साक्षात्कार: गंगा पर सटीक व उचित आंकड़े जुटाने के लिए तैयार हो रहे हैं नदी इंजीनियर

बनारस हिंदू विश्व विद्यालय के महामना मालवीय गंगा शोध संस्थान के अध्यक्ष बीडी त्रिपाठी से बातचीत
File Photo: agnimirh Basu/CSE
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बनारस हिंदू विश्व विद्यालय के महामना मालवीय गंगा शोध संस्थान के अध्यक्ष बीडी त्रिपाठी ने 1977 में जब गंगा नदी के संदर्भ में प्रदूषण शब्द का पहली बार इस्तेमाल किया था तब देश में हंगामा मच गया था। संसद में सवाल उठे थे। आम लोगों के जन्म-मरण से जुड़ी गंगा के लिए प्रदूषित शब्द कोई मानने को तैयार नहीं था। लगभग पांच दशक से गंगा नदी की स्वच्छता को अपना एकमात्र लक्ष्य रखने वाले त्रिपाठी का अब कहना है कि गंगा की सफाई तब होगी, जब गंगा बचेगी। गंगा नदी के प्रवाह में इतनी कमी आ गई है कि उसके संदर्भ में प्रदूषण बेमानी है। प्रदूषण से लेकर गंगा के अस्तित्व पर ही खतरे की घंटी बजाने वाले त्रिपाठी के साथ अनिल अश्विनी शर्मा की बातचीत के मुख्य अंश

गंगा के प्रदूषण को लेकर सबसे पहले आपने देश को खबरदार किया। आपको इस बात का सबसे पहले एहसास कब और कैसे हुआ?

1977 में वाराणसी के राजघाट पर मैंने देखा कि एक मृत मवेशी नदी के बवंडर में फंसा हुआ है और आगे की ओर नहीं जा पा रहा है। उसे कौवे और गिद्ध नोच-नोच कर खा रहे थे। इसके बाद मैंने स्वयं ही नदी के घाटों पर बहाए जाने वाले मवेशी और इंसानों की लाशों के आंकड़े जुटाए और बताया कि गंगा इसके कारण तेजी से प्रदूषित हो रही है। इसके बाद संसद में इस संबंध मेंं सवाल उठा और तब सरकार ने स्वीकारा कि गंगा प्रदूषित हो रही है और इस पर तुरंत कार्रवाई की जरूरत है। वाराणसी में 3 जनवरी 1981 को इंडियन नेशनल साइंस कांग्रेस का आयोजन हुआ। इसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी आईं और उन्होंने मुझे बुलाया। उनके साथ प्रो. एमएस स्वामीनाथन भी मौजूद थे। प्रधानमंत्री ने कहा कि आपके आंकड़े बहुत डरावने हैं और मैं चाहती हूं कि गंगा का प्रदूषण हर हाल में रुकना चाहिए। इसके बाद उन्होंने मुझे कहा कि आप हमें इस संबंध में एक प्लान बना कर भेजिए। मैंने बना कर भेजा और इसके बाद प्रधानमंत्री ने तीन राज्यों (अब पांच राज्य) में बहने वाली गंगा नदी के प्रदूषण को हर हाल में खत्म करने संबंधी एक पत्र तीनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लिखा।

आरोप है कि गंगा के स्वच्छता अभियानों को अब तक की सरकारों ने अपने लाभ के लिए इस्तेमाल किया, क्या इससे प्रदूषण बढ़ता गया?

अपने दशकों के शोध के आधार पर मैं आपको बता सकता हूं कि प्रदूषण अब एक गौण मुद्दा है। अब मुख्य चुनौती पवित्र नदी को बचाने की है। महज घाटों की सफाई या भव्य योजनाओं की घोषणा करने से कुछ हासिल नहीं होगा। एक बार पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने मुझसे पूछा था कि गंगा को लेकर स्वच्छता अभियान असफल क्यों हो जाते हैं।

तब मैंने उनसे कहा था कि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच किसी प्रकार का समन्वय नहीं होना एक बड़ा कारण है। दूसरा कारण है किसी के ऊपर गंगा की तयशुदा जिम्मेदारी नहीं है, इससे गंगा के प्रवाह में कमी, गाद तेजी से जमा हो रही है और तीसरा, गंगा में दोनों ओर से अतिक्रमण हो रहा है। ऐसे में नदी तेजी से सिकुड़ रही है और उथली होती जा रही है। अप्रैल में तो वाराणसी के घाट के पास रेत के टीले दिखाई पड़ने लगते हैं। वाराणसी के घाट पर रेत के टीले देख मुझे यकीन हो गया है कि गंगा न केवल प्रदूषित है, बल्कि यह एक आपदा के कगार पर खड़ी है।

अकेले वाराणसी में ही नहीं जिन पांच राज्यों से होकर यह बहती है, अगले 20 वर्षों में अधिकांश क्षेत्रों में नदी सूखने लगेगी। गंगा साफ नहीं हो सकती यह मुद्दा तो पीछे रह गया है। अब एक मात्र लक्ष्य नदी को बचाने का होना चाहिए क्योंकि इसका अस्तित्व ही खतरे में है। अगर हमने ऐसा नहीं किया तो आने वाले वर्षों में गंगा अपने आप “साफ” हो जाएगी। यही नहीं कुछ-कुछ 2013 की केदारनाथ व हाल में ही जोशीमठ में आई आपदा जैसा हाल होगा।

आप कह रहे हैं कि इस हालात में गंगा का साफ होना नामुमकिन है। आखिर क्यों?

वाराणसी और उसके आसपास 30 बड़े और छोटे नाले हैं जो गंगा में सीवेज छोड़ते हैं। तीन सीवेज उपचार संयंत्र हैं, एक 80 मिलियन लीटर प्रति दिन (एमएलडी) की क्षमता वाला, दूसरा 12 एमएलडी की क्षमता वाला और तीसरा 10 एमएलडी की क्षमता वाला। सरकार के अपने अनुमान के मुताबिक, शहर में प्रतिदिन 300 मिलियन लीटर सीवेज उत्पन्न होता है।

तीन उपचार संयंत्र लगभग 102 एमएलडी की देखभाल करते हैं, लेकिन शेष 198 एमएलडी प्रतिदिन गंगा में छोड़े जाने के बारे में क्या? सभी सरकारों ने घोषणा की थी कि वे अधिक सीवेज उपचार संयंत्र स्थापित करेंगी, लेकिन पिछले 30 सालों से यह केवल कागजों पर ही रह गया है। इसके अलावा, हमारी बड़ी समस्या शवों को जलाना और आंशिक रूप से जले हुए शवों को अन्य सामग्री और राख के साथ गंगा में बहा देना है। इतना सब कुछ होने के बाद क्या गंगा साफ हो पाएगी? ऐसे हालात में अब हम इसे बचाने के लिए ही काम कर सकते हैं।

औद्योगिक अपशिष्ट का उपचार नहीं हो रहा है?

वाराणसी और उसके आसपास 1,200 से अधिक लघु उद्योग हैं और किसी के पास सीवेज उपचार संयंत्र नहीं है। वे औद्योगिक अपशिष्ट पैदा करते हैं जिसमें सीसा, कैडमियम, तांबा और अन्य विषाक्त पदार्थ शामिल होते हैं। कम से कम भारी धातुओं को हटाने का कोई प्रावधान नहीं है। यह सब सीवर में डाला जाता है, जो नदी में समा जाता है। अत्यधिक प्रदूषित पानी का उपयोग पूरे वाराणसी में कृषि के लिए किया जाता है। फलों, अनाजों और फसलों में इन भारी धातुओं के बड़े अंश पाए जा सकते हैं। मैंने सालों तक इस मामले की जांच की और एक रिपोर्ट प्रस्तुत की, लेकिन कुछ भी नहीं बदला।

आपने कहा कि सरकार जो सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बना रही है उसमें तकनीकी खामिया हैं?

जी हां, सरकार तेजी से गंगा पर बड़ी संख्या में सीटीपी स्थापित कर रही है। इसमें वह सफल भी हो रही है, लेकिन इसकी सबसे बड़ी खामी को सब अनदेखा कर रहे हैं। वह है कि सरकार द्वारा स्थापित किए जाने वाले सीपीटी वास्तव में डोमेस्टिक वेस्ट वाटर को बस ट्रीट करके नदी में डाल दे रहे हैं। हमारा जो सीवेज सभी शहरों से आ रहा है, जैसे स्मॉल कॉटन इंडस्ट्रीज है, स्मॉल डाइंग इंडस्ट्रीज हैं, जिनके पास अपना कोई ट्रीटमेंट प्लांट नहीं है, वे तो सीधे अपने वेस्ट वाटर को सीवेज लाइन में डाल दे रहे हैं। ऐसे में सीपीटी इन प्रदूषकों को ट्रीट कर ही नहीं पा रहा है। ये सीधे नदी में समाते जा रहे हैं।

आप पांच दशक से गंगा से जुड़ी परियोजनाओं में शामिल रहे हैं। क्या कभी ऐसा वक्त आया था जब गंगा के साफ होने की संभावना बनी थी?

1990 के दशक से पहले एक संभावना लगती थी जब प्रदूषण आज की तुलना में बहुत कम था। पानी के बहाव में तेजी से कमी आई है। ऐसे में अब गंगा को बचाना अधिक जरूरी हो गया है।

क्या गंगा को “सिंपैथी” की नहीं बल्कि “इंपैथी” की जरूरत आन पड़ी है?

जी हां बिल्कुल। अब सिंपैथी (दूसरे के दुख से सहानुभूति होना) नहीं, इससे ज्यादा जरूरी है कि गंगा के प्रति आपके दिल में इंपैथी (किसी दूसरे के दुख को महसूस कर पाना) विकसित करने की है। गंगा को साफ करना है तो प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं को भेजना होगा और साथ ही आमजन की मदद भी बहुत जरूरी है। हर कोई गंगा को इस तरह बचाए जैसे वह अपना जीवन बचा रहा है।

आप गंगा को बचाने के लिए नदी इंजीनियर तैयार कर रहे हैं?

गंगा को साफ करने के लिए प्रशिक्षित लोगों की बहुत अधिक जरूरत है। इसीलिए हम नदी इंजीनियर तैयार कर रहे हैं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में महामना मालवीय अनुसंधान केंद्र के तहत यह काम किया जा रहा है। आज हमें अधिक से अधिक नदी इंजीनियरों की आवश्यकता है। मेरा इरादा अधिक से अधिक नदी इंजीनियर तैयार करने का है। यह केंद्र छात्रों को सभी नदी निकायों, विशेषकर गंगा के बारे में विस्तृत रूप से अध्ययन के लिए सामग्री उपलब्ध करवा रहा है।

हम गंगा से जुड़े हर छोटे-बड़े आंकड़े संकलित कर रहे हैं। ऐसा केंद्र वर्तमान में भारत में कहीं भी मौजूद नहीं है। आज भी गंगा पर सटीक व उचित आंकड़े नहीं हैं। हम एक एकीकृत दृष्टिकोण के माध्यम से समाधान खोजने और उन्हें सरकारों के सामने रखने का प्रयास करेंगे। मैं तो यह भी कहता हूं कि यदि लोगोंं के अंदर गंगा संस्कृति विकसित कर दी जाए तो गंगा स्वत: साफ हो जाएगी।

हमें इसके लिए बच्चों के बीच जाना पड़ेगा। भविष्य में बच्चों में हमें गंगा की संस्कृति विकसित करनी होगी तभी हम गंगा को बचा जाएंगे। हम इतना तो दावा कर ही सकते हैं कि यदि गंगा सूखी तो 45 करोड़ लोगों के जीवन को बचाना मुश्किल हो जाएगा। कोई विज्ञान, तकनीक या विभाग नहीं है जो इनकी जिंदगी को बचा सकेगा।

नदी इंजीनियरों के चयन का तरीका क्या है?

हमने इसके लिए गंगा नदी के किनारे रहने वाले 18 से 45 आयु वर्ग के लोगों से आवेदन पत्र मंगाए और साक्षात्कार के आधार पर उनका चयन किया। इसके लिए हमने गंगा नदी के किनारे बसे जिलों में रहने वालों को वरीयता दी। चूंकि ऐसे युवाओं में गंगा नदी की स्वच्छता को लेकर गहरा लगाव है। इसलिए ऐसे ही युवाओं को चयन किया गया है।

सरकार का दावा है कि गंगा में प्रवाह की स्थिति में तेजी से सुधार हो रहा है?

मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा। इलाहाबाद में कुंभ के समय दस करोड़ लोगों के स्नान करने के बाद वहां का बीओडी 25 से 28 तक चला जाना चाहिए। लेकिन, मेरे शोध छात्रों ने उस दौरान जब गंगा के पानी का आकलन किया तो यह केवल 3 से 4 मिलीग्राम आया। इस पर मैंने कहा कि तुम लोग गलत कर रहे हो फिर से करो।

उन्होंने फिर से किया लेकिन आंकड़ा वही। अब मैं परेशान कि ये कैसे हो रहा है। बाद में खोजबीन की तो पता चला कि नरोरा बांध से पानी छोड़ा गया है। इसलिए ऐसी स्थिति बन रही है। तो यह वास्तव में प्रवाह का प्रभाव है। जब जल की कुल मात्रा और प्रवाह बढ़ाया तो उसका परिणाम सामने है। यह प्राकृतिक प्रवृत्ति है कि जब भी प्रवाह में कमी आएगी तो गाद अधिक एकत्रित होने लगती है। जैसे बाल्टी में भरे पानी को यदि तेजी से फर्श पर डालेंगे तो मिट्टी बह जाएगी। पानी धीरे-धीरे डालेंगे तो मिट्टी वहीं की वहीं जमी रहेगी।

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