पेट्रोकेमिकल उद्योगों की वजह से गुजरात के कई इलाकों में रहने वाले स्थानीय लोगों का जीवन दूभर हो गया है। वहीं, इन उद्योगों की वजह से होने वाले प्रदूषण की वजह से जलवायु लक्ष्य तक प्रभावित हो रहे हैं। पहली कड़ी में आपने पढ़ा: पेट्रोकेमिकल सेक्टर में जस्ट ट्रांजिशन: विकास, पर्यावरण और समुदाय के सवाल पर कौन करे बात? । अगली कड़ी में आपने पढ़ा : जलवायु लक्ष्य व जस्ट ट्रांजिशन के लिए घातक साबित हो रहे हैं गुजरात के पेट्रोकेमिकल उद्योग । आज पढ़ें अगली कड़ी -
नवंबर के पहले हफ्ते में काली मिट्टी में उगा सफेद सोना लहलहाने लगा है। कानम प्रदेश के नाम से मशहूर ये गुजरात के भरूच जिले की कॉटन बेल्ट है। जो अपनी उच्च गुणवत्ता की कपास (रुई) के लिए जानी जाती है।
खेतों से कपास चुन रही महिला श्रमिकों का समूह तल्लीनता से अपने काम में रमा हुआ है। सारा दिन तेज धूप में खड़े होकर वे कपास चुनती हैं। यहां मौजूद 19 वर्षीय राखी बताती हैं कि अक्टूबर के पहले हफ्ते तक मध्य प्रदेश के झाबुआ से उनका समूह यहां पहुंच जाता है। फरवरी-मार्च तक वे रुई निकालने का काम करते हैं और होली से पहले, किसान से अपना मेहनताना लेकर, घर वापसी शुरू हो जाती है!
कपास के ये खेत स्थानीय किसानों के साथ-साथ प्रवासी मजदूरों की आमदनी का बड़ा जरिया हैं। भरूच में केमिकल और पेट्रोकेमिकल औद्योगिक इकाइयों का विस्तार, धुआं उगलती चिमनियों और हवा में केमिकल के रिसाव का संकट, कपास के इन खेतों और उत्पादन दोनों पर है।
औद्योगिक इकाइयां बढ़ीं, खेत सिमटे
देश के तीन प्रमुख कपास उत्पादक राज्यों में से एक गुजरात है। पिछले 5 वर्षों में कपास की बुवाई क्षेत्र में गिरावट आई है। हालांकि 2021-22 की तुलना में 2022-23 में यह रकबा बढा है। 2018-19 में 26.60 लाख हेक्टेअर, 2019-20 में 26.55, 2020-21 में 22.70, 2021-22 में 22.84 और 2022-23 में 25.49 लाख हेक्टेअर क्षेत्र में कपास बोया गया। यानी पिछले 5 वर्षों में 1.11 लाख हेक्टेअर कपास के खेत कम हुए। जबकि 2018-19 से 2021-22 की तुलना करें तो 3.76 लाख हेक्टेअर में कपास नहीं बोया गया।
2021 वह वर्ष है, जब भरूच जिले के वागरा, अमोध, भरूच, जम्बूसर और कर्जन तालुका में केमिकल लीक से 280 गांवों के 18 हजार से अधिक किसान प्रभावित हुए थे। 1,14,568 हेक्टेअर में बोए गए कपास, अरहर समेत सब्जी व अन्य फसल में से 1,13,998 हेक्टेअर की फसल हवा में केमिकल मिलने से प्रभावित हुई। इसके अलावा बादाम, बबूल, नीम जैसे वृक्षों पर भी इस प्रदूषण का प्रभाव पड़ा।
2021 का केमिकल रिसाव
भरूच जिले के वागरा स्थित, कीटनाशक और खरपतवारनाशक केमिकल (2,4-D और 2, 4- DB) का उत्पादन करने वाली, औद्योगिक इकाई मेघमनि ऑर्गेनिक्स लिमिटेड ने जरूरी सावधानी नहीं बरती। उत्पादन के दौरान हुए उत्सर्जन से ये केमिकल हवा के बहाव के साथ फैल गया। हवा में इनकी मात्रा बढ़ने पर फसल समेत सभी वनस्पतियां प्रभावित हुईं। राज्य के किसानों के संगठन खेदुत समाज ने इस मामले में गुजरात हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की।
संस्था की भरूच जिला इकाई के महामंत्री और बोरी गांव के किसान कौशिक भाई पटेल भी प्रभावित किसानों में से एक हैं। वह बताते हैं, “मैं 10 एकड़ में कपास उगाता हूं। वर्ष 2017 से ही हमें कपास की फसल में खराबी दिखनी शुरू हो गई थी। 2021 में जब किसानों की फसल बड़े स्तर पर प्रभावित हुई, हमने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, स्थानीय प्रशासन समेत सभी संबंधित विभागों को सूचना दी। किसानों पर औद्योगिक प्रदूषण की ये बड़ी मार थी। हमें अभी तक इसका मुआवजा भी नहीं दिया गया है!”
किसान अब भी इस केमिकल रिसाव का असर महसूस करते हैं। कौशिक भाई कहते हैं “आज भी हम मूंग दाल उगाने की कोशिश करते हैं तो पूरा उत्पादन नहीं मिल पा रहा है। कंपनी ने इसका उत्पादन तो कम कर दिया है, जिससे हमारी फसलें अभी बची हुई हैं, लेकिन भविष्य के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाए गए तो यहां के खेतों में कपास देखने को नहीं मिलेगी। जहरीले रसायनों के कण हवा के साथ-साथ मिट्टी को भी खराब कर रहे हैं”।
औद्योगिक दबाव में खेती और युवा
भरूच जिले के वालिया तालुका के देशार गांव के किसान और गुजरात खेदुत समाज के पूर्व अध्यक्ष महेंद्र सिंह करमरिया कहते हैं “कपास, मूंग, अरहर, अरंडी, सागभाजी के खेतों की जगह अब औद्योगिक इकाइयां लेती जा रही हैं। मेरे परिवार का 50 एकड़ खेत है। मेरे गांव और आसपास के गांवों में प्रशासन के साथ प्रोजेक्ट लगाने वाले लोग घूमते हैं। उनके दफ्तर खुल रहे हैं। वे किसानों से सीधे बात नहीं करते। लेकिन हमें जानकारी है कि हमारे खेत लिग्नाइट खदान के लिए चिन्हित किए गए हैं।”
भरूच में केमिकल और पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री आने का किसानों पर क्या असर पड़ा? इस पर महेंद्र कहते हैं “किसानों को लगा था कि इस विकास में उनकी भी भागीदारी होगी, लेकिन इंडस्ट्री के बहाने किसानों पर हमला हुआ है। खेती की दुर्दशा और इसकी अहमियत घटाने से, युवाओं ने अपने खेत छोड़ दिए हैं। कड़ी मेहनत और लागत के साथ मौसम और प्रदूषण की मार से जुडी आशंकाओं के चलते हमारा परिवार भी नहीं चाहता कि अब हम खेती करें”।
आर्थिक तौर पर खेती यहां के किसानों के लिए मुनाफे का सौदा है और औद्योगिक कंपनियों की अस्थायी नौकरियां उसकी तुलना में बहुत कम आमदनी देती हैं। महेंद्र कहते हैं कि लगभग 50 एकड़ खेत से मेरी सालाना आमदनी करीब 20 लाख rupaye होती है। हालांकि लागत भी इसी अनुपात में है। फिर भी मेरे बेटे खेती नहीं करना चाहते। वे नौकरी के इच्छुक हैं।
कानून की पढाई कर रहे छात्र और युवा पर्यावरण कार्यकर्ता रिजवान मिर्जा कहते हैं “इस क्षेत्र के युवा पसोपेश में हैं। आईटीआई करके कंपनियों में मिलने वाली नौकरी में 10 से 20 हजार रुपए तक वेतन मिलता है। जबकि पारंपरिक व्यवसाय में आमदनी अच्छी है। लेकिन इससे जुडी परेशानियां भी हैं। इसलिए वे खुद को न तो इन कंपनियों की नौकरी के लिए तैयार कर पा रहे हैं, न ही किसान या मछुआरा बनना चाहते हैं”।
भरूच जिले में खेतों की जगह तेजी से औद्योगिक इकाइयां लेती जा रही हैं। वर्ष 1992-93 में 666 रजिस्टर्ड औद्योगिक इकाइयां थीं। वर्ष 2021 तक इनकी संख्या बढ़कर 11,500 हो गई। औद्योगिक विस्तार के साथ केमिकल, पेट्रोकेमिकल, टेक्सटाइल इंडस्ट्री यहां प्रमुख तौर पर विकसित हुई। इंडस्ट्री को बुनियादी सुविधाएं देने के लिए स्पेशल इकोनॉमिक जोन, दहेज पीसीपीआईआर और इंडस्ट्रियल स्टेट बन और बढ रहे हैं।
दांव पर पर्यावरण, परंपरागत पेशे और खाद्य सुरक्षा
दक्षिण गुजरात में किसानों और मछुआरों के मुद्दों पर कार्य कर रही संस्था सेंटर फॉर ब्रैकिश वाटर रिसर्च से जुडे एमएसएच शेख कहते हैं “दहेज पीसीपीआईआर में अभी सिर्फ 10 प्रतिशत तक ही इंडस्ट्री विकसित हुई है। पूरे क्षेत्र को इंडस्ट्री की जरूरत के आधार पर विकसित किया जा रहा है। स्पेशल इनवेस्टमेंट रीजन अधिनियम-2009 ( ये अधिनियम राज्य सरकार को किसी क्षेत्र को स्पेशल इनवेस्टमेंट रीजन बनाने की शक्ति देता है।) के तहत जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है। इस क्षेत्र का युवा अब इंडस्ट्री में मजदूर बनकर काम कर रहा है। पहले जब यहां इंडस्ट्री नहीं थी और प्रदूषण नहीं था तो उनका मछली का व्यवसाय और खेती बहुत अच्छी होती थी”।
इंडस्ट्री के लिए जमीन अधिग्रहण करने पर पर्याप्त मुआवजा न मिलने की शिकायत लेकर भरूच के कई किसान अदालत की शरण में भी हैं।
भरूच जिले में कई विदेशी औद्योगिक इकाइयां भी स्थापित हैं। एमएसएच शेख कहते हैं “हमारे देश में श्रम और पर्यावरण से जुड़े नियम बहुत ढीले हैं। इसलिए कई देशों से केमिकल प्लांट भरूच में स्थापित हो रहे हैं”।
इसकी पुष्टि वित्त वर्ष 2014-15 और 2021-22 के बीच बुनियादी प्रमुख पेट्रोकेमिकल उत्पाद जैसे सिंथेटिक फाइबर, पॉलीमर्स, सिंथेटिक रबर, सिंथेटिक डिटर्जेंट इंटरमीडिएट और परफॉर्मेंस प्लास्टिक की उत्पादन क्षमता, उत्पादन, आयात और निर्यात के आंकड़ों से होती है। 2014-15 में क्षमता 17,213 से बढ़कर 21,415 हो गई। जबकि उत्पादन 13,448 से बढ़कर 19,371 हो गया। इस अंतराल में आयात 5,080 से घटकर 4,597 और निर्यात 2,254 बढ़कर 2,505 हो गया। (ये आंकड़े हजार मीट्रिक टन में हैं।)
जो दर्शाता है कि हम अपने देश के पर्यावरण और परंपरागत आजीविका की कीमत पर दूसरे देशों की जरूरतें पूरी कर रहे हैं।
येल और कोलंबिया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा हर वर्ष जारी किया जाने वाले इनवायरमेंटल परफॉर्मेंस इंडेक्स में वर्ष 2022 में भारत को 180 देशों की सूची में आखिरी स्थान पर रखा गया। वायु प्रदूषण, जल और स्वच्छता से जुड़े मानक, जल स्रोतों की सेहत और प्रबंधन, दूषित जल के ट्रीटमेंट, पर्यावरण नियमों का पालन करने, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण, और सरकार की परफॉर्मेंस समेत कई अन्य पैरामीटर पर ये रैंकिंग तय की जाती है।
आखिरी स्थान पर रखे जाने पर कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए केंद्र सरकार ने इसकी कार्यप्रणाली अवैज्ञानिक और पक्षपातपूर्ण करार दी थी।
पर्यावरण मानकों का पालन करने और करवाने का तंत्र कितना मजबूत है इसका अंदाजा वर्ष 2021 में वागरा तालुका में हुए औद्योगिक वायु प्रदूषण मामले से भी लगाया जा सकता है। हाईकोर्ट में दाखिल याचिका में लिखा गया था कि कपास समेत अन्य फसल के नुकसान का निरीक्षण करने वाली विशेषज्ञ टीम ने क्षेत्र में अपने पिछले वर्षों के अध्ययन के आधार पर पाया कि वर्ष 2012 से हवा में 2-4-डी और 2-4-डीबी रसायन की मौजूदगी थी। जिससे फसल प्रभावित हो रही थी। गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को इसकी जांच करनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। जो ये स्पष्ट करता है कि बोर्ड इंडस्ट्री के हित के लिए काम कर रही है न कि सतत विकास के लिए।
याचिका में जीपीसीबी के इस विचार का भी उल्लेख किया गया कि किसानों ने जानबूझकर फसल खराब करने के लिए अपने खेतों में कीटनाशक और खरपतवार नाशक का इस्तेमाल किया। जबकि कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने अपनी जांच में पाया कि सिर्फ खेत ही नहीं, बादाम, बबूल, नीम समेत उस इलाके के कई पेड़ों की पत्तियां सिकुड़ कर सूख गईं। जीपीसीबी ने प्रदूषण फैलाने वाली इकाई को सिर्फ कारण बताओ नोटिस दिया। ऐसे नोटिस पहले भी कई मौकों पर दिये जा चुके हैं लेकिन वे प्रभावकारी नहीं होते।
महेंद्र करमरिया और कौशिक भाई समेत भरूच जिले के कई किसानों, मछुआरों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से बातचीत का निष्कर्ष ये है कि आधुनिक औद्योगिक ढांचे में किसान, मछुआरे और परंपरागत कार्य करने वाले खुद को बहुत अकेला और विवश महसूस कर रहे हैं।
भरूच में केमिकल और पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्रीज की विशाल, अत्याधुनिक, रोशन इमारतों को पारकर इन गांवों से गुजरते हुए लगता है कि हम सिर्फ समंदर में मछलियां और खेतों में फसल नहीं खो रहे हैं बल्कि समंदर में मछलियां पकड़ने वाले मछुआरे और खेतों में फसल उगाने वाले किसानों की पीढ़ी को भी खो रहे हैं। जो अपने पारंपरिक पेशे पर आए आधुनिक संकट के चलते परेशान होकर पीछे हट रही है। उनके साथ ही मछली पकड़ने की कला और खेत में मिट्टी, पानी और हवा के संतुलन की समझ रखने वाली खेती की कला भी छूट रही है। जो सिर्फ व्यावसायिक ही नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक संकट है। महेंद्र करमरिया जैसे सचेत किसानों को इस टेक्नोलॉजिकल दबाव और तनाव का सामना करना पड़ रहा है।
इसका असर खाद्य सुरक्षा पर स्पष्ट है। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान की गुजरात पर आई एक रिपोर्ट इसका खुलासा करती है। रिपोर्ट में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 और 2019-20 के आंकड़ों की तुलना से पता चलता है कि राज्य में 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों, गर्भवती और सामान्य महिलाओं में खून की कमी बढ़ी है। स्वास्थ्य से जुड़े अन्य इंडिकेटर में गुजरात की स्थिति, देश के औसत से ज्यादा गंभीर है।
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(वर्षा सिंह सेंटर फॉर फाइनेंशियल एकाउंटबिलिटी में रिसर्च फेलो हैं)