केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने जुलाई 2023 में उद्योगों को लाल, नारंगी, हरे और सफेद श्रेणियों में वर्गीकृत करने और उनके मानदंडों के लिए एक नया मसौदा पेश किया था। दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने इस ड्राफ्ट के साथ वर्गीकरण के लिए प्रस्तावित संशोधनों और उसकी पद्धति की भी समीक्षा की है।
सीएसई के मुताबिक, इस पद्धति में खामियां हैं क्योंकि इसमें आम लोगों और उद्योगों में काम करने वाले श्रमिकों के स्वास्थ्य पर पड़ते विभिन्न प्रकार के प्रदूषण के प्रभावों को ध्यान में नहीं रखा गया है। इसके अलावा, खतरनाक वायु प्रदूषकों और कोयला या तरल ईंधन को जलाने से होने वाले उत्सर्जन की तुलना में देखें तो इसमें प्रक्रिया संचालन और सामग्री प्रबंधन से होने वाले क्षणिक उत्सर्जन को कम महत्व दिया गया है।
इसके कारण, स्टोन क्रशर इकाइयां जोकि फ्यूजिटिव एमिशन के मामले में सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले क्षेत्रों में से एक हैं, उन्हें इस सीपीसीबी रिपोर्ट में नारंगी से हरी श्रेणी में स्थानांतरित करने का प्रस्ताव रखा गया है।
इसी तरह स्टोन क्रशरों से होने वाले धूल उत्सर्जन को भी कम करके नहीं आंका जाना चाहिए, क्योंकि यह दूसरे खतरनाक वायु प्रदूषकों की तरह ही हानिकारक है। भारत में किए कई अध्ययन भी इस तथ्य को साबित करते हैं कि स्टोन क्रशर टोटल सस्पेंडेड पार्टिकल्स (टीएसपी) और सूक्ष्म कणों (पीएम 10) के साथ-साथ पीएम2.5 जैसे महीन कणों को भी पैदा करते हैं।
सेंट्रल लेदर रिसर्च इंस्टीट्यूट ने अपने एक अध्ययन में चेन्नई के उपनगर पम्मल में मौजूद 50 स्टोन क्रशर इकाइयों की जांच की थी। इस शोध से पता चला कि ये इकाइयां बड़ी मात्रा में धूल पैदा करती हैं, जो आसपास के समुदायों को प्रभावित करती है।
कई शोधों में स्वास्थ्य पर पड़ते प्रभावों का हुआ है खुलासा
शोधकर्ताओं ने वहां टीएसपी, पीएम10 और पीएम2.5 के दैनिक स्तर को मापने के लिए जो 26 सैंपलिंग साइटें स्थापित की थी, उनमें टीएसपी का स्तर 342-2,470 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर, पीएम10 का स्तर 90-1,200 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर जबकि पीएम2.5 का दैनिक स्तर 41-388 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर तक दर्ज किया गया। इतना ही नहीं इनमें से अधिकांश स्थानों पर आसपास के वातावरण में फैला प्रदूषण और व्यावसायिक जोखिम दोनों भारत के राष्ट्रीय मानकों से अधिक थे।
राजपलायम तालुका में स्टोन क्रशर श्रमिकों के स्वास्थ्य पर पड़ते प्रभावों को लेकर किए एक अध्ययन से पता चला है कि "भले ही स्टोन क्रशिंग इकाइयां प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में लोगों के लिए रोजगार के अवसर पैदा करती है, लेकिन साथ ही हमें इसके पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।
इस रिसर्च से पता चला है कि इन स्टोन क्रशिंग इकाइयों से होते पर्यावरण प्रदूषण के चलते इसमें काम करने वाले 36 फीसदी श्रमिक आंखों में जलन, अस्थमा, सीने में दर्द, तपेदिक जैसी स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित थे। इन समस्याओं में, श्रमिकों की आंखों में होती जलन, अस्थमा और त्वचा की एलर्जी सबसे आम थी।
इसके अतिरिक्त, करीब आधे श्रमिकों ने काम के दौरान पर्याप्त सुरक्षात्मक गियर का उपयोग नहीं किया था। अध्ययन ने जानकारी दी है कि विशेष रूप से, उनमें से 30 फीसदी ने खुद को धूल से बचाने के लिए किसी भी उपकरण का उपयोग नहीं किया था।
इन स्टोन क्रशरों ने हमेशा से नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है, जिसके चलते कई राज्यों में इन इकाइयों से होते प्रदूषण से निपटने के लिए एनजीटी ने कई आदेश भी जारी किए हैं। भले ही यह क्षेत्र किसी भी प्रकार के ईंधन का उपयोग नहीं कर रहा हो, लेकिन फिर भी इससे अनियंत्रित तरीके से निकलने वाली धूल इन क्रशर के पास रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा करती है। इसका सबसे गंभीर प्रभाव क्रशर के अंदर काम करने वाले मजदूरों पर पड़ता है।
इसके साथ ही इन स्टोन क्रशर इकाइयों के चलने से भारी मात्रा में ध्वनि प्रदूषण भी होता है।
सीएसई ने देखा है कि अधिकांश छोटी और मध्यम आकार की स्टोन क्रशर इकाइयों में प्रदूषण को रोकने के लिए किए जाने वाले आवश्यक उपायों जैसे धूल नियंत्रण उपकरण, बाड़े, पानी छिड़काव प्रणाली और उचित सड़कों का आभाव है। यह केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) या संबंधित राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों द्वारा निर्धारित दिशानिर्देशों का उल्लंघन है।
स्टोन क्रशर क्षेत्र स्पष्ट तौर पर महीन कणों (पीएम) के प्रदूषण में भी योगदान करता है। ऐसे में इसे मौजूदा नारंगी से हरी श्रेणी में शिफ्ट करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
यदि साफ सुथरी छवि के हैं स्टोन क्रशर तो क्यों एनजीटी ने जारी किए आदेश
ऐसे कई मामले हैं जिनमें स्टोन क्रशरों से होती समस्याओं को उजागर किया गया है। ऐसा ही एक उदहारण 15 मार्च, 2023 को एनजीटी में पेश (मूल आवेदन संख्या 23/2017 (ईजेड)) हुआ था। मामला झारखंड के साहेबगंज में विंध्य पर्वत की राजमहल पहाड़ियों में चल रही क्रशिंग इकाइयों और होते खनन से जुड़ा है, जहां इनके संचालन में पर्यावरण संबंधी नियमों का उल्लंघन किया जा रहा था।
इस आदेश के पॉइंट 10 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि:
“यह पाया गया है कि स्टोन क्रशर आवश्यक सुरक्षा उपायों, विशेषकर वायु प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों के बिना चल रहे हैं, जो पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। रिपोर्ट में स्टोन क्रशर के संचालन के लिए सुरक्षा उपाय लागू करने, प्रदूषण नियंत्रण उपाय लागू होने तक क्रशर गतिविधियों को रोकने, रेलवे साइडिंग से प्रदूषण का प्रबंधन और निगरानी करने के साथ पर्यावरणीय मुआवजा इकट्ठा करने का सुझाव दिया गया है।“
इसके अतिरिक्त, आदेश पत्थर खदानों और क्रशर वाले क्षेत्रों के लिए एक व्यापक पर्यावरण प्रबंधन योजना तैयार करने की भी सिफारिश करता है। साथ ही इसमें बहाली के उपाय करने की भी बात कही है।
10 अगस्त, 2023 को एनजीटी के एक आदेश में हरियाणा के तीन मामलों की प्रतिक्रिया सामने आई थी। ये मामले OA नंबर 667/2018 (महेंद्र सिंह बनाम हरियाणा राज्य और अन्य), OA नंबर 679/2018 (तेजपाल बनाम हरियाणा राज्य और अन्य), और OA नंबर 599/2019 (बिश्ंबर सिंह बनाम हरियाणा राज्य और अन्य) थे।
महेंद्रगढ़ जिले में 133 स्टोन क्रशिंग इकाइयां हैं। 18 जनवरी, 2023 को हरियाणा की ओर से एनजीटी में जमा कराई गई एक्शन टेकन रिपोर्ट में जानकारी दी गई थी कि प्रदूषण करने वाली सात स्टोन क्रशिंग इकाइयों पर 20-20 लाख रुपए का जुर्माना किया गया और उनसे अब तक कुल 1.4 करोड़ रुपए वसूले गए हैं। यह राशि अंतरिम पर्यावरण मुआवजे के रूप में हरियाणा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के खाते में जमा की गई है। इसके बाद एनजीटी ने कारण बताओ नोटिस जारी कर मुआवजे की प्रक्रिया को और तेज करने को कहा गया।
इसी तरह 28 अक्टूबर, 2023 को एनजीटी में एक अन्य मामले में संयुक्त समिति ने हरियाणा में चरखी दादरी के बिरही कलां में मौजूद पत्थर क्रशरों के मामले (कुलदीप बनाम हरियाणा राज्य OA 480) में एक स्थिति रिपोर्ट प्रस्तुत की है। यह रिपोर्ट एनजीटी द्वारा 13 सितंबर, 2023 को दिए आदेश पर कोर्ट में सौंपी गई है। रिपोर्ट इस बात पर केंद्रित थी कि क्या क्षेत्र में चल रहे स्टोन क्रशरों द्वारा सहमति की शर्तों, पर्यावरण नियमों, और मानदंडों का पालन किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त, रिपोर्ट में बहाली के उपाय भी प्रस्तावित किए गए थे।
संयुक्त समिति ने चरखी दादरी के बिरही कलां में चल रही 30 स्टोन क्रशिंग इकाइयों की जांच की थी, उनमें से, 19 नियमों का पालन कर रही थी। वहीं जानकारी दी गई है कि इनमें से पांच इकाइयों को नष्ट कर दिया गया है, जबकि छह इकाइयां वायु प्रदूषण नियंत्रण उपायों का पालन नहीं कर रही थी। ऐसे में संयुक्त समिति ने कोर्ट से नियमों का पालन न करने वाली इकाइयों से पर्यावरण को हुए नुकसान की एवज में मुआवजा वसूलने के साथ उन्हें बंद करने की सिफारिश की थी।
अब सवाल यह है कि यदि स्टोन क्रशर इकाइयां इतनी साफ-सुथरी छवि की हैं कि उन्हें हरित श्रेणी में रखा जा सकता है, तो विभिन्न राज्यों में एनजीटी ने क्रशर इकाइयों द्वारा नियमों का पालन न करने के संबंध में इतने सारे आदेश क्यों दिए हैं?
स्टोन क्रशर इकाइयों से होने वाले प्रदूषण को यह कहकर खारिज नहीं किया जा सकता कि वे ईंधन नहीं जलाते या खतरनाक प्रदूषक नहीं छोड़ते। कुल मिलकर निष्कर्ष यह है कि इन इकाइयों से निकलने वाली धूल और शोर आसपास के निवासियों के लिए स्वास्थ्य समस्याएं पैदा करते हैं।
सीएसई ने भी इनसे होते प्रदूषण को किया है उजागर
इसके अतिरिक्त सीएसई ने देश के विभिन्न राज्यों में क्रशर इकाइयों का अध्ययन किया। इसमें पता चला कि गैर-औद्योगिक क्षेत्रों में उचित बुनियादी ढांचे का अभाव है और यहां स्थित स्टैंडअलोन क्रशर इकाइयों से होने वाला उत्सर्जन क्षेत्र में प्रदूषण को बढ़ाता है। ये अध्ययन दिल्ली-एनसीआर, हरियाणा, राजस्थान और महाराष्ट्र में किए गए।
क्रशर इकाइयों के चलने से होने वाला ध्वनि प्रदूषण भी चिंता की एक और वजह है, क्योंकि कई क्रशर इकाइयां उन क्षेत्रों में चल रही हैं जहां लोग रहते हैं। हालांकि ऐसी इकाइयों को कहां स्थापित किया जाना चाहिए, इसके लिए मानदंड हैं, लेकिन देश भर में उनका विवेकपूर्ण तरीके से पालन नहीं किया जाता।
यहां तक कि वायु प्रदूषण से जूझ रही राजधानी दिल्ली और उसके आसपास भी बड़ी संख्या में क्रशर मौजूद हैं। ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान में उनका शामिल होना इस बात को रेखांकित करता है कि किसी भी क्षेत्र में क्रशर इकाइयों की मौजूदगी उसकी वायु गुणवत्ता को लेकर चिंता पैदा करती है।
इन बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए, यह सिफारिश की जाती है कि स्टोन क्रशर केवल नारंगी श्रेणी में संचालित होने चाहिए। इसे कतई भी उचित नहीं ठहराया जा सकता कि स्टोन क्रशिंग जैसे उद्योग को बिना किसी जांच के 15 साल तक संचालन की अनुमति दे दी जाए।
सीपीसीबी ने हाल ही में स्टोन क्रशर क्षेत्र के लिए भी दिशानिर्देशों को अपडेट किया है। ऐसे में नवीनतम दिशानिर्देशों के उचित कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए श्रेणियों को स्थानांतरित करने से स्टोन क्रशरों की होने वाली जांच का दायरा कम हो जाएगा।