वायु प्रदूषण के कारण बढ़ रहा है डायबिटीज का खतरा, भारतीय शोध का दावा

शोध के मुताबिक, दिल्ली और चेन्नई, दोनों शहरों में वार्षिक औसत पीएम 2.5 स्तर में प्रत्येक 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर वृद्धि के कारण मधुमेह का खतरा 22 फीसदी बढ़ा हुआ पाया गया
फोटो साभार : विकिमीडिया कॉमन्स, प्रामी.एपी90
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भारत में किए गए एक शोध में पाया गया है कि, प्रदूषित हवा में सांस लेने से टाइप 2 मधुमेह का खतरा बढ़ जाता है। दिल्ली और दक्षिण भारत के शहर चेन्नई में किए गए शोध में पाया गया कि भारी मात्रा में कण पदार्थ (पीएम 2.5) कणों वाली हवा में सांस लेने से रक्त शर्करा का स्तर बढ़ जाता है जिससे टाइप 2 मधुमेह की घटनाएं बढ़ रही हैं

जब हम सांस लेते हैं, तो पीएम 2.5 कण, जो बाल से 30 गुना तक पतले होते हैं, हमारे खून में प्रवेश कर सकते हैं और कई सांस और हृदय संबंधी बीमारियों को जन्म दे सकते हैं।

शोध के मुताबिक, यह अध्ययन भारत में पुरानी चली आ रही बीमारियों पर चल रहे शोध का हिस्सा है जो 2010 में शुरू हुआ था। यह भारत में परिवेशी 2.5 और टाइप 2 मधुमेह के संपर्क के बीच संबंध पर गौर करने वाला पहला अध्ययन है।

अध्ययन में कहा गया है कि, दिल्ली में औसत वार्षिक पीएम 2.5 का स्तर 82-100 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर और चेन्नई में 30-40 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर था, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की सीमा 5 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से कई गुना अधिक है। जबकि भारत के राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानक 40 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर हैं।

वायु प्रदूषण और मधुमेह के बीच संबंध

यह अध्ययन सेंटर फॉर कार्डियोमेटाबोलिक रिस्क रिडक्शन इन साउथ एशिया (सीएआरआरएस) की अगुवाई में किया गया है। अध्ययन में दो भारतीय शहरों चेन्नई और दिल्ली के लोगों को शामिल किया गया था, जिनकी उम्र 20 वर्ष या उससे अधिक की थी थे। अध्ययन शहरी इलाकों के नमूनों पर आधारित है।

इन दोनों शहरों के प्रत्येक घर से दो लोगों, एक पुरुष और एक महिला को भर्ती किया गया। इस अध्ययन में कुल 12604 व्यक्तियों, यानी चेन्नई के 6722 व्यक्तियों और दिल्ली के 5342 व्यक्तियों को शामिल किया गया था, जिनकी जियोकोडेड घरेलू जानकारी के साथ-साथ उनसे प्रश्नावली-आधारित जानकारी भी ली गई थी।

बीएमजे नामक पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने 2010 से 2017 तक दोनों शहरों के पुरुषों और महिलाओं के एक समूह की निगरानी की और समय-समय पर उनके रक्त शर्करा के स्तर को मापा गया। उपग्रह के आंकड़ों और वायु प्रदूषण के खतरों के मॉडल का उपयोग करके, उन्होंने उस समय सीमा में प्रत्येक प्रतिभागी के इलाके में वायु प्रदूषण का निर्धारण किया।

इन प्रतिभागियों में से, 10031 के जनवरी 2010 से दिसंबर 2016 के बीच रक्त के नमूनों को कम से कम एक बार माप कर  ग्लाइसेमिक मार्कर (एफपीजी और एचबीए1सी) की जांच की गई। जिसके बाद पूरे समूह में ग्लाइसेमिक मार्करों का आकलन किया गया।

शोधकर्ताओं ने पाया कि एक महीने तक पीएम 2.5 के संपर्क में रहने वालों के खून में शर्करा का स्तर बढ़ गया था, एक साल या उससे अधिक समय तक इसके संपर्क में रहने से मधुमेह होने का खतरा बढ़ गया। उन्होंने पाया कि दोनों शहरों में वार्षिक औसत पीएम 2.5 स्तर में प्रत्येक 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि के कारण मधुमेह का खतरा 22 फीसदी बढ़ गया।

अध्ययन में कहा गया है कि, पिछले 20 से 30 वर्षों में जीवन शैली में बदलाव के साथ वायु प्रदूषण एक बड़ा पर्यावरणीय कारण रहा है, जिसकी वजह से मधुमेह के मामले बढ़ रहे हैं।

अध्ययनकर्ताओं ने बताया कि, यह अध्ययन स्थानीय रूप से विकसित उच्च-रिज़ॉल्यूशन स्पेटियोटेम्पोरल मॉडल, ग्लाइसेमिक मार्करों और घटनाओं का मूल्यांकन करके पीएम2.5 के छोटी अवधि, मध्यम अवधि और लंबी अवधि के खतरों को जोड़ने वाले साक्ष्य प्रदान करता है।

अध्ययन में कहा गया कि, अत्यधिक प्रदूषित क्षेत्र में मधुमेह का बोझ अधिक देखा गया है, इस प्रकार यह पश्चिमी आबादी में कम प्रदूषण परिदृश्यों के मौजूदा सबूतों को एक साथ जोड़ता है।

अध्ययन में यह भी कहा गया है कि, अब तक माना जाता था कि, आहार, मोटापा और शारीरिक व्यायाम कुछ ऐसे कारक थे जो बताते हैं कि शहरी भारतीयों में ग्रामीण भारतीयों की तुलना में मधुमेह के मामले अधिक क्यों है। इस अध्ययन से मधुमेह का एक नया कारण पता चला है जो वायु प्रदूषण है।

अध्ययनकर्ताओं ने अध्ययन की कुछ सीमाओं का भी जिक्र किया है, जिसमें कहा गया है कि, अध्ययन के परिणाम भारत के दो शहरी परिवेशों में स्थित एक समूह पर आधारित हैं, जो पूरे देश पर लागू नहीं होते हैं।

आहार संबंधी प्रथाएं, जो इस अध्ययन के दायरे से बाहर रखी गई थीं। इसके अलावा, मात्रात्मक इनडोर पीएम 2.5 की कमी, जो शहरी वातावरण में भी मौजूद है, इस अध्ययन की एक सीमा है।

अध्ययन में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (एनओ2) जैसे अन्य प्रदूषकों के सम्पर्क का आकलन नहीं किया गया है, जो शर्करा चयापचय की गड़बड़ी में भी भूमिका निभा सकता है।

अध्ययन में स्वास्थ्य मॉडल के यातायात से संबंधित उत्सर्जन को ध्यान में रखते हुए सड़कों से निकटता वाले इलाकों को शामिल किया गया। इसके अलावा, हालांकि एक्सपो-श्योर मॉडल ने पूर्वानुमानित मॉडल में कई बदलने वाली चीजों का उपयोग किया गया।

इसके अतिरिक्त, दोनों शहरों में पीएम2.5 की अलग-अलग संरचना और उत्सर्जन के स्रोतों में अंतर के कारण शहर में बदलाव भी परिणाम को प्रभावित कर सकते हैं।

अध्ययन में कहा गया कि, पूरे समूह में इंसुलिन को बार-बार नहीं मापा गया था जो उन अलग-अलग मार्गों के बारे में जानकारी  प्रदान कर सकता था, जिनके द्वारा पीएम2.5 ग्लाइसेमिक मार्करों और मधुमेह की घटनाओं को प्रभावित करता है। इसलिए अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि इस पर और शोध किया जाना चाहिए। 

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