रहने के समान अधिकार हैं”। 

यह एक मामूली सी समझ की बात रही है कि यह परियोजना केवल बड़े ठेकेदारों, कंट्रेक्टरों, इंजीनियरों, नौकरशाहों और अंतत: राजनेताओं के बीच ‘धन बनाने’ के लिए लायी गयी है। इतनी समझ तो इन क्षेत्रों के स्थानीय निवासी भी रखते हैं कि केन और बेतवा दोनों नदियां एक ही जलवायु क्षेत्र में आस-पास मौजूद हैं। इस लिहाज से जिस साल उस जलवायु क्षेत्र में जैसा मानसून होगा और जैसी बारिश होगा उसका समान असर दोनों नदियों पर होगा। यानी जब केन में बढ़ आएगी तो बेतवा में भी बाढ़ ही आएगी और केन सूखी होगी तो बेतवा भी सूखी होगी। इसलिए यह बात शुरू से ही अवैज्ञानिक व तथ्यहीन थी कि केन में प्रचुर मात्रा में पानी होगा लेकिन बेतवा सूखी होगी। इसलिए इस परियोजना के माध्यम से ‘नदी-जोड़ो’ के पीछे जो भी तस्ब्बुर थे वो धराशायी हो जाते थे। क्या वाकई इतनी सी बात देश के नीति नियंताओं को समझ में नहीं आ रही थी?

पीपुल साइंस इंस्टीट्यूट से जुड़े पर्यवारणविद रवि चाेपड़ा इस तरह की परियोजनाओं को एक ‘लतीफे’ की तरह देखते हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा है कि – ये ख्याल ही बेतुका है कि हिंदुस्तान में नदियों को आपस में जोड़ने से बाढ़ या सूखे जैसी स्थितियों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। असल में नदियों को लेकर हमारी समझ साफ नहीं है। नदी-जोड़ो के ख्याल की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बात करते हुए वो बताते हैं कि इसका ख्याल सबसे पहले एक एयर पायलेट को 1960 के आस-पास आया था जिसका नाम कैप्टन डसतुर था, जिसे बाद में जाने माने सिविल इंजीनियर के. एल. राव ने ‘गारलेंड कनाल’ के रूप में पेश किया। उनका मानना था कि देश में नदियों की एक मालानुमा संरचना होना चाहिए ताकि पानी को सहेजा जा सके और जरूरत के हिसाब हर क्षेत्र को पानी मुहैया हो सके। इस अवधारणा पर रवि चोपड़ा का स्पष्ट मानना है कि देश में गंगा नाम की जो नदी है वो इसी गारलेंड की भूमिका निभा रही है। इसे ही तो साफ रखने की ज़रूरत है जो सरकारों से हो नहीं रहा है। 

केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में एनडीए की पूर्णकालिक सरकार ने इस ख्याल को ठोस रूप देते हुए सबसे पहले केन-बेतवा को जोड़ने की परियोजना पर काम शुरू किया था। 2005 में इस परियोजना पर मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश की सरकारों के बीच समझौता हुआ था। इन सिफ़ारिशों से एक उम्मीद स्थानीय निवासियों को जागी है कि उनका यह पर्यावरण सुरक्षित रहेगा और ऐसी विनाशकारी परियोजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा। यह बहुत अजीब था कि इतनी महत्वाकांक्षी परियोजना से उन्हें कोई लाभ नहीं था जिन्हें अपने प्राकृतिक संसाधनों से हमेशा के लिए महरूम कर दिया जाना था।

हालांकि इस रिपोर्ट में इस समृद्ध क्षेत्र में रह रहे आदिवासियों व जंगल निवासियों के लिए कुछ नहीं कहा गया और ये शायद सीईसी के दायरे में नहीं था लेकिन अभी भी ये मूल सवाल ज्यों के त्यों बने हुए हैं कि पन्ना टाइगर रिजर्व से विस्थापितों को सही पुनर्वास नहीं मिला है।

इस बात से भी स्थानीय लोगों में खुशी है कि केन-बेतवा से पन्ना टाइगर रिजर्व का एक तिहाई हिस्सा डूब जाने वाला था शायद वो बच जाएगा जिसका सीधा प्रभाव उनकी बस्तियों पर पड़ेगा और उन्हें विस्थापित नहीं होना पड़ेगा। ज्ञात हो कि इस डूब क्षेत्र की भरपाई के लिए पन्ना टाइगर रिज़र्व के दायरे को बढ़ाने की योजना थी और उसका बफर ज़ोन व्यापक किया जाना था। इसके लिए लगभग 2 गाँव, नगरों को विस्थापित किया जाना था।

एक सवाल जो सीईसी ने नहीं उठाया था वो है इस पूरे इलाके में वन अधिकार कानून का लंबित क्रियान्वयन। सौंर, कोल, मवासी, भीलजैसे आदिवासी समुदाय आज भी इस कानून के क्रियान्वयन की राह देख रहे हैं ताकि उन्हें गरिमापूर्ण जीवन जीने की सांवैधानिक गारंटी मिले। इस पहलू पर और विस्तार से समझने की गंभीर ज़रूरत है।

इस रिपोर्ट का ज़िक्र स्वयं प्रधानमंत्री ने इसे सर्वोच्च न्यायालय में पेश किए जाने के ठीक एक साल बाद यानि यानी 30 अगस्त 2020 को रानी लक्ष्मी बाई  केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झांसी (उत्तर प्रदेश) के नए अकादमिक भवन के लोकार्पण के दौरान वीडियो कान्फ्रेंसिंग के माध्यम से किया था। उन्होंने माना था कि इस महत्वाकांक्षी परियोजना को तकनीकी व आर्थिक स्वीकृतियाँ (टेक्नो -इकनॉमिक क्लीयरेंसेस) मिल चुकी हैं लेकिन वन स्वीकृति व सीईसी (सेंट्रल इम्पावर्ड कमिटी) की तरफ से स्वीकृति मिलना बाकी है। जो सुप्रीम कोर्ट के अधीन है। 

काल क्रम के आधार पर देखें तो 30 अगस्त 2019 को सीईसी (सेंट्रल इम्पावर्ड कमिटी) ने अपनी रिपोर्ट (समग्रता में नकारात्मक) सुप्रीम कोर्ट को सौंपी। 24 सितंबर 2020 को केंद्र सरकार ने केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावतके नेतृत्व में एक उच्च समिति गठित की जो दो प्रदेशों के बीच इस परियोजना से पानी के बँटवारे को लेकर एक सहमति बनाए और कल यानी 22 मार्च 2021 को यह सहमति न केवल बन गयी बल्कि एक ही दल की सरकारें होने के नाते यह अमल में भी आ गयी। 

इस बीच यह सवाल कहीं छूट गया कि सीईसी (सेंट्रल इम्पावर्ड कमिटी) की चिंताओं का क्या हुआ? जिन संस्थाओं को इस रिपोर्ट में गलत व भ्रामक तथ्य पेश करने के लिए जिम्मेदार माना गया उन पर क्या कार्यवाही हुई और पर्यावरण, पारिस्थितिकी, वन अधिकार और टाइगर रिज़र्व की डूब जैसे अति संवेदनशील मामलों का क्या हुआ?

यह समझौता ज़रूर, प्रचार की वजह से तमाम चिंताओं को आवरण में छिपा लेगा लेकिन सवाल बने रहेंगे और पर्यावरण से सरोकार रखने वाले लोग इन्हें बार- बार उठाते रहेंगे। 

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(लेखक भारत सरकार के आदिवासी मंत्रालय के मामलों द्वारा गठित हैबिटेट राइट्स व सामुदायिक अधिकारों से संबन्धित समितियों में नामित विषय विशेषज्ञ के तौर पर सदस्य हैं। इस लेख में व्यक्त किए गए उनके अपने विचार हैं और डाउन टू अर्थ का सहमत होना अनिवार्य नहीं है)

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