
जो नदियां कभी जीवनदायिनी हुआ करती थी, वो आज इंसानी लालच और लापरवाहियों की वजह से पारे से भरती जा रही हैं। इस पर प्रकाश डालने के लिए तुलाने विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं के नेतृत्व में वैज्ञानिकों ने दुनिया की नदियों में पारे की मात्रा पर एक नया अध्ययन किया है। इस अध्ययन से पता चला है कि औद्योगिक काल से पहले की तुलना में आज दुनिया की नदियों में पारे का स्तर दोगुने से भी ज्यादा हो गया है।
गौरतलब है कि पारा एक ऐसा धीमा जहर है जो न सिर्फ जलजीवों, बल्कि इंसानों के दिमाग तक को नुकसान पहुंचा रहा है।
अध्ययन के मुताबिक, 1850 से पहले नदियां हर साल करीब 390 मीट्रिक टन पारा समुद्रों तक पहुंचाती थी। लेकिन अब यह मात्रा बढ़कर सालाना करीब 1,000 मीट्रिक टन पर पहुंच गई है। वैज्ञानिकों ने यह आंकड़े नदियों में पारे की आवाजाही को समझने के लिए तैयार एक मॉडल के जरिए जुटाए हैं।
अमेरिका के तुलाने विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं के नेतृत्व में किए इस अध्ययन के नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल साइंस एडवांसेज में प्रकाशित हुए हैं।
अपने अध्ययन में शोधकर्ताओं ने MOSART-Hg नाम के एक खास कंप्यूटर मॉडल की मदद ली है। यह मॉडल औद्योगिक काल से पहले जमीन से नदियों के जरिए समुद्रों तक पहुंचने वाले पारे की मात्रा का आकलन करता है। इस मॉडल से मिले नतीजे दुनियाभर के तटीय इलाकों से लिए गए पुराने तलछट के नमूनों में मिले पारे के स्तर से काफी मेल खाते हैं, जोकि अध्ययन की सटीकता की पुष्टि करते हैं।
नदियों में क्यों बढ़ रहा पारा?
वैज्ञानिकों के मुताबिक इस बढ़ोतरी की मुख्य वजहें सीवेज और गंदे पानी का सीधे नदियों में छोड़ा जाना, मिट्टी का कटाव और उद्योगों व खनन से निकलने वाला पारा है।
तुलाने विश्वविद्यालय के अर्थ एंड एनवायरनमेंटल साइंसेज विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर यान्शू झांग के मुताबिक, "मानव गतिविधियों ने पारे के वैश्विक चक्र को पूरी तरह से बिगाड़ दिया है। पहले के शोधों में हवा, मिट्टी और समुद्र पर तो ध्यान दिया गया, लेकिन नदियों को नजरअंदाज कर दिया गया, जबकि वे अब पारे के बहाव की मुख्य धार बन चुकी हैं।"
इस अध्ययन के नतीजे इंसानों और वन्यजीवों दोनों के लिए गंभीर खतरे का संकेत देते हैं, क्योंकि पारे के यौगिक एक खतरनाक न्यूरोटॉक्सिन होते हैं। ये मछलियों में जमा हो सकते हैं, जिनके सेवन से इंसानों की सेहत को नुकसान पहुंच सकता है। शोधकर्ताओं ने अध्ययन में जानकारी दी है कि पूर्वी एशिया और उत्तरी अमेरिका जैसे क्षेत्रों में पक्षियों के प्रवास मार्गों के पास बहने वाली नदियों में पारे का स्तर तेजी से बढ़ा है जोकि बेहद चिंताजनक है।
शोधकर्ता झांग के मुताबिक औद्योगिक युग से पहले नदियों में पाए जाने वाले पारे के स्तर को एक आधार माना जा सकता है। उनके अनुसार, यह आंकड़ा मिनामाता कन्वेंशन जैसे अंतरराष्ट्रीय समझौतों के लिए लक्ष्य तय करने में मददगार हो सकता है, जिनका मकसद दुनियाभर में पारे के प्रदूषण को कम करना है।
दुनिया के किस हिस्से में सबसे ज्यादा बढ़ा प्रदूषण?
अध्ययन से पता चला है कि 1850 के बाद नदियों में पारे के प्रदूषण में सबसे तेज बढ़ोतरी उत्तर और दक्षिण अमेरिका में हुई है। आंकड़ों पर नजर डालें तो 1850 से अब तक दुनिया में जितना पारा बढ़ा है, उसका 41 फीसदी वहीं से आया है। इसके बाद दक्षिण-पूर्व एशिया में 22 फीसदी और दक्षिण एशिया 19 फीसदी के योगदान के साथ दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं।
अध्ययन में पाया गया कि दक्षिण अमेरिका, दक्षिण-पूर्व एशिया और अफ्रीका के कुछ हिस्सों में पारंपरिक और छोटे पैमाने पर किया जाने वाला सोने का खनन पारे के बढ़ते प्रदूषण की एक बड़ी वजह है। खासकर अमेजन क्षेत्र में जंगलों की कटाई से होने वाला मिट्टी कटाव और खनन गतिविधियों से निकला पारा, नदियों में पारे का स्तर तेजी से बढ़ा रहा है।
स्टडी से पता चला है कि अमेजन नदी में अब हर साल 200 मीट्रिक टन से ज्यादा पारा पहुंच रहा है, जिसमें से करीब 75 फीसदी के लिए इंसानी गतिविधियों जिम्मेवार हैं। इनमें भी सोने के हो रहे खनन की बड़ी भूमिका है।
वहीं पूर्वी एशिया जैसे क्षेत्रों में पारे के बढ़ते प्रदूषण की मुख्य वजह उद्योगों से निकलने वाला पारा है। खासकर चीन की नदियां इस क्षेत्र में 70 फीसदी से ज्यादा पारा ला रही हैं। यांग्त्ज़ी नदी में पारे का प्रवाह औद्योगिक काल से पहले के मुकाबले दोगुना से भी ज्यादा हो गया है।
हालांकि दुनिया के सभी क्षेत्रों में पारे का स्तर नहीं बढ़ा है। भूमध्यसागर क्षेत्र में औद्योगिक काल से पहले की तुलना में अब पारे की मात्रा कम पाई गई है। शोधकर्ताओं के अनुसार, इसकी वजह नील नदी पर अस्वान हाई डैम जैसे बड़े बांध हैं, जो पारे से भरी तलछट को रोक लेते हैं और उसे समुद्र तक नहीं जाने देते।
वैज्ञानिकों का मानना है कि नदियों में पारे का स्तर एक मापक बन सकता है। इससे यह तुरंत आंका जा सकता है कि पारे को रोकने के लिए देशों की कोशिशें कितनी असरदार हैं और प्रदूषित इलाकों को सुधारने में उन्हें कितनी कामयाबी मिल रही है।