भोपाल त्रासदी एक ऐसी भूल, जिसका सजा दशकों से पीड़ित झेल रहे हैं। एक ऐसी त्रासदी, जिसने हजारों जिंदगियां लील ली। वहीं जो जिन्दा बच गए वो दशकों से इस जहर के साए में जीने को मजबूर हैं। साल बदलें सरकारें बदली, लेकिन एक बात जो अब तक नहीं बदली, वो है इन पीड़ितों का दर्द।
इस आपदा का जहर न केवल उन पीड़ितों बल्कि उनकी आने वाली पीढ़ियों की नसों में भी दौड़ रहा है। इस बारे में किए एक नए अध्ययन से पता चला है कि इस त्रासदी के दौरान जो बच्चे पैदा हुए थे उनमें कैंसर का जोखिम आठ गुणा तक ज्यादा है। इतना ही नहीं जो गर्भवती माएं उस समय दुर्घटना क्षेत्र के आसपास थी, उनके बच्चों के विकलांग होने का जोखिम अन्य की तुलना में कहीं ज्यादा है।
दिसंबर 1984 में हुई भोपाल त्रासदी, औद्योगिक आपदाओं का एक ऐसा ज्वलंत उदाहरण है जिसे न केवल भारत बल्कि दुनिया सदियों तक नहीं भूल पाएगी। इसके व्यापक प्रभावों को देखते हुए इस त्रासदी पर अनगिनत अध्ययन किए गए हैं। लेकिन हर बार अध्ययन में इस त्रासदी को लेकर चिंताएं और बढ़ जाती हैं।
आने वाली पीढ़ियों पर इस तरह की आपदाओं का क्या असर पड़ता है। इसे समझने के लिए यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, सैन डिएगो के शोधकर्ताओं ने एक नया अध्ययन किया है, जिसके नतीजे ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुए हैं।
अध्ययन से पता चला है कि इस त्रासदी ने, न केवल मौजूदा पीढ़ी पर असर डाला बल्कि इसकी वजह से आने वाली पीढ़ियों में भी कैंसर जैसी बीमारियों और अक्षम होने का जोखिम बढ़ गया था। जो स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि इस तरह की आपदाओं का असर एक-दो साल नहीं बल्कि लम्बे समय रहता है।
त्रासदी की वह भयानक रात
गौरतलब है कि इस त्रासदी के दौरान कीटनाशक संयंत्र से मिथाइल आइसोसाइनेट नामक जहरीली गैस का रिसाव हुआ था, जो देखते ही देखते सात किलोमीटर के दायरे में फैल गई थी। यूनियन कार्बाइड से निकलने वाली जहरीली गैस ने पूरे शहर को तबाह कर दिया। इसने भोपाल में पांच लाख से ज्यादा लोगों को अपनी चपेट में ले लिया था। अनुमान है कि इसकी वजह से 20,000 से ज्यादा लोग मारे गए थे। इतना ही नहीं जो जीवित बच गए उनपर भी इसने गंभीर प्रभाव डाला था।
रिसर्च के मुताबिक इस आपदा ने कहीं अधिक व्यापक क्षेत्र में लोगों को प्रभावित किया था। इस बारे में अध्ययन में शामिल शोधकर्ता प्रशांत भारद्वाज ने जानकारी दी है कि इस त्रासदी ने जीवित बचे लाखों लोगों के स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक गंभीर प्रभाव डाले थे। जिनमें सांस सम्बन्धी बीमारियों से लेकर कैंसर तक शामिल हैं।
वहीं रिसर्च से जुड़े अन्य शोधकर्ता और यूसी सैन डिएगो के स्कूल ऑफ ग्लोबल पॉलिसी एंड स्ट्रैटेजी में एसोसिएट टीचिंग प्रोफेसर गॉर्डन मैककॉर्ड का कहना है कि वो बच्चे जो भोपाल गैस त्रासदी के समय गर्भ में थे। उनमें आगे चलकर कैंसर और विकलांग होने का जोखिम कहीं ज्यादा था। उनके मुताबिक इस त्रासदी ने कहीं अधिक व्यापक क्षेत्र में लोगों को प्रभावित किया था।
रिसर्च में पिछले अध्ययनों का हवाला देते हुए बताया है कि गैस रिसाव के बाद गर्भपात की दर में चार गुना वृद्धि हो गई थी। साथ ही मृत जन्म और नवजात मृत्यु दर का जोखिम भी बढ़ गया था। साथ ही महिलाओं के स्वास्थ्य पर भी इसके गंभीर प्रभाव पड़े थे। जो पीढ़ियां इस गैस के सीधे संपर्क में नहीं आई थी उनके स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़े थे। इसके साथ ही उन्हें सामाजिक प्रभावों का भी सामना करना पड़ा है।
अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने स्वास्थ्य और शिक्षा से जुड़े सरकारी आंकड़ों का विश्लेषण किया है, इसमें नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़े शामिल थे। इनकी मदद से शोधकर्ताओं ने इस त्रासदी के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दीर्घकालिक प्रभावों और उन बच्चों शिक्षा पर पड़े असर को जानने का प्रयास किया है, जो इस आपदा के समय या उसके तुरंत बाद पैदा हुए थे।
शोधकर्ताओं ने 2015-16 में मध्य प्रदेश में रहने वाले 15 से 49 वर्ष की आयु के 47,817 लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया है साथ ही इसमें 1960 से 1990 के बीच पैदा हुए 13,369 पुरुषों के सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों का भी विश्लेषण किया है। इन आंकड़ों में वो 1,260 लोग भी शामिल थे जो 1981 से 1985 के बीच भोपाल के 250 किलोमीटर के दायरे में पैदा हुए थे।
चार गुना बढ़ गई थी गर्भपात की दर
इन पर पड़े प्रभावों के बारे में अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता और यूसी सैन डिएगो के डिपार्टमेंट ऑफ मेडिसिन एंड एजुकेशन स्टडीज में प्रोफेसर अनीता राज का कहना है कि निष्कर्षों से पता चला है कि जो बच्चे गैस रिसाव के समय गर्भ में थे और जिनकी माएं इस त्रासदी के समय भोपाल के करीब रहती थी, उनके विकलांग होने की आशंका कहीं अधिक थी।
जो त्रासदी के 15 वर्ष बाद भी उनके रोजगार को प्रभावित कर रही थी। इसी तरह इन बच्चों में कैंसर का जोखिम भी आपदा क्षेत्र से दूर रहने वाले बच्चों की तुलना में आठ गुणा ज्यादा था। इतना ही नहीं इन पुरुषों में 30 वर्ष बाद भी शिक्षा का स्तर कम था।
रिसर्च में शोधकर्ताओं ने 1985 में पैदा हुए बच्चों के लिंगानुपात में भी बदलाव देखा है, जो दुर्घटना से 100 किलोमीटर तक घटना के प्रभाव को इंगित करता है। रिसर्च के मुताबिक भोपाल के 100 किलोमीटर के दायरे में उस दौरान पुरुषों का लिंगानुपात घट गया था। आंकड़े दर्शाते हैं कि 1981 से 1984 तक पैदा हुए बच्चों में 64 फीसदी पुरुष थे जबकि 1985 में यह आंकड़ा घटकर 60 फीसदी रह गया था।
वहीं जो महिलाएं इस त्रासदी के 100 किलोमीटर के दायरे से बाहर थी उनके लिंगानुपात में कोई अंतर नहीं देखा गया।
शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि भोपाल त्रासदी के प्रभाव इसके तुरंत बाद हुई मौतों और बीमारियों से परे हैं। इसके दंश ने आने वाली पीढ़ियों को भी प्रभावित किया था। ऐसे में इससे जुड़ी नीतियों के निर्माण के लिए इन दीर्घकालिक प्रभावों को मापना और समझना बेहद जरूरी है।
इस अध्ययन में जो सबूत सामने आए हैं वो स्वास्थ्य और इंसानी विकास पर भोपाल त्रासदी के पीढ़ी दर पीढ़ी पड़ने वाले प्रभावों को उजागर करते हैं। साथ ही इस बात की जरूरत पर भी बल देते हैं कि उनकों निरंतर समर्थन की जरूरत है। साथ ही ऐसी घटनाएं भविष्य में न घटें इन्हें रोकने के लिए मजबूत नियामक उपायों की आवश्यकता है।