गांवों, शहरों में जैसे ही सूरज ढलता और दिन की भीषण गर्मी सुहावनी शाम में तब्दील होती, वातावरण एक अजीब से संगीत से भर जाता था, यह संगीत उन कीटों का था जो सूरज ढलते ही सक्रिय हो जाते। इस संगीत में एक चहचहाट झींगुरों की भी होती थी।
लेकिन क्या आपने गौर किया है कि समय के साथ यह संगीत मंद पड़ता जा रहा है। तो क्या इन झींगरों ने चहचहाना और आपस में संवाद करना बन कर दिया या कुछ और है जो इसमें बाधा उत्पन्न कर रहा है। देखा जाए तो जिस तरह से वातावरण में इंसानी शोर बढ़ रहा है यह संगीत उसमें कहीं दब सा गया है।
लेकिन क्या वातावरण में बढ़ता इंसानी शोर इन नन्हें जीवों के अस्तित्व के लिए खतरा बन रहा है? क्या इसकी वजह से उनके प्रजनन और पैदा होने वाली संतानों पर असर पड़ रहा है। इन्हीं प्रश्नों के जवाब ढूंढने के लिए डेनवर विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने झींगुरों पर इंसानी शोर के बढ़ते प्रभावों का मूल्यांकन किया है। तीन वर्षों तक चले इस अध्ययन के नतीजे जर्नल बीएमसी इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन में प्रकाशित हुए हैं।
रिसर्च के मुताबिक धरती पर मौजूद 95 फीसदी से अधिक प्रजातियां अकशेरुकी जीवों की है। यह वो जीव हैं जिनके शरीर में हम इंसानों और दूसरे जानवरों की तरह रीढ़ की हड्डी नहीं होती। इन अकशेरुकी जीवों में कीट, केकड़ा, झींगा, घोंघा, ऑक्टोपस, स्टारफिश आदि शामिल हैं।
हालांकि धरती पर इतनी बड़ी संख्या में होने के बावजूद स्थलीय जीवों पर ध्वनि प्रदूषण के क्या प्रभाव पड़ रहे हैं, इसको लेकर किए गए चार फीसदी से भी कम शोधों में अकशेरुकी जीवों पर ध्यान केंद्रित किया गया है। आज बढ़ता शोर, ध्वनि प्रदूषण के रूप में दुनिया पर किस कदर हावी हो चुका है इसका अंदाजा अमेरिका से लगाया जा सकता है, जहां की 83 फीसदी जमीन ध्वनि प्रदूषण की चपेट में है।
इसी तरह वहां के करीब 88 फीसदी लोग आमतौर पर इतने शोर का सामना करने को मजबूर हैं, जो लगातार बारिश की वजह से पैदा होने वाली ध्वनि के बराबर है। बता दें कि इस दौरान पैदा हो रही ध्वनि का स्तर करीब 55 डेसिबल होता है।
बढ़ते शोर के साथ घट गई झींगुरों के जीवित रहने की सम्भावना
अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनसे पता चला है कि शोर के एक निर्धारित स्तर के बाद झींगुरों के वयस्क होने तक जीवित रहने की सम्भावना कम हो गई थी। इसके साथ ही मादा झींगुर कितने बच्चे पैदा करती है यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि उसने किशोरावस्था से वयस्क होने के बीच शोर के किस स्तर का सामना किया था।
बता दें कि अपने इस अध्ययन के दौरान वैज्ञानिकों ने झींगुरों के प्राकृतिक आवास में पाए जा सकने वाले यातायात सम्बन्धी शोर के चार स्तरों का परीक्षण किया। इसमें पहला स्तर वो था जिस दौरान वातावरण में कोई इंसानी शोर मौजूद नहीं था। दूसरी अवस्था में शोर का स्तर 50 डेसिबल, इसके बाद 60 और सबसे ज्यादा 70 डेसिबल तक था। जो भीड़-भाड़ वाली सड़क पर मौजूद कोलाहल या किसी चल रहे वैक्यूम क्लीनर की आवाज के बराबर होता है।
रिसर्च से पता चला है कि 70 डेसीबल शोर के संपर्क में आने वाले झींगुरों के वयस्क होने तक जीवित रहने की संभावना, शांत वातावरण में पाए जाने वाले झींगुरों की तुलना में 35 फीसदी कम थी।
इस अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता और जीव विज्ञानी प्रोफेसर रॉबिन एम टिनघिटेला ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि, “हाल ही में हमने ध्वनि प्रदूषण को आर्थ्रोपॉड की संख्या में गिरावट से जोड़ा। जो आपस में सम्बंधित जीवों के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है।“
बता दें कि आर्थ्रोपॉड, अकशेरुकी जीव हैं, जो पारिस्थितिक तंत्र में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये जीव पौधों को परागित करने, पोषक तत्वों के पुनर्चक्रण और अपशिष्ट को साफ करने के साथ-साथ दूसरे जीवों के लिए भी आहार प्रदान करते हैं।
शोधकर्ताओं ने यह भी माना है कि आपस में संवाद के लिए ध्वनि पर निर्भर रहने वाले कीट, बढ़ते ध्वनि प्रदूषण से प्रभावित हो सकते हैं। यही वजह है कि उन्होंने झींगुरों का अध्ययन किया है। यह जीव संवाद के लिए वातावरण में अपने द्वारा पैदा की जाने वाली ध्वनि की मदद लेते हैं। यह आमतौर पर शहरों में या उसके आसपास के क्षेत्रों में रहते हैं, जहां यह आसानी से यातायात की वजह से होने वाले शोर के संपर्क में आ सकते हैं।
अपने इस अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने झींगुरों के 15 लक्षणों पर ध्वनि प्रदूषण के प्रभावों का विश्लेषण किया है। उन्होंने पाया है कि शोर ने झींगुरों के वयस्क होने तक जीवित रहने की दर और उनकी पैदा होने वाली संतानों की संख्या को प्रभावित किया। टिनघिटेला का मानना है कि बढ़ता इंसानी शोर झींगुरों के लिए तनाव का काम करता है। हालांकि, इन प्रभावों के बावजूद, उनके द्वारा मापे गए 13 अन्य लक्षणों पर शोर का प्रभाव नहीं देखा गया, जो दर्शाता है कि यह जीव इंसानों के निरंतर होते शोर के साथ रहना सीख रहे हैं।
कीटों के अस्तित्व के लिए खतरा बन रही तेजी से बढ़ती इंसानी महत्वाकांक्षा
वैज्ञानिकों शोधों के मुताबिक केवल ध्वनि प्रदूषण ही नहीं इंसानों द्वारा पैदा की गई दूसरी समस्याएं जैसे जलवायु परिवर्तन, वायु प्रदूषण आदि भी कीटों के अस्तित्व के लिए खतरा बन रहे हैं। जर्नल नेचर में प्रकाशित एक ऐसे ही अध्ययन से पता चला है कि वैश्विक स्तर तापमान में होती वृद्धि और भूमि उपयोग में आते बदलावों ने दुनिया के कई हिस्सों में कीटों की आबादी को करीब-करीब आधा कर दिया है। कई क्षेत्रों में तो इनकी आबादी में 63 फीसदी तक की गिरावट देखी गई है।
इसी तरह परागण करने वाले कीट विशेष रूप से तेजी से होते कृषि विस्तार के कारण प्रभावित हो रहे हैं। यह कीट अपने प्राकृतिक आवासों की तुलना में उन क्षेत्रों में 70 फीसदी कम नजर आते हैं जहां गहन कृषि की जा रही है।
जर्नल नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में सामने आया है कि गाड़ियों, फैक्ट्रियों, जंगल में धधकती आग और अन्य स्रोतों से होने वाला प्रदूषण इंसानों के साथ-साथ कीटों को भी प्रभावित कर रहा है। इनकी वजह से कीटों के एंटीना और रिसेप्टर्स की क्षमता पर असर पड़ रहा है। नतीजन इन जीवों को अपना आहार, साथी, या अंडे देने के लिए सुरक्षित जगह खोजने में दिक्कतें आ रही हैं।
अनुमान है कि यदि ऐसा हो चलता रहा तो अगले कुछ दशकों में दुनिया के करीब 40 फीसदी कीट खत्म हो जाएंगें। इस बारे में जर्नल साइंस में छपी एक रिसर्च से पता चला है कि 1990 के बाद से कीटों की आबादी में करीब 25 फीसदी की कमी आई है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि कीट हर दशक नौ फीसदी की दर से कम हो रहे हैं।
कहीं न कहीं हम इंसानों की बढ़ती महत्वाकांक्षा इन नन्हे जीवों के विनाश की वजह बन रही है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पृथ्वी सिर्फ हमारा ही घर नहीं है यह दूसरे अनगिनत जीवों का भी बसेरा है। यह नन्हें जीव भी धरती का एक अभिन्न हिस्सा हैं, जिनके बिना जीवन के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। ऐसे में इससे पहले बहुत देर हो जाए इन जीवों के संरक्षण के लिए किए जा रहे प्रयासों को बढ़ावा देना जरूरी है।