आवरण कथा, जहरीली हवा का दंश, भाग-तीन: देश की दो-तिहाई आबादी प्रभावित

अधिकांश उत्तरी राज्यों में वायु प्रदूषण केवल एक मौसमी समस्या नहीं है, बल्कि पूरे साल यहां हवा खराब श्रेणी में रहती है
फोटो: जुंबिश
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भारत में वायु प्रदूषण से होने वाली बीमारियों के कारण बच्चों की सेहतभरी जिंदगी के साल लगातार कम होते जा रहे हैं। किसी भी आयु वर्ग के मुकाबले बच्चे इसके सबसे बड़े शिकार हैं। यह देश की आर्थिक और सामाजिक खुशहाली पर गहरी चोट कर रहा है। गर्भ में पल रहे बच्चे भी इससे अछूते नहीं हैं। जहरीली हवा के प्रभाव से न केवल जन्म के समय बच्चों में विकृतियां आ रही हैं, बल्कि इसके दीर्घकालिक असर ने उनका जीवन और भी कष्टमय बना दिया है। डाउन टू अर्थ ने हवा में बढ़ रहे इस जहर का बच्चों पर पड़ रहे प्रभाव की पड़ताल की। पहले भाग में आपने पढ़ा : गर्भ से ही हो जाती है संघर्ष की शुरुआत । दूसरे भाग में आपने पढ़ा : बच्चों पर भारी बीता नवंबर का महीना । आज पढ़ें अगली कड़ी -     


दिल्ली की तरह पूरे उत्तर भारत, जिसे गंगा का मैदानी क्षेत्र भी कहा जाता है, में हवा की गुणवत्ता खतरनाक स्तर पर पहुंच गई। इस वर्ष अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से इस क्षेत्र की वायु गुणवत्ता लगातार 20 दिनों से अधिक समय तक “बहुत खराब” और “गंभीर” स्तर पर बनी रही।

अधिकांश उत्तरी राज्यों में वायु प्रदूषण केवल एक मौसमी समस्या नहीं है, बल्कि पूरे साल यहां हवा “खराब” श्रेणी में रहती है। यह देश के लिए एक चिंताजनक स्वास्थ्य संकट है क्योंकि जनगणना, 2011 के अनुसार, भारत की लगभग 31 प्रतिशत आबादी 0-14 वर्ष के आयु वर्ग के बच्चों की है, जो कुल जनसंख्या का लगभग 10 प्रतिशत है।

वहीं गंगा के मैदानी क्षेत्र (पंजाब, हरियाणा, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम और बिहार) में 0-4 वर्ष की आयु वर्ग की देश की दो-तिहाई आबादी वायु प्रदूषण की दृष्टि से सबसे अधिक असुरक्षित है। इस क्षेत्र के लिए यह एक आपातकालीन स्थिति है (देखें, समय के साथ बढ़ा सांसों का संक्रमण,)।



बच्चे जिस हवा में सांस लेते हैं, उसमें मौजूद कई विषाक्त पदार्थों में से सबसे खतरनाक 2.5 माइक्रोमीटर (पीएम 2.5) वाले कण हैं जाे सांस के जरिए शरीर में पहुंच जाते हैं। वे लाल रक्त कोशिका से भी छोटे होते हैं। वे फेफड़ों में गहराई तक चले जाते हैं और आसानी से रक्तप्रवाह में पहुंच जाते हैं और इस प्रकार अपने सैकड़ों ज्ञात और अज्ञात प्रभावों से पूरे शरीर को प्रभावित करते हैं। दिल्ली स्थित गैर लाभकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के वैज्ञानिक मोहन पी जॉर्ज कहते हैं, “इंडो-गंगेटिक क्षेत्र में एक महीने का शिशु जिसका वजन 4 किलोग्राम है और वह एक मिनट में 40 चक्र सांस लेता है तो वह रोजाना 184 माइक्रोग्राम पीएम 2.5 ग्रहण करेगा।” यह गणना इलाके की हवा में पीएम 2.5 स्तर के 100 माइक्रोग्राम के वार्षिक औसत पर आधारित है।

गंगा के पूरे मैदानी क्षेत्र में डॉक्टर लगातार बढ़ते वायु प्रदूषण के स्तर के कारण बच्चों की बीमारियों में भारी वृद्धि की ओर इशारा कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, कोलकाता में हर दो में से एक बच्चा वायु प्रदूषण से उत्पन्न किसी न किसी प्रकार के श्वसन विकारों से पीड़ित है।

शहर में हाल ही में आयोजित इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स (आईएपी) के एक राष्ट्रीय सम्मेलन में पल्मोनोलॉजिस्टों (बाल रोग विशेषज्ञों) ने यह जानकारी दी। तीन दशकों से अधिक समय से कार्यरत बाल रोग विशेषज्ञ सुभमोय मुखर्जी ने बताया, “मैं शहर के उत्तरी क्षेत्र में बच्चों का इलाज करता हूं और दावे के साथ कह सकता हूं कि पिछले कुछ दशकों में रोगियों की संख्या कई गुना बढ़ गई है, लेकिन दीर्घकालिक और अल्पकालिक दोनों ही वास्तविक प्रभाव को बताना मुश्किल है क्योंकि आंकड़े अपर्याप्त हैं।”

एक अन्य प्रसिद्ध पल्मोनोलॉजिस्ट अरूप हलदर ने बताया कि बच्चों में पहली पीढ़ी के अस्थमा के मरीज बढ़ रहे हैं। विशेषकर सर्दियों में जब वायु प्रदूषण बढ़ता है तो श्वसन संबंधी समस्याएं बढ़ रही हैं। पहले अस्थमा के रोगियों के मामले में हम आमतौर पर पारिवारिक इतिहास देखते थे, लेकिन अब बिना पारिवारिक इतिहास के बच्चे भी प्रभावित हो रहे हैं। ऐसा लगता है कि वे वायु प्रदूषण की वजह से बीमार पड़ रहे हैं।

दीवाली के प्रदूषण से भी बच्चों की दिक्कत बढ़ रही हैं। इंस्टीट्यूट ऑफ चाइल्ड हेल्थ की प्रमुख अपूर्बा घोष कहते हैं कि दिवाली के मौके पर होने वाले प्रदूषण के कारण अस्पतालों में इलाज के लिए आने वाले बच्चों की संख्या 30 से 40 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। कोविड-19 की वजह से बच्चों के प्रतिरक्षा तंत्र (इम्यूनिटी) पर असर पड़ा है।

कोलकाता के बाल रोग विशेषज्ञ पल्लब चटर्जी ने कहा, “बच्चों पर वायु प्रदूषण का प्रभाव मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों रूप से बढ़ रहा है। न केवल उनके फेफड़े दम तोड़ रहे हैं, बल्कि लगभग सभी अंग, विशेष रूप से गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल मार्ग और त्वचा भी प्रभावित हो रही हैं।”

बच्चों का छोटा कद भी उन्हें प्रदूषण का अधिक शिकार बनाता है। चटर्जी कहते हैं कि छोटा कद होने के कारण बच्चे जमीन पर जमने वाले प्रदूषक तत्वों के संपर्क में ज्यादा आते हैं। उन्होंने बताया कि कण जितने छोटे होंगे, नुकसान उतना अधिक होगा, क्योंकि प्रदूषक फेफड़ों की गहरी दरारों में प्रवेश करते हैं और रक्त प्रवाह में भी मिल सकते हैं और हृदय के ऊतकों को भी प्रभावित कर सकते हैं।

इसी तरह बिहार के सरकारी अस्पतालों और निजी क्लीनिकों में सांस की बीमारी की वजह से बच्चों, खासकर शिशुओं की संख्या में वृद्धि हुई। इलाज करने वाले डॉक्टरों ने इसके लिए वायु प्रदूषण को जिम्मेदार बताया। पटना स्थित सरकार द्वारा संचालित नालंदा मेडिकल कॉलेज (एनएमसीएच) में बाल चिकित्सा विभाग के प्रोफेसर अतहर अंसारी ने कहा, “वायु प्रदूषण के कारण बच्चों में एलर्जी बढ़ रही है। हम बड़ी संख्या में बच्चों के स्वास्थ्य पर वायु प्रदूषण का प्रभाव देख रहे हैं, क्योंकि वे खराब वायु गुणवत्ता का सामना नहीं कर पा रहे हैं।”



वायु प्रदूषण की वजह से गर्भ में पल रहे बच्चे भी प्रभावित हो रहे हैं। पटना मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (पीएमसीएच) के स्त्री रोग विभाग के एक वरिष्ठ डॉक्टर ने अपना नाम न बताने की शर्त पर कहा, “हमारे सामने ऐसे कुछ मामले आए हैं जैसे नवजात बच्चे प्रसव के तुरंत बाद नहीं रोते हैं और वायु प्रदूषण के प्रभाव के कारण उनके अति सक्रिय वायु मार्गों में ऑक्सीजन की कमी के कारण उन्हें सांस लेने में कठिनाई होती है।” हालांकि मुजफ्फरपुर स्थित श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के अधीक्षक बीएस झा ने कहा कि गर्भवती माताओं और नवजात बच्चों पर वायु प्रदूषण के प्रभाव के बारे में कोई डेटा उपलब्ध नहीं है।

देश के 10 सबसे प्रदूषित शहरों में से 7 सिन्धु-गंगा क्षेत्र के हैं। गैर-लाभकारी संस्था क्लाइमेट ट्रेंड्स के एक अध्ययन में उत्तर प्रदेश को गंभीर रूप से प्रदूषित राज्य बताया गया है, जहां राज्य की 99.4 प्रतिशत आबादी गंभीर वायु प्रदूषण वाले भौगोलिक क्षेत्रों में रहती है। 2018 में गैर-लाभकारी संस्था क्लाइमेट एजेंडा ने उत्तर प्रदेश के 14 जिलों का अध्ययन किया और वायु प्रदूषण पर “एयर किल्स” नाम से एक रिपोर्ट जारी की।

पेपर में पाया गया कि गोरखपुर और मऊ जैसे छोटे शहर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और यूपी की राजधानी लखनऊ से भी अधिक प्रदूषित हैं। इसमें कहा गया है कि वायु प्रदूषण से ग्रामीण क्षेत्र भी प्रभावित हैं और पूरा राज्य “स्वास्थ्य आपातकाल” का सामना कर रहा है। बाबा राघव दास (बीआरडी) मेडिकल कॉलेज, गोरखपुर में स्त्री रोग विभाग के पूर्व अध्यक्ष सुधीर गुप्ता कहते हैं कि प्रदूषण के कारण गर्भवती महिलाओं को पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिल पाती, जो भ्रूण के प्राकृतिक विकास को प्रभावित करती है।

इसके अलावा वायु प्रदूषण में सल्फर की मात्रा जितनी अधिक होगी, गर्भपात का खतरा उतना ही अधिक होगा। बीआरडी मेडिकल कॉलेज के बाल रोग विभाग के अध्यक्ष भूपेन्द्र शर्मा कहते हैं कि वायु प्रदूषण के कारण गर्भवती महिलाओं में अनीमिया भी हो सकता है, जिससे स्वस्थ बच्चे को जन्म देने की संभावना कम हो जाती है।

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