किसान क्यों जलाता है पराली, क्या है स्थायी समाधान?

वायु प्रदूषण को रोकने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा अब तक किए गए सभी प्रयास न केवल अव्यावहारिक हैं, बल्कि असफल भी साबित रहे हैं
हरियाणा व पंजाब में पराली जलाने की घटना बढ़ रही हैं। फाइल फोटो: विकास चौधरी
हरियाणा व पंजाब में पराली जलाने की घटना बढ़ रही हैं। फाइल फोटो: विकास चौधरी
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हर वर्ष की तरह इस बार फिर 31अक्टूबर 2023 को दिल्ली-एनसीआर मे गंभीर वायु प्रदूषण पर सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान से वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए राज्यों द्वारा उठाए गए कदमों पर हलफनामा दाखिल करने को कहा।

राजधानी क्षेत्र दिल्ली और साथ लगते प्रदेशों मे गंभीर वायु प्रदूषण से सर्दी के मौसम का आगमन पर 10 करोड़ से ज्यादा आबादी के लिए सांसो का संकट बन ज़ाता है। जिसका मुख्य कारण तो देश की आजादी के बाद राजधानी क्षेत्र मे, अव्यवस्थित शहरीकरण, उद्योग और वाहनो का घनत्व ज्यादा होना है। इन्ही कारणो से, बिना पराली जलाये होने वाले प्रदूषण भी देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई मे भी वायु प्रदूषण राजधानी क्षेत्र दिल्ली के बराबर ही गंभीर बना रहता है।

लेकिन राजधानी क्षेत्र दिल्ली मे पहले से मौजुदा वायु प्रदूषण को अक्टूबर- नवम्बर महीने में मॉनसून वापसी से हूए मौसम बदलाव से वायु गति कम होने और हिमालय से आने वाली सर्द हवा से तापमान कम होने से और ज्यादा गंभीर बना देती है, जिसके कारण वायु प्रदूषण वायु मंडल की ऊपरी परत मे फैलने की बजाय धरातल के साथ लगती वायु मंडलीय परत मे जमा हो जाता है।

दूर्भाग्य से इसी समय, देश के उत्तर पश्चिम राज्यो मे धान फसल की कटाई होने और फसल अवशेष जलाने से, यह गंभीर वायु प्रदूषण, बहुत बडी आबादी के लिए गंभीर प्राण संकट बन जाता है।

किसान धान पराली क्यों जलाता है?

देश में सबसे ज्यादा उपजाऊ और सिचित उत्तर पश्चिम भारतीय मैदानी क्षेत्र मे हरित क्रांति दौर मे (1967- 1975) राष्ट्रिय नीतिकारो द्वारा प्रायोजित धान-गेहूं फसल चक्र ने पिछले पांच दशको से राष्ट्रिय खाध्य सुरक्षा और लगभग एक लाख करोड रूपये वार्षिक निर्यात को तो सुनिश्चित गया, लेकिन गंभीर भूजल बर्बादी, पर्यावरण प्रदूषण जैसी समस्या को बढ़ाया।

सरकार द्वारा फसल विविधिकरण के सभी प्रयासों के बावजूद धान-गेहूं फसल चक्र पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश आदि प्रदेशो मे लगभग 70 लाख हेक्टेेयर भूमि पर अपनाया जा रहा है, क्योंकि इन क्षेत्रो मे मौसम अनुकुलता और आर्थिक तौर पर गन्ने की खेती के अलावा धान - गेहूं फसल चक्र ही किसानोंं के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद है। (स्रोत: कृषि लागत एवं मूल्य आयोग-गन्ने की मूल्य नीति- चीनी मौसम -2023-24 रिपोर्ट, पेज -76).

उत्तर पश्चिम भारत के प्रदेशो मे धान-गेहूं फसल चक्र मे लगभग 40 किवंटल फसल अवशेष प्रति एकड़ पैदा होते है। जिसमे से आधे फसल अवशेष 20 किवंटल प्रति एकड़ यानि गेहूं के भुसे का प्रबंधन किसानों के लिए कोई खास समस्या नही है। क्योंकि पशु चारे के रुप मे गेहूं का भूसा फायदेमन्द होने और अगली फसल की बुआई की तैयारी मे काफी समय (50-60 दिन) मिलने के कारण, किसान गेहूं भूसे का प्रबंधन आसानी से कर लेते है।

लेकिन बाकी बची आधी फसल के अवशेष यानि धान पराली का प्रबंधन किसानों के लिए वर्षो से गंभीर समस्या बनी हुई है। क्योंकि धान की पराली आमतौर पशु चारे के लिए उपयोगी नही होने और अगली फसल की बुआई की तैयारी मे मात्र 20 दिन से कम समय मिलने के कारण, धान की कटाई के बाद पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों में बड़ी मात्रा में किसान पराली जलाते हैं।

इससे अक्टूबर-नवम्बर महीने मे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सहित जम्मु से कोलकता तक के बहुत बड़े क्षेत्र में वायु प्रदूषण की गंभीर समस्या पैदा होती है. जिस के कारण, पर्यावरण को नुकसान तो पहुंचता ही है, मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी प्रभावित होती है।

पराली प्रदूषण पर सरकारी प्रयास अव्यावहारिक और असफल

वर्षो से राजधानी क्षेत्र दिल्ली मे मौजुदा वायु प्रदूषण को रोकने के लिए किये जा रहे सरकारी प्रयास अव्यावहारिक और असफल रहे है। पराली जलाने की घटनाओं को रोकने के लिए पिछले कुछ वर्षों से प्रदेश सरकारें/वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग, किसानों पर जूर्माना लगाने, बायों-डीकंपोजर से पराली गलाने, पराली से बायोईथनोल व बिजली बनाने जैसे अव्यावहारिक प्रयास कर रही हैं. ज़िनके अभी तक कोई सार्थक परिणाम देखने को नही मिले है।

पूसा डीकंपोजर के प्रायोजक पूसा संस्थान का मानना है कि डीकंपोजर घोल के छिडकाव से 25 दिन बाद पराली कुछ नरम तो होती है, लेकिन इसे पूर्णयता गलने के लिए सात सप्ताह (50 दिन) का समय चाहिए और बायों- डीकंपोजर कभी भी मशिनीकरण द्वारा पराली प्रबंधन का विकल्प नही बन सकता है।

वही पंजाब कृषि विश्वविधालय द्वारा किये गये अनुसंधान बताते है कि बायोडीकंपोजर छिडकाव से कोई खास लाभ नही है। जबकि धान कटाई के बाद गहरी जुताई द्वारा पराली को भूमि मे दबाने और खेत मे समुचित नमी बनाए रखने से, बिना बायों-डीकंपोजर छिडकाव भी पराली 7 सप्ताह मे ही गल जाती है। (अंतराष्ट्रीय जर्नल ऑफ़ रिसाईक्लिंग ऑफ़ औरगनिक वेस्ट , 13 नवम्बर 2022 संस्करण). .

पराली को भूमि मे दबाना है पर्यावरण हितेषी स्थाई समाधान

धान पराली व फसल अवशेष प्रबंधन पर सभी अनुसंधान और तकनीकी रिपोर्ट इस बात पर एकमत है कि मशीनीकरण द्वारा फसल अवशेषों को खेत से बाहर निकाल कर उद्योगों आदि में उपयोग करना इसका सर्वोतम समाधान है जैसा कि अमेरिका आदि देशों में वर्षों से हो रहा है। लेकिन भारत में भूमि की छोटी जोत होने से किसानोंं के लिए भारी मशीन ख़रीदना सम्भव नहीं है। ऐसे हालत में धान कटाई के बाद पराली को भूमि में मिलना ही व्यावहारिक समाधान बनता है।

लेकिन यह तभी सम्भव हो सकेगा जब पराली को भूमि के अन्दर दबाने और गलने के लिए 45-50 दिन समय मिलेंगा। जिसके लिए कृषि वैज्ञानिकों और राष्ट्रीय नीतिकारों को उत्तर पश्चिम भारत के लिए, धान की खेती के लिए किसान और पर्यावरण हितेषी नयी तकनीक और बुआई कलेंडर आदि विकसित करने होंगे। पराली प्रदूषण और भूजल बर्बादी रोकने के लिए धान की सीधी बिजाई पद्धति मे कम अवधि वाली किस्मे एक सस्ता और कारगर उपाय है।

धान फसल की कटाई और रबी फसलो गेहूं , सरसो , आलू आदि की बुआई की तैयारी मे कम समय मिलने के कारण ही किसान मजबुरन धान पराली को जलाते है। जिसके लिए राष्ट्रिय नीतिकारो को पराली प्रदूषण और भूजल बर्बादी रोकने के लिए धान की सीधी बिजाई पद्धति मे कम अवधि वाली धान किस्मो ( पी.आर.-126 , पी. बी.-1509 आदि) को प्रोत्साहन एक कारगर उपाय साबित होगा और लम्बी अवधि की किसमो पुसा-44 आदि पर कानूनी प्रतिबंध ज़रुरी है।

इसमे धान फसल की बुआई 20 मई से शुरू हो कर, फसल की कटाई 30 सितम्बर तक पूरी हो जाती है। उलेखनीय है कि रोपाई पद्धती के मुकाबले सीधी बिजाई मे धान की सभी किस्मे 10 दिन जल्दी पक कर तैयार हो जाती है। जिस कारण गेहूं फसल बुआई से पहले किसान को लगभग 45-50 दिन का समय धान पराली व फसल अवशेष प्रबंधन के लिए मिलता है। 

इसका सदुपयोग करके, किसान गेहूं - धान फसल चक्र मे हरी खाद के लिए ढ़ेंचा, मुँग आदि फसल भी उगा सकते है। ज़िससे पराली जलाने से पैदा होने वाले पर्यावरण प्रदूषण मे कमी आयेंगी, भूमि की ऊर्वरा शक्ती बनाए रखने मे मदद मिलेंगी और रसायनिक उर्वरको पर निर्भरता भी कम होगी।

सरकार इन प्रदेशो मे अगर धान की सरकारी खरीद की समय सारणी 15 सितम्बर से 10 अक्टूबर तक का समय निश्चित करे, तो किसान स्वयं धान की सीधी बिजाई पद्धति मे कम अवधि वाली धान किस्मो को ही अपनायेंगे। इससे लगभग एक तिहाई भूजल, ऊर्जा ( बिजली- डीजल- मजदूरी) और खेती लागत मे बचत के साथ पर्यावरण प्रदूषण भी कम होगा।

इस वर्ष खरीफ 2023 सीजन मे, हरियाणा सरकार द्वारा धान की सीधी बिजाई को प्रोत्साहन योजना के सकारतमक नतीजे के कारण, प्रदेश के किसानों ने तीन लाख एकड़ से ज्यादा भूमि पर धान की सीधी बिजाई विधि को अपनाया. ज़िसके परिणाम स्वरूप 30 सितम्बर 2023 तक प्रदेश की मंडीयो मे आठ लाख टन धान बिकने के लिए आया. जो पर्यावरण हितेषी धान की सीधी बिजाई विधि मे किसानों के विश्वास को दर्शाता है ।

पिछले 3 वर्षो मे पंजाब-हरियाणा राज्यो मे एक करोड एकड़ भूमि पर उगाई जा रही मोटे धान की पराली के प्रबंधन के लिये, केन्द्र सरकार ने 7,000 करोड रूपये अनुदान दिये, लेकिन, तथाकाथित कम पराली जलने की घटनाओ के, वायु प्रदूषण मे कोई सुधार नही हुआ। कारण कि राज्य सरकारे अव्यवहारिक समाधान (बायो- ड़ीक्मपोजर , पराली को खेत से बाहर निकालने व बायोईथनोल और बिजली बनाने के लिए ) के लिए बेकार महंगी माशिने किसानों की खरीदवाती रही।

जबकि पराली को गहरी जुताई द्वारा खेत मे दबाना है पर्यावरण हितेषी स्थाई समाधान। जिसके लिए किसान को मोलड बोलड हल की ज़रूरत होती है जो 50 होर्स पावर ट्रेक्टर से चलता है जिसे आम व छोटी जोत वाला किसान नही खरीद सकता है ।

इन प्रदेशो मे लगभग 90 प्रतिशत धान की कटाई व गहाई कमबाईन हारवेस्टर मशीनो द्वारा किराये पर होती है। सरकार कानुन बनाकर, पराली को भूमि मे दबाने की जिम्मेवारी भी कमबाईन हारवेस्टर मालिक की निश्चित करे। इसके सरकार प्रदेश मे कमबाईन हार्वेस्टर मशीनो वालो को 2,000 रूपये प्रति एकड़ प्रोत्साहन राशी देकर, पराली को भूमि मे दबाने की कानुनी ज़िम्मेवारी लगाये।

(डा. वीरेन्द्र सिह लाठर भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नयी दिल्ली के पूर्व प्रधान वैज्ञानिक हैं। लेख में व्यक्त उनके निजी विचार हैं)

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