अभी भी जैव विविधता की विरासत को संभाले हुए है यमुना

यमुना में जैव-विविधता सर्वेक्षणों में गांगेय डॉलफिन (सौंस), घड़ियाल एवं कई दुर्लभ जलीय पक्षियों का पाया जाना इसकी जैव-विविधता की विरासत को दर्शाता है
यमुना नदी में यूरेशियन स्पूनबिल का एक झुण्ड। फोटो: अजय प्रकाश रावत
यमुना नदी में यूरेशियन स्पूनबिल का एक झुण्ड। फोटो: अजय प्रकाश रावत
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पीढ़ी दर पीढ़ी समूचे जौनसार-बावर को इठलाती हुई सींचने वाली यमुना को हथिनीकुंड बैराज से आगे बड़ा ही लचर स्थिति में देखा जा सकता है और नोएडा तक पहुंचने तक तो इसका काला रंग इसको किसी नाले की संज्ञा दे देता है। गंगा नदीघाटी के एक बड़े भू-भाग को प्राण देने वाली यह नदी, कई प्रकाशित लेखों में "मरती हुई नदी " जैसे शब्दों से कलंकित की गई है जो कि काफी दुःखद है।

किन्तु, जैव-विविधता संबधी आंकलन में यह नदी कई अन्य नदियों से काफी बेहतर प्रतीत होती है। हाल ही में हमारे द्वारा किये गये जैव-विविधता सर्वेक्षणों में गांगेय डॉलफिन (सौंस), घड़ियाल एवं कई दुर्लभ जलीय पक्षियों का पाया जाना इसकी जैव-विविधता की विरासत को दर्शाता है और साथ ही एक आशा देता है इस नदी को जीवंत रखने के लिए और कड़े प्रयास करने की।

यमुनोत्री में बन्दरपूंछ चोटी पर 6,387 मीटर की ऊंचाई से निकलती हुई पतली जलधारा पौंटा साहिब तक पहुंचते-पहुंचते एक बड़े भू-भाग में जालनुमा बहने लगती है और साल दर साल अपनी दिशा और मुहाने बदलती रहती है।

गंगा की यह सबसे बड़ी सहायक नदियों में से एक है जो कि प्रयागराज में गंगा में समाहित हो जाती है और अपनी इस यात्रा के दौरान ये विभिन्न भू-परिदृश्यों से होकर गुजरती है। हिमालय के बुग्यालों और शंकुधारी वनों से होते हुए जब यह गुजरती है तो इसका प्रवाह काफी तेज़ रहता है और यह सिलसिला डाकपत्थर बैराज तक जारी रहता है।

जैव-विविधता में यदि जलीय पक्षियों की बात करें तो केवल ऐसे ही पक्षी मिल पाते हैं जो कि पानी की तेज धार में अपना भोजन खोज सकेंं, जैसे कि रेडस्टार्ट (वाइट कैप्ड रेडस्टार्ट, पल्मबियस रेडस्टार्ट), फोर्कटेल एवं वैगटेल (येलो वैगटेल, वाइट कैप्ड वैगटेल, ग्रे वैगटेल), ये कुछ ऐसी छोटी पक्षी प्रजातियां है जो कि ऐसे पर्यावासों में खुद को ढाल लेती हैं।

साथ ही यह हिमालयी जलधारा क्षेत्र को आइबिस बिल जैसे दुर्लभ पक्षी के लिए भी उपयुक्त माना जा सकता है। नदी के दोनों तट ज्यादातर ढलान रूपी होते हैं और इनमे कई प्रकार के स्तनधारी प्राणी भी पाए जाते हैं जिनमें हिमालयी भालू, चितरौल, उदबिलाऊ और गुलदार आदि प्रमुख हैं। मानव आबादी कम होने के कारण भी यहां इनका विचरण स्वछंद रहता है।

शिवालिक पार करते ही हरियाणा और दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में बढ़ती मानव जनसंख्या तथा संसाधनों का दोहन, नदी के अस्तित्व को थोड़ा डगमगा देता है। फिर भी जलीय पक्षियों और कछुओं का यहां ठीक-ठाक अवलोकन हो ही जाता है । बढ़ते प्रदूषण के कारण, नोएडा आते-आते नदी के रंग में भी परिवर्तन दिखने लगता है पर एक बार इटावा पार करने बाद चम्बल नदी का साफ पानी यमुना को आकार और प्रकार में कई गुना बेहतर कर देता है।

पंचनदा नामक स्थान को पांच नदियों का संगम भी कहा जाता है, जहां चम्बल और यमुना के साथ-साथ कुंवारी (क्वांरी), सिंध और पहुज सहायक नदियां आकर एक छोटे से सागर का दृश्य बना देती हैं। और यही से गांगेय डॉलफिन (सौंस) और घड़ियाल का मिलना शुरू हो जाता है, दूरबीन से किसी रेतीलें टीले या द्वीप पर धूप सेकते घड़ियाल और कछुए दिख ही जाते हैं।

कछुओं में मुख्य रूप से इंडियन सॉफ्ट शैल (कटहवा) और पंगशुरा (घुरि और पचौरिया) प्रजातियां पाई जाती हैं। सहायक नदी चम्बल में इनके पर्यावास को इनका स्वर्ग माना जाता है, भारत में चम्बल में ही घड़ियालो की सबसे ज्यादा आबादी पायी जाती है।

ऐतिहासिक काल्पी कस्बे तक पहुंचते ही डॉलफिन यहां-वहां कूदति फुदकती दिखाई पड़ती है विशेषत: जहां पानी की गहराई 2-3 मीटर से ज्यादा रहती है। यहां से जलीय पक्षी भी अब बड़ी संख्या में मिलने शुरू हो जाते हैं, कुछ गहरे पानी में गोते लगाने वाले पक्षी जैसे की कोर्मोरेंट (पनकौव्वे), ग्रीब (शिवहंस), बतख आदि, मछली और सूक्ष्म जीवों का लुत्फ उठाते दिखाई देते हैं, और साथ में हवा से पानी के अंदर छलांग लगाने वाले पक्षी जैसे गल, टर्न और किंगफिशर/ किलकिला भी दिखाई पड़ती है।

केन और बेतवा, दो बड़ी सहायक नदियां, यमुना का आकार और भी बढ़ा देती हैं। नदी के तट मुख्यतया लम्बी टांगो वाले पक्षियों (वेडर) जैसे सैंडपाइपर, टिटहरी, पेलिकन, और स्टिंट के दर्शन करा देते हैं। मऊ के आसपास कहीं-कहीं पर पथरिले तट ऊदबिलाव के आदर्श पर्यावास होने की संभावना भी दर्शाते हैं। 

प्रयागराज से कुछ पहले इंडियन स्कीमर का बड़ा झुण्ड दिखाई पड़ता है और प्रयागराज संगम आते-आते नदी गल पक्षियों से भरी रहती है जो दृश्य देखने लायक होता है। यह संगम न सिर्फ नदियों का होता है बल्कि कई विभिन्न संस्कृतियों और लोगों का भी होता है।

तकरीबन 100 जलीय पक्षियों की प्रजातियां इस नदी को जैव-विविधता के सम्बन्ध में किसी भी अन्य नदी के मुकाबले कम नहीं आंकती, साथ ही सर्दी के मौसम के आगमन पर मध्य-एशिया के ठन्डे भू-भागों से आने वाले सैकड़ों प्रवासी पक्षियों की प्रजातियां इस नदी को कुछ महीनो के लिए अपना घर बना देती है।

हजारों किलोमीटर की यात्रा कर ठन्डे रेगिस्तानों को पार कर आने वाले ये पक्षी, इस नदी की शोभा में चार चांद लगा देते है और इनका पाया जाना ही इंगित करना है कि अब भी यमुना में जैव-विविधता के लिए अनुकूल पर्यावास उपलब्ध है और इसलिए इस नदी को सजो संवर कर रखने की बड़ी जिम्मेदारी है।

विगत कुछ दशकों में कम होते जल प्रवाह से इसके घटते जलस्तर, दिल्ली और इसके आसपास के इलाकों में बढ़ते जल प्रदूषण, एवं निचले इलाकों में हो रहे रेत खनन, इस नदी और इसमें मिलने वाले वन्यजीवों के अस्तित्व को खतरा है।

इन्ही पहलुओं को ध्यान में रखते हुए ही जलशक्ति मंत्रालय, भारत सरकार के तत्वधान में गंगा एवं इसकी सहायक नदियों के लिए "राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन" के अंतर्गत महत्वाकांक्षी परियोजना "नमामि गंगे" चल रही है जिसका उद्देश्य नदियों को संरक्षित और पुनर्जीवित करना है।

जिसका एक उद्देश्य जन समुदायों को इस मुहीम में जोड़ने का भी है। अभी तक गंगा में हज़ारो की संख्या में नदी के आसपास रहने वाले लोगों को इस परियोजना के अंतर्गत प्रशिक्षित किया गया है जो की "गंगा प्रहरी" के नाम से जाने जाते है, जिनका मुख्य कार्य गंगा की जैव-विविधता संरक्षण और जागरूकता फैलाने में सहयोग करना है।

अब तो इसके परिणाम भी दिखने लगे हैं, गंगा के यह रहवासी अपने स्तर से नदी और जैव-विविधता संरक्षण के लिये कार्य कर रहे हैं। कुछ ऐसा ही अब यमुना के लिए करने की ज़रूरत होगी जहां यमुना के रहवासी भी आगे आये और इसकी जैव-विविधता को संरक्षित रखने का प्रयास करें।

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