स्वच्छ गंगा: जब तक मल-मूत्र गिरेगा, तब तक निर्मल कैसे होगी गंगा?

एनएमसीजी ने 97 ऐसे शहरों की पहचान की है, जो सीधे गंगा की मुख्य धारा के आसपास हैं और इन शहरों से 2953 एमएलडी सीवर निकलता है, जबकि यहां के सीवर ट्रीटमेंट प्लांट की क्षमता 1930 एमएलडी है
Photo: Vikas Choudhary
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भारत की 43 फीसदी आबादी गंगा घाटी (बेसिन) में रहती है, इसलिए गंगा का कायाकल्प करना अनिवार्य है। हालांकि नदी दिन-ब-दिन प्रदूषित और सूखती जा रही है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, ऐसे 151 नाले जहां रोजाना लगभग 10 लाख लीटर पानी का प्रवाह रहता है और ये नाले गंगा में जाकर मिलते हैं, इनसे रोजाना लगभग 10,500 मिलियन लीटर प्रतिदिन (एमएलडी) प्रदूषित पानी गंगा में पहुंचता है। इस प्रदूषित पानी में बीओडी (जैव रासायनिक ऑक्सीजन) की मात्रा 350 से 430 टन प्रति दिन (टीपीडी) है, जो कि एक करोड़ से अधिक लोगों के शौच के नदी में पहुंचने के बराबर है। संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के अनुसार, गंगा नदी की दो मुख्य सहायक नदियों में 80 फीसदी दूषित जल डाला जा रहा है।

1986 में पवित्र नदी को साफ करने का अभियान शुरू किया गया था, इसे गंगा एक्शन प्लान का पहला चरण कहा जाता है। इसके तहत सरकार ने कई प्रयास करे। इसके बाद यमुना एक्शन प्लान-एक, गंगा एक्शन प्लान-दो और गोमती एक्शन प्लान चलाया गया, लेकिन किसी से भी अच्छे परिणाम नहीं मिले। अब नमामि गंगे योजना की शुरुआत की है। यह योजना सरकार ने 2015 में शुरू की और इसके लिए 20 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया। इसका लक्ष्य 2020 तक गंगा को अविरल और निर्मल बनाना है। यह लक्ष्य पहले 2019 तक के लिए रखा गया था।

गंगा में न्यूनतम प्रवाह न होने और प्रदूषण बढ़ने के कई कारण है, लेकिन सबसे बड़ा कारण शहरों से निकलने वाला म्युनिस्पिल वेस्ट (कचरे) को माना जाता है।

नमामि गंगे योजना का संचालन कर रही संस्था नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा (एनएमसीजी) ने 97 प्रमुख शहरों की पहचान की है, जो गंगा की मुख्य धारा से जुड़े है और नमामि गंगे की लगभग सभी परियोजनाओं को इन शहरों के लिए मंजूर किया गया है। यद्यपि यह समझने के लिए किसी रॉकेट साइंस का इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं है कि गंगा का पुनरुद्धार तब तक नहीं हो सकता, जब तक उसकी सहायक नदियों की ओर से बराबर ध्यान नहीं दया जाता। फिर भी, नमामि गंगे कम से कम एक व्यापक एकीकृत कार्यक्रम है, जो अपशिष्ट जल उपचार के लिए बुनियादी ढाँचा तैयार करने के अलावा ग्रामीण स्वच्छता, अविरल धारा, वनीकरण, जैव विविधता, संचार और सार्वजनिक आउटरीच आदि जैसे जुड़े हुए कार्यक्रम भी शामिल हैं।

एनएमसीजी के अनुसार अभी इन शहरों से गंदा पानी (सीवर) 2953 एमएलडी निकलता है, जो साल 2035 तक 3603 एमएलडी तक पहुंच जाएगा, जबकि इन शहरों में गंदे पानी के ट्रीटमेंट प्लांट्स की क्षमता अप्रैल 2019 तक 1930 एमएलडी ही है, जबकि 3308 एमएलडी क्षमता के ट्रीटमेंट प्लांट परियोजनाओं के प्रस्ताव को मंजूरी दी जा चुकी है। खास बात यह है कि 1930 एमएलडी क्षमता का मतलब यह नहीं है कि इतना सीवर ट्रीट हो रहा है, बल्कि लगभग सभी ट्रीटमेंट प्लांट क्षमता से कम काम कर रहे हैं।

दूषित जल उत्पादन की गणना पानी की आपूर्ति के आधार पर की जाती है (यह माना जाता है कि आपूर्ति की गई पानी का 80% दूषित जल में परिवर्तित हो जाता है)। बेसिन क्षेत्र में बने ज्यादातर घरों में पाइप से पानी की आपूर्ति नहीं होती है और उन्हें भूजल स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे में, इन घरों से निकलने वाले दूषित पानी की गणना नहीं हो पाती और उनके लिए ट्रीटमेंट प्लांट भी नहीं बन पाते।

ट्रीटमेंट प्लांट को सही ढंग से चलाने के लिए एनएमसीजी ने हाइब्रिड एनुयिटी मॉडल शुरू किया। इसके तहत नगर पालिकाएं ट्रीटमेंट प्लांट के निर्माण और 15 साल के लिए संचालन की जिम्मेवारी निजी कंपनी को सौंप देती हैं। इसका मतलब यह भी है कि ऑपरेटर केवल तभी भुगतान करेगा जब एसटीपी कुशलतापूर्वक काम करता है और सभी डिस्चार्ज मानदंडों को पूरा करता है। उपचार संयंत्रों की निगरानी में सुधार के लिए उन्होंने एक शहर एक ऑपरेटर की अवधारणा पेश की है। हालांकि यह नई परियोजनाओं के लिए काम कर सकता है लेकिन मौजूदा परियोजनाओं में लागू करना मुश्किल होगा।

इस हाइब्रिड एनुयिटी मॉडल के तहत बनाए जाने वाले अधिकांश ट्रीटमेंट प्लांट्स को सीवरेज नेटवर्क के साथ नहीं जोड़ा जाता है। यानी कि, दूषित पानी शहर में खुले नालों में डाला जाएगा, लेकिन जब नदी में प्रवेश करेगा तो उसे वहीं रोक कर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट में डाला जाएगा। स्वच्छ भारत मिशन के तहत सेप्टिक टैंक और पिट शौचालय तो बने हैं, लेकिन 70 फीसदी से अधिक इलाकों में सीवरेज नेटवर्क नहीं है। इसलिए कुछ समय के लिए मलमूत्र का इकट्ठा किया जाता है और बाद में खाली करने की जरूरत होती है। एक वैक्यूम टैंकर के माध्यम से इन शौचालयों और सेप्टिक टैंक से मल निकाला जाता है और खुले नालों, खेतों, खाली भूखंडों आदि में डाल दिया जाता है, लेकिन ऐसा करने से पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है। किसी भी नदी या नाले में डाले जा रहे 5000 लीटर मल कीचड़ का एक ट्रक का भार एक दिन में शौच करने वाले 5000 लोगों के बराबर होता है। लगभग 4000 से ज्यादा ऐसे ट्रक या ट्रैक्टर रोजाना नदी की घाटियों में पहुंचते हैं, जो 2 करोड़ लोगों के खुले में शौच करने के बराबर होता है।

हालांकि इस बात के पर्याप्त संभावना है कि एसटीपी में थोड़ा सा बदलाव करने से इस मल कीचड़ का ट्रीटमेंट किया जा सकता है, लेकिन जो ट्रीटमेंट प्लांट डिजाइन किए गए हैं, उनमें ऐसी कोई संभावना नहीं दिखती। ऐसे में, सवाल उठता है कि अगर हम खुले नालों में शौच करते या मल कीचड़ डालते रहें तो हम निर्मल गंगा की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?

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