किसे फायदा पहुंचाने के लिए हो रहा है जल अधिनियम में संशोधन, विशेषज्ञों ने उठाए सवाल

पर्यावरण मंत्री ने संसद में विधेयक पेश करते हुए उद्योगों को बढ़ावा देने, पर्यावरण संरक्षण में सुधार का दावा किया
Think foam of pollution covers Yamuna river in New Delhi. Photo for representation: iStock
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पर्यावरण विशेषज्ञों ने कहा है कि जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 एक विफलता थी और इसमें सुधार की आवश्यकता थी, लेकिन केंद्र सरकार द्वारा अधिनियम में पेश किए गए नवीनतम बदलाव आवश्यकता के बिल्कुल विपरीत हैं।

जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) संशोधन विधेयक, 2024 अधिनियम में बदलाव का प्रस्ताव 72 घंटे की अवधि के भीतर संसद के दोनों सदनों में पेश किया गया और मंजूरी दे दी गई। यह कानून 50 साल पहले लागू हुए मूल अधिनियम को कमजोर करता है। अधिनियम 1974 में केंद्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी) के गठन का प्रावधान है।

संशोधन पहली बार 5 फरवरी, 2024 को केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेन्द्र यादव द्वारा राज्यसभा में लाया गया था। इसमें अधिनियम के दंडात्मक प्रावधानों में व्यापक बदलाव का प्रस्ताव रखा गया और वर्तमान की तुलना में राज्य बोर्डों में शीर्ष अधिकारियों के चयन पर अधिक नियंत्रण रखने की बात की गई।

यह संशोधन शुरू में हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और केंद्र शासित प्रदेशों पर लागू होगा। इसमें प्रावधान किया गया है कि बाकी राज्य "अपने राज्यों में इसकी प्रासंगिकता बढ़ाने के लिए प्रस्ताव पारित कर सकते हैं।"

नागरिक संगठनों और विपक्षी नेताओं ने इस नए संशोधन का विरोध करते हुए इसे पर्यावरण विरोधी और साथ ही देश के संघीय ढांचे के खिलाफ बताया, जबकि भारतीय जनता पार्टी के कई संसद सदस्यों और इसका समर्थन करने वाले राजनीतिक दलों ने इसे आगे बढ़ाया गया कदम बताया है।

केंद्र ने एक 'राज्य' अधिनियम को बदल दिया

भूपेंद्र यादव ने सदन में विधेयक पेश करते हुए कहा, “आज मैं एक महत्वपूर्ण संशोधन के संबंध में इस सदन में उपस्थित हुआ हूं। विधेयक में जल अधिनियम में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव करने का प्रस्ताव है। इससे न केवल उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में भी प्रगति होगी।

मंत्री ने कहा, "चूंकि संविधान के अनुच्छेद 252 के तहत पानी राज्य का विषय है, इसलिए जल अधिनियम में संशोधन के वर्तमान प्रस्ताव के लिए दोनों राज्यों द्वारा विधानसभा में पारित करने की आवश्यकता है। विधेयक में यह प्रावधान किया गया है।" 

यादव ने दावा किया कि विधेयक में राज्य बोर्डों के अध्यक्षों की नियुक्ति को सुव्यवस्थित करने के लिए योग्यता, अनुभव और नियुक्ति के तरीकों का जो प्रावधान किया गया है, उससे नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता आएगी। उन्होंने यह भी कहा कि अधिनियम में कारावास के प्रावधानों को जुर्माने में बदला गया है, ताकि अधिनियम को अपराधमुक्त किया जा सके।

पानी से संबंधित व्यवसाय की प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए (ज्यादातर लोगों द्वारा इसे उद्योगों के पक्ष में पढ़ा जाता है), विधेयक में कहा गया है कि केंद्र सरकार केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के परामर्श से औद्योगिक संयंत्रों की कुछ श्रेणियों को राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों से सहमति प्राप्त करने से छूट दे सकती है। पहले के एक्ट में यह अनिवार्य था।

मूल अधिनियम में कई उल्लंघनों के लिए जुर्माने के साथ-साथ डेढ़ साल से छह साल तक की जेल की सजा का भी प्रावधान था। जबकि नए विधेयक में अधिकांश उल्लंघनों के लिए कारावास के प्रावधान को हटाने का प्रस्ताव दिया गया है और इसकी जगह 10,000 रुपये से 15 लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया गया है।

मंत्री ने कहा, "धारा 41 से 45 ए, 47 और 48 से संबंधित उल्लंघनों को अदालत में मुकदमा चलाने के बजाय वित्तीय दंड लगाकर निपटाने का प्रस्ताव है।" अधिनियम के "जुर्माना एवं प्रक्रिया' नामक शीर्षक वाले सातवें अध्याय में यह बदलाव किया जा रहा है।   

कहा गया है कि अधिनियम के तहत राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष को राज्य सरकार द्वारा नामित किया जाता है। लेकिन केंद्र सरकार अध्यक्ष के नामांकन के तरीके और सेवा की शर्तों को निर्धारित करेगी।

विपक्षी नेताओं ने इस बयान की व्याख्या करते हुए कहा है कि यह राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में घुसपैठ का प्रयास है। 

संशोधन के अनुसार, विधेयक केंद्र सरकार को जल प्रदूषण अधिनियम के तहत दंड निर्धारित करने के लिए अधिकारियों को नियुक्त करने की भी अनुमति देगा। मूल अधिनियम में यह शक्ति राज्य सरकारों को सौंपी गई थी।

बीजेपी सांसद लक्ष्मीकांत बाजपेयी ने बहस की शुरुआत करते हुए दावा किया कि यह विधेयक व्यापार करने में आसानी की दिशा में एक सही कदम है। उन्होंने कहा, "यह व्यवसायों को इंस्पेक्टर राज से मुक्त करेगा और एक बेहतर तंत्र प्रदान करेगा।"

कमजोर करने के लिए किया गया डिजाइन

वहीं, अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस के सांसद जवाहर सरकार ने संसद के उच्च सदन में विधेयक का विरोध किया और आरोप लगाते हुए संसद में कहा, “अपराधी को राज्य में भयभीत रहना होगा क्योंकि वह प्रकृति के खिलाफ, मानवता के खिलाफ अपराध कर रहा है। सरकार अपराधियों को छूट देना और राहत देना जारी नहीं रख सकती,'' उन्होंने राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के संचालन को चलाने के लिए राज्य की अधिकांश मौजूदा शक्तियों को छीनने के विधेयक के प्रस्ताव का जिक्र करते हुए इसे "संघ विरोधी कानून" भी करार दिया।

उन्होंने इस संवाददाता को बताया कि सरकार औद्योगिक-खनन लॉबी को खुश करने के लिए व्यवस्थित रूप से पर्यावरण के खिलाफ अपराधों को कम कर रही है और दंड को नरम कर रही है। सरकार को इस छूट के कारण पर्यावरण को होने वाले दीर्घकालिक नुकसान का कोई अंदाजा नहीं है।

अधिकांश विशेषज्ञों ने नए संशोधनों की भी आलोचना की।

जल विशेषज्ञ हिमांशु ठक्कर ने कहा कि पिछले 50 वर्षों में जल अधिनियम के तहत सफलता की कुछ ही कहानियां सामने आई हैं और इसके प्रावधानों में महत्वपूर्ण बदलाव निस्संदेह आवश्यक थे, लेकिन जो परिवर्तन किए गए हैं, वे आवश्यकता के विपरीत हैं। हमें विकेंद्रीकरण और सख्त कानूनों की आवश्यकता है, लेकिन हमें इसके विपरीत मिल रहा है। केंद्रीकरण को बढ़ाया जा रहा है और प्रावधान कमजोर किए जा रहे हैं। 

पर्यावरण अधिवक्ता ऋत्विक दत्ता ने कहा कि जल अधिनियम सहित देश में पर्यावरण कानून अब तक काफी हद तक विफल साबित हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, जल अधिनियम और वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 के तहत केवल 78 आपराधिक मामले दर्ज किए गए थे। अधिकांश राज्यों ने एक भी मामला दर्ज नहीं किया।

पुणे से सोसाइटी फॉर प्रमोटिंग पार्टिसिपेटिव इकोसिस्टम मैनेजमेंट के वरिष्ठ फेलो केजे जॉय ने कहा कि नया  विधेयक जल अधिनियम को कमजोर करने के लिए बनाया गया है, जो पहले से ही अप्रभावी था। व्यापार करने में आसानी के नाम पर प्रस्तावित नए संशोधन निवारण की बजाय प्रदूषण करने का लाइसेंस प्रदान करेंगे।

पश्चिम बंगाल राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सेवानिवृत्त मुख्य विधि अधिकारी बिस्वजीत मुखर्जी ने कहा  कि नया  संशोधन लोगों को भुगतान करने और प्रदूषण फैलाने के लिए प्रोत्साहित करेगा। इसके अलावा पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के साथ इसके प्रावधानों की असंगति भ्रम को और बढ़ाएगी। 

दूसरी ओर, एक अन्य पर्यावरण कार्यकर्ता ने राज्य बोर्डों पर अध्यक्षों के लिए समान योग्यता शर्तों को स्थापित करने के प्रस्ताव का समर्थन किया। उन्होंने बताया कि अयोग्य लोगों को सत्ताधारी सरकार के साथ उनकी राजनीतिक निकटता के कारण अक्सर लंबे समय तक पदों पर रखा जाता है।

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