उत्तराखंड में चिपको आंदोलन के जनक 87 वर्षीय चंडीप्रसाद भट्ट उन गिने चुने लोगों में से हैं, जो हिमालय पर मंडरा रहे खतरों से लगातार आगाह करते रहे हैं। उन्होंने गोरा देवी के साथ रैणी गांव में 1974 में जंगलों को बचाने के लिए चिपको आंदोलन चलाया था और आज उसी रैणी गांव के पास यह हादसा हुआ। चिपको आंदोलन से जुड़ी यादों के साथ-साथ चमोली आपदा के कारणों के बारे में जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने उनसे बातचीत की। प्रस्तुत हैं, बातचीत के प्रमुख अंश –
प्रश्न: चमोली आपदा को आप कैसे देखते हैं?
अभी तक बहुत साफ नहीं है कि ग्लेशियर टूटने से आपदा आई या झील बनने से। लेकिन इतना जरूर है कि कारण जो भी रहा हो, लेकिन नदी पर बांध नहीं बने होते तो नुकसान नहीं होता। बाढ़ का पानी बह जाता।
प्रश्न: जहां यह हादसा हुआ, आपने वहां बहुत काम किया है, वहां की परिस्थितियां कैसी हैं?
कंचनजंघा के बाद सबसे ऊंची चोटी है नंदा देवी। यहां 4,000 से लेकर 5,000 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले पहाड़ों की संख्या एक दर्जन से अधिक है और एक दर्जन से अधिक बड़े-बड़े ग्लेशियर हैं। यह इलाका नेशनल पार्क घोषित है। नेशनल पार्क जाने के दो रास्ते हैं। एक रास्ता ठीक उसी जगह है, जहां यह घटना हुई है। दूसरा रास्ता लाता से है। यह इलाका बहुत ही संवेदनशील है। इसीलिए इसे नेशनल पार्क घोषित किया गया था।
1970 में अलकनंदा में प्रलयंकारी बाढ़ आई थी। इसके बाद हम पूरे इलाके में घूमे। तब यह महसूस हुआ कि जहां-जहां पेड़ काटे गए, वहां भूस्खलन हुआ और अलकनंदा बौखलाई। उस समय हम राहत पहुंचाने का काम तो करते ही थे, लेकिन साथ-साथ हम यह समझने की कोशिश कर रहे थे कि आखिर बाढ़ क्यों आई?
उससे पहले तक यह बात किसी के दिमाग में नहीं आई कि पेड़ कटने से बाढ़ तक आ सकती है। तब हमने पहली बार एक नोट बनाया, जिसमें कहा कि पेड़ कटने से बाढ़ तक आ सकती है। उस समय केंद्र में सिंचाई राज्य मंत्री केएल राव को यह नोट सौंपा गया। अगस्त 1970 को यह नोट दिया गया, जिसमें सिलसिलेवार यह जानकारी दी गई थी कि किस क्षेत्र में कितने पेड़ काटे गए और उनका असर क्या हुआ।
चिपको आंदोलन की शुरुआत कैसे हुई?
1974 में हमारे एक साथी थे, हयात सिंह रावत। उनकी ससुराल रीणी गांव में थी। उन्होंने हमे बताया कि वहां पेड़ कटने वाले हैं, क्योंकि हम लोग इससे पहले ही पेड़ों को बचाने की मुहिम चला रहे थे और चिपको आंदोलन की शुरुआत कर चुके थे। इसे देखते हुए हयात सिंह रावत ने हमें रीणी गांव के बारे में बताया। इस गांव में जनजातीय लोग रहते हैं। हम लोगों ने वहां की यात्रा की तो पता चला कि वह इलाका बहुत संवदेनशील है, क्योंकि वहां सीधे खड़े पहाड़ हैं और जहां पेड़ कटने वाले थे, वो बहुत कमजोर इलाका था। साथ ही, वह इलाका स्थानीय लोगों के लिए बहुत महत्व रखता था। लोगों को वहां से जंगली सब्जी, जंगली फल, अखरोट आदि कई चीजें मिलती थी।
इससे पहले 1968 में वहां एक भूस्खलन हुआ था और एक झील बनी थी। यह भूस्खलन ठीक उसी जगह हुआ था, जहां अभी 7 फरवरी को पुल बह गया है। बाद में वहां कई पर्यावरणविद पहुंचे थे। हमने वहां चार-पांच दिन की यात्रा की। हमने पूरी परिस्थितियां देखी और उसके बाद यह कहा कि यहां पेड़ काटे गए तो इस तरह की घटनाएं दोबारा होंगी। उस समय तक ग्रामीण महिलाएं हमारे साथ नहीं जुड़ी थी, लेकिन जब 1974 में जंगलात के लोग पेड़ काटने पहुंच गए। वन विभाग ने ऐसी परिस्थितियां बना दी थी कि मैं वहां से काफी दूर था। महिलाओं को यह पता था कि अगर पेड़ कटेंगे तो भूस्खलन होगा और हमारे बदर (खेती आदि) बह जाएंगे। महिलाओं को लगा कि अगर अब पेड़ कट गए तो उन्हें दोबारा नहीं लगाया जा सकता, इसलिए उन्हें ही कुछ करना होगा। गांव की महिला मंगल दल में 26-27 महिलाएं थी, जिसका नेतृत्व गौरा देवी कर रही थी ने पेड़ों से चिपकना शुरू कर दिया। मजबूरन, वन विभाग को पेड़ काटने का इरादा छोड़ना पड़ा। इसके बाद हम लगातार वहां आते-जाते रहे और लोगों को जागरूक करते रहे। इसका असर पूरे उत्तराखंड में हुआ और लोगों ने वन विभाग को आगाह करना शुरू किया कि अगर पेड़ काटेंगे तो वे चिपक जाएंगे।
इसके बाद सरकार ने हमारी बात मान ली और पूरी अलकनंदा घाटी में पेड़ काटने को प्रतिबंधित कर दिया। एक कमेटी बनाई गई, जिसमें मैं भी शामिल था। जब हमने कहा कि दिल्ली में बैठकर कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता, जिसके बाद एक सब कमेटी बनाई गई, जिसने व्यापक सर्वेक्षण शुरू किया। और 1977-78 में इस इसे पूरे इलाके को प्रतिबंधित कर दिया गया। 1974 से ही आंदोलन की वजह से सरकार पेड़ नहीं काट पा रही थी। लेकिन कमेटी की सिफारिशों के बाद पेड़ों के काटने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
1980 के बाद पूरे उत्तराखंड में पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी गई थी। कमेटी ने सिफारिश की थी कि केवल रैणी ही नहीं, बल्कि पूरा अलकनंदा का इलाका जहां ग्लेशियर से नदियां निकलती हैं से पेड़ों के काटने पर प्रतिबंध लगाया जाए।
ऋषिगंगा परियोजना कैसे शुरू हुई ?
कुछ साल बाद वन विभाग ने चुपके से 13 मेगावाट क्षमता वाली ऋषिगंगा प्रोजेक्ट को मंजूरी दे दी। यह प्रोजेक्ट ठीक नेशनल पार्क के मुहाने पर बनाया गया। जब प्रोजेक्ट को मंजूरी दिए जाने की जानकारी मुझे पता चली तो पहले मैंने सरकारी अधिकारियों से बात की और उसके बाद उच्चतम न्यायालय की हाई पावर कमेटी को इसकी शिकायत की। उस समय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश थे, उनको भी पत्र लिखा। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को पत्र लिखा कि यह इलाका बहुत संवदेनशील है, यहां इस तरह का प्रोजेक्ट नहीं बनाना चाहिए। रैणी ही नहीं, बल्कि कुछ और प्रोजेक्ट्स की जानकारी भी सरकार को दी, जो पहाड़ की दृष्टि से उचित नहीं थे। जय राम रमेश ने आश्वासन दिया कि प्रोजेक्ट नहीं बनेंगे। कुछ प्रोजेक्ट बंद भी हो गए।
मुख्य सवाल यह है कि स्थानीय लोगों को पानी का पाइप बिछानी हो या रास्ता बनाना हो तो वन विभाग वाले रोक देते हैं। लेकिन नेशनल पार्क के मुहाने पर प्रोजेक्ट बनाने की स्वीकृति कैसे मिल गई। हम लोग पहले से ही यह मुद्दा उठा रहे थे कि यहां किसी तरह का निर्माण भी आपदा का कारण बन सकता है और वही हुआ। इस घटना से बड़ा सवाल उठ रहा हैं। किस की मिलीभगत से इस प्रोजेक्ट को मंजूरी मिल गई। यहां 4,000 से 5,000 मीटर ऊंचे पहाड़ हैं।
यह घटना जहां हुई, वहां तो स्थायी बसावट है, लेकिन उससे ऊपर का इलाके में लोग 6 माह रहते हैं और 6 माह के लिए नीचे आ जाते हैं।
क्या आप मानते हैं कि उस क्षेत्र में जनांदोलन कमजोर हो रहे हैं?
1991 में गौरा देवी की मृत्यु हुई। उसके बाद मेरा भी उस इलाके में जाना बंद हो गए। वहां नए-नए संगठन बन गए। लेकिन ये संगठन मजबूत आंदोलन खड़ा नहीं कर पाए। यह ध्यान नहीं दिया गया कि वहां प्रोजेक्ट बनने से क्या प्रभाव पड़ेगा? पहले के मुकाबले अब परिस्थितियां बदल गई हैं। स्थानीय ठेकेदार इस तरह का प्रचार करते हैं कि ये विकास के काम हैं। लोगों की चेतना में भी परिवर्तन आया है। सरकार भी जनांदोलनों की बात को अनसुना कर रही है। प्रोजेक्ट लगाते वक्त सरकार कहती है कि हमने अध्ययन करा लिए हैं, लेकिन उन्हें इलाके की समझ ही नहीं है तो वे किस तरह का अध्ययन करते हैं। अगर किसी प्रोजेक्ट को स्वीकृति दी जाती है तो उसमें पर्याप्त सावधानियां बरतनी चाहिए। काम की निगरानी भी होनी चाहिए।
लोगों को लगता है कि प्रोजेक्ट बनने से उनको रोजगार मिलेगा। जब रैणी में चिपको आंदोलन चल रहा था तो उस समय भी वहां पेड़ काटने के लिए 300 से अधिक मजदूर आ गए थे और वहां की दुकानों में बिक्री बढ़ गई थी, बावजूद इसके लोगों को पता था कि जंगल कटेगा तो बाढ़ आ जाएगी और उनको नुकसान होगा, इसलिए उन स्थानीय लोगों ने विरोध किया, लेकिन अब लोगों की सोच में बदलाव आ रहा है। साथ ही, लोग सरकार पर भी भरोसा करते हैं कि सरकार जो कर रही है, वह उनके भले के लिए कर रही है। ठेकेदार जन प्रतिनिधियों से मिल कर लोगों को गुमराह कर रहे हैं।
हिमालयी क्षेत्र में आपदाएं बढ़ रही हैं, इन्हें रोकने के लिए क्या करना चाहिए?
दरअसल, पूरे हिमालयी क्षेत्र में व्यापक अध्ययन का अभाव है। यह अध्ययन लगातार होना चाहिए कि ग्लेशियरों की स्थिति क्या है, क्या ये ग्लेश्यिर फट सकते हैं। क्या वहां झीलें बन गई हैं? मैं इस बारे में सालों से अपनी बात सरकार तक पहुंचा रहा हूं, लेकिन कोई बदलाव नहीं हुआ। मनमोहन सरकार में भी यह मुद्दा उठाया था और इस सरकार में भी यह बात कह रहा हूं। न केवल रैणी, ऋषिगंगा की बात है, बल्कि हिमालयी राज्यों में ऊपर के इलाकों का विज्ञान सम्मत हर वर्ष नहीं तो दो तीन साल में अध्ययन और शोध होने चाहिए। वर्ना तो बड़े-बड़े संस्थान हमारे लिए हाथी साबित हो रहे हैं। इस बारे में जो भी ज्ञान है, उसके बारे में स्थानीय लोगों और स्थानीय प्रशासन को बताना चाहिए। यदि वहां ग्लेशियर पिघल रहे हैं या कोई बदलाव आ रहा है तो उसकी जानकारी स्थानीय लोगों को होनी चाहिए। शोध रिपोर्ट तैयार करके अलमारी में बंद करने से क्या फायदा।
वर्ना तो चमोली आपदा एक शुरुआत भर है। चार धाम परियोजना चल रही है, जो काफी नुकसान पहुंचा सकती है। नदियों में मलवा डाला जा रहा है, जिससे नदियों का स्तर ऊंचा हो रहा है। ग्लेशियर पीछे सरक रहे हैं। जलवायु परिवर्तन का असर लगातार बढ़ रहा है। हमने 2013 की केदारनाथ आपदा से सबक नहीं लिया। चमोली आपदा को भी कुछ दिन याद रखा जाएगा, उसके बाद भुला दिया जाएगा और फिर से ये काम शुरू हो जाएंगे।