कैसे मीठी बन गई मुंबई की “यमुना”?

कैसे मीठी बन गई मुंबई की “यमुना”?

छह दशक पहले ही नदी के विध्वंस की प्रक्रिया शुरू हो गई थी और अब यह एक बदबूदार नाला बन चुकी है
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प्रकृति अन्य शहरों की तुलना में मुम्बई पर विशेष रूप से मेहरबान रही है। यहां दो संरक्षित क्षेत्र है पहला संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान (एसजीएनपी) जिसमें वनयुक्त इको सेंसिटिव जोन आरे आता है और दूसरा शहर की सीमा के अंदर तीन प्रमुख झीलें और ठाणे क्रीक फ्लेमिंगो अभयारण्य (टीसीएफएस) है।

टीसीएफएस को रामसर साइट का खिताब दिया गया है, जो इसे अंतरराष्ट्रीय महत्व की एक आर्द्रभूमि बनाता है। राष्ट्रीय उद्यान, जो आमतौर पर एसजीएनपी के नाम से जाना जाता है, बिल्कुल अलादीन के चिराग की तरह है! यह आश्चर्यों से भरा तो है ही, साथ-साथ मनुष्यों, वनस्पतियों एवं जीवों को अमूर्त पारिस्थितिक लाभ देने की क्षमता रखता है।

ऐसा ही एक उपहार है मुंबई की नदियां। यहां की सभी नदियों जैसे दहिसर, पोइसर, ओशिवारा और मीठी का स्रोत एसजीएनपी ही है। ठाणे की चेना नदी भी एसजीएनपी से ही निकलती है। लेकिन यहां हम मुंबई की सबसे लंबी (18 किमी) नदी मीठी पर ध्यान केंद्रित करेंगे।

मीठी नदी विहार झील के मुहाने से निकलकर, कुछ दूरी के बाद पवई झील के मुहाने से मिलती है और फिर दोनों धाराएं एक हो जाती हैं। इन दो टेल वाटर डिस्चार्ज धाराओं के संगम से मीठी नदी का निर्माण होता है। अभी कुछ ही दशक पहले तक यह नदी पूरी शान के साथ अरब सागर से जाकर मिलती थी। बच्चे नदी में खेलते थे, लोग नहाते थे।

थोड़ा और नीचे, ज्वार-नदी मुख पर धान के खेत थे और उनका इस्तेमाल मछली पकड़ने के लिए किया जाता था। पानी मीठा होने के कारण नदी का नाम मीठी रखा गया। 1970 के बाद के दौर में नदी के विध्वंस की प्रक्रिया शुरू हो गई।

पचास साल के दुर्व्यवहार से नदी गंदी, बदबूदार, सड़ी हुई लाश में तब्दील हो गई है। अवैध चॉलें, झुग्गी-झोपड़ियां, उद्योग, मवेशी शेड, आप बस नाम लीजिये ,सब कुछ नदी के किनारे स्थित है। हमारी प्राकृतिक विरासत की संरक्षक होने के बावजूद सरकार ने नदी के किनारे अतिक्रमणकारियों को मुनाफा कमाने और पनपने के लिए जरूरी सभी सुविधाएं प्रदान करके इस विध्वंस में सहभागी होना चुना।

1980 के दशक तक हर बार ज्वार के साथ समुद्र का कुछ पानी नदी के मुहानों को डुबो देता था जिससे निचले हिस्सों में कुछ मछलियां भी आ जाती थीं। धारावी झुग्गी-झोपड़ी नहीं बल्कि मछुआरों का गांव है और वे उन दिनों को याद करते हैं जब मछली पकड़ने वाली नावें सायन धारावी से सीधा माहिम कॉजवे तक जाती थीं और अच्छी मात्रा में मछलियां लेकर लौटती थीं। आज यह एक परीकथा की तरह लगता है।

तकनीकी और वैज्ञानिक रूप से एक नदी के पांच घटक होते हैं। उद्गम, ऊपरी हिस्सा, जलग्रहण क्षेत्र, निचला हिस्सा और मुहाना जहां यह समुद्र से मिलती है। मीठी को एक ऐसी नदी होने का दुर्भाग्य प्राप्त है जिसके हर घटक को नष्ट कर दिया गया है।

उद्गम के पास बांध बना दिया गया है साथ ही नदी के आधार को कंक्रीट से ढंक दिया गया है, और इसकी पूरी लंबाई में दीवारें उठा दी गई हैं। आरे के जलग्रहण क्षेत्रों में जंगल के अंदर बड़ी दीवारें बनाकर उन्हें नदियों से से अलग कर दिया गया है। भला जंगल के अंदर नदी पर दीवारें कौन बनाता है, जहां कोई इंसान रहता भी नहीं? किसी को यह समझने के लिए रॉकेट वैज्ञानिक होने की आवश्यकता नहीं है कि इसका उद्देश्य ऐसी भूमि का निर्माण करना है जिसका उपयोग जंगल सूख जाने के बाद रियल एस्टेट के लिए किया जा सके।

चौंकाने वाली बात यह है कि बाढ़ के मैदानों की रक्षा करने वाली नदी विनियमन नीति को एक ब्यूरोक्रेट ने मीठी नदी का उदाहरण देकर ही खारिज कर दिया। मीठी का डूब क्षेत्र अब विवादास्पद मेट्रो 3 वैगन सर्विस स्टेशन/कार शेड का घर बन गया है,जो एक लाल श्रेणी का प्रदूषणकारी उद्योग है। वहीं, नदी के मुहाने की कब्र पर बांद्रा कुर्ला कॉम्प्लेक्स (बीकेसी) बिजनेस डिस्ट्रिक्ट की विशाल व्यावसायिक इमारतें खड़ी हैं। मीठी नदी एक ऐसे मार्ग से बहती है जो अंधेरी से माहिम तक के पश्चिमी उपनगरों से आनेवाले बाढ़ के पानी को प्राकृतिक रूप से रोकता है ।

मुंबई की 2006 की बाढ़ ने सरकारी नियोजन निकायों की गलतियों को उजागर किया, जिन्होंने यह मान लिया था कि किसी भी नदी के लिए जलग्रहण क्षेत्र और डूब क्षेत्र की कोई जरूरत नहीं है। इसके नतीजे के रूप में मुंबई ने तीन दिनों तक अकल्पनीय दुख झेला। मुंबई की बुनियादी भौगोलिक स्थिति इसे समुद्री पानी के प्रवेश को लेकर असुरक्षित बनाती है। ज्वार समुद्र के पानी को नदियों की ओर धकेलता है और मॉनसून में शहर का बाढ़ का पानी बाहर निकलने के मार्ग की तलाश में रहता है। ऐसी स्थिति में यह जरूरी है कि एक ऐसा स्थान हो जहां इस पानी को तूफानी पानी के साथ तब तक रोका जा सके जब तक कि ज्वार कम न हो जाए। आधुनिक शहर इस समस्या का समाधान होल्डिंग तालाबों के निर्माण के द्वारा करते हैं। नवी मुंबई में महाराष्ट्र शहर एवं औद्योगिक विकास मंडल (सीआईडीसीओ) ने शहर को बाढ़ मुक्त रखने के लिए ऐसे कई होल्डिंग तालाब बनाए हैं। मौलिक प्रश्न यह है कि क्या पारिस्थितिक रूप से नाजुक नवी मुंबई शहर को नष्ट करते रहने की छूट दी जा सकती है? यह एक और महत्वपूर्ण और अनसुलझा मुद्दा है। लेकिन हां, सिविल इंजीनियरिंग आपदा नियंत्रण योजना के अंतर्गत वहां होल्डिंग तालाब बनाए गए हैं। 2006 की तबाही के बाद नदी के प्रति प्रेम और चिंता को लेकर चारों ओर से काफी हो-हल्ला मचा था। ऐसा लग रहा था मानो मुंबई मीठी और उसके गौरव को पुनर्जीवित करने के लिए दृढ़ संकल्पित हो। हमेशा की तरह सरकारी एजेंसियों की बांछें खिल उठीं! मीठी की आड़ में पैसे कमाए जा सकते थे!

मीठी नदी के उद्गम से लेकर अरब सागर में मिलने तक हर हिस्से को नष्ट कर दिया गया है। नदी के डूब क्षेत्र में ही लाल श्रेणी वाली औद्योगिक इकाई है तो कहीं गगनचुंबी इमारतें

मुंबई को बाढ़ मुक्त रखने के उपाय सुझाने के लिए एक समिति गठित की गई। मीठी नदी विकास एवं संरक्षण प्राधिकरण की स्थापना की गई! दरअसल यह रियल एस्टेट का विकास और बिल्डरों का संरक्षण था और कुछ नहीं। मुंबई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे ने अपने रनवे का विस्तार करने का फैसला किया और उन्होंने इसके लिए नदी को चुना! विस्तार कार्य की सुविधा के लिए नदी की चौड़ाई को कम कर दिया गया और समकोण पर मोड़ दिया गया। यह एक मास्टरस्ट्रोक था। इस डिजाइन से यह सुनिश्चित हुआ कि पानी स्थिर रहेगा और तेजी से गाद जमा होगी। तो यहां समस्या क्या है? दरअसल “गाद हटाने” के बहाने हजारों करोड़ रुपए के सार्वजनिक धन के अंधाधुंध और अनावश्यक व्यय के लिए नए रास्ते खोल दिए। खासकर मुंबई में हर काम भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। अंतरराष्ट्रीय यात्रियों को बाहर निकलते ही मीठी नदी से निकलने वाले कच्चे सीवेज की बदबू का सामना करना पड़ता है। शहर की छवि को नुकसान पहुंचाने की बात तो छोड़िये, सरकार की तरफ से किसी को इसकी परवाह तक नहीं है। नदी ज्वारमुख के नुकसान की भरपाई के लिए सबसे भयावह योजना वह थी जिसकी तुलना तवे से निकालकर आग में डालने वाली कहावत से की जा सकती है। जिन विचारों पर वास्तव में काम शुरू हो गया था, उनमें से एक था नदी के मुहाने पर विस्फोट करके नदी का मुंह खोलना! अगर ऐसा हुआ तो नदी के मुहाने पर और भी गाद जमा हो जाएगी और बाढ़ की स्थिति बदतर हो जाएगी। वर्तमान में नदी के मुहाने पर भारी मात्रा में गाद जमा है और नदी में मैंग्रोव उग आए हैं। यह समझना कठिन नहीं है कि केंद्रीय एजेंसियां अदालती लड़ाई में बचाव के लिए आधार तैयार करने के लिए इस तरह के अवैज्ञानिक विचारों पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा देती हैं।

गैर सरकारी संगठन मुद्दे को अदालत में ले गए और सौभाग्य से विस्फोट नहीं किया गया। शीर्ष अदालत में कई ऐसे मामले लंबित हैं, जिन पर लंबे समय से सुनवाई नहीं हुई है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने नदी को पुनर्जीवित करने के उपाय सुझाने के लिए विशेषज्ञों की एक समिति नियुक्त की। 2018 में रिपोर्ट प्रस्तुत की गई और सरकारी एजेंसियां अदालत को विनाश को पूरा करने के लिए पर्याप्त समय देने हेतु मनाने में कामयाब रहीं। 2018 के बाद बीकेसी में नदी के पास शेष अंतिम खाली जगहों पर एक मॉल, वाणिज्यिक भवनों और कास्टिंग यार्ड का निर्माण हो गया। आज हल्के-फुल्के अंदाज में कहा जाए तो इस रिपोर्ट को किसी लाइब्रेरी में रखा जा सकता है, क्योंकि एक नई कवरअप, मेकओवर रिपोर्ट तैयार की जा रही है। न्यायिक देरी ने मीठी नदी के ताबूत में आखिरी कील ठोक दी है। सर्वोच्च न्यायालय की समिति की रिपोर्ट ने नदी के पास के खुले स्थानों को विशेष रूप से विकास मुक्त क्षेत्र रखने का सुझाव दिया था। सीआरजेड अधिसूचना में ज्वार से प्रभावित जल निकायों के पास 50 मीटर का बफर अनिवार्य किया गया है। हालांकि, 50 मीटर को तो भूल जाइए, 5 मीटर का बफर भी नहीं छोड़ा गया है। किसी को अगर यह देखना हो कि कैसे मैंग्रोव को एवेन्यू के पेड़ों की तरह कंक्रीट के रास्ते में घेर दिया गया तो उसे मीठी नदी के किनारे बीकेसी में स्थित बगीचे में जाना चाहिए। मीठी में फेंके जाने वाले ठोस कचरे की मात्रा अकल्पनीय है। सैकड़ों टन गैर-अपघटनीय ठोस कचरा मीठी के माध्यम से समुद्र तट पर पहुंचता है। नदी से निकलने वाले ठोस कचरे के कारण नागरिक समूहों, गैर सरकारी संगठनों को नियमित रूप से समुद्र तट की सफाई करनी पड़ती है। कचरा/प्लास्टिक को फंसाने के लिए वर्षा जल नालियों में जाल लगाने जैसे सरल उपायों का शहरी विकास विभाग द्वारा विरोध किया जाता रहा है, क्योंकि यह कचरे को खाड़ी और समुद्र को प्रदूषित करने से रोकने का एक सस्ता उपाय मात्र है। विस्मृत, प्रताड़ित और निर्मम हत्या यही कहानी उस मीठे पानी की नदी की है जो किसी जमाने में शहर में जान फूंकती थी और लोग खेती या मछली पकड़कर अपनी आजीविका चलाते थे। मुंबई के बच्चे कभी नहीं जान पाएंगे कि एक नदी कैसी दिखती है या कैसी दिखनी चाहिए।

(लेखक एक पर्यावरणविद् और पर्यावास संरक्षणवादी हैं जो गैर-लाभकारी वनशक्ति के निदेशक के रूप में काम करते हैं)

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