भारत में वायु प्रदूषण एक बड़ी समस्या है जिसके लिए अनेक कारण जिम्मेवार हैं। इनमें से एक कारण पराली भी है। पता चला है कि देश में फसलों के बचे अवशेषों को जलाने से न केवल वायु गुणवत्ता खराब हो रही है, साथ थी इसकी कीमत इंसानी जीवन के रुप में भी चुकानी पड़ रही है।
इस बारे अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) के शोधकर्ताओं द्वारा किए नए अध्ययन से पता चला है कि देश में पराली और अन्य फसल अवशेषों को जलाने के कारण होते वायु प्रदूषण के चलते हर साल औसतन 44,000 से 98,000 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ रहा है।
यदि आंकड़ों पर गौर करें तो देश में पराली जलाने से होने वाले प्रदूषण के 67 से 90 फीसदी हिस्से के लिए केवल तीन राज्य पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश जिम्मेवार हैं। इस बारे में जर्नल नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित नए अध्ययन से पता चला है कि भारत में सालाना करीब 50 करोड़ मीट्रिक टन फसल अवशेष बच जाता है, जिनमें से 10 मीट्रिक टन को खुले में जला दिया जाता है। बड़ी मात्रा में जलाई जा रही यह पराली और अन्य फसल अवशेष भारी मात्रा में प्रदूषण भी पैदा करता है।
इतना ही नहीं रिसर्च से यह भी पता चला है कि फसल अवशेष जलाने से भारत की वार्षिक वायु गुणवत्ता पर जो प्रभाव पड़ रहा है, उसके 40 फीसदी के लिए पंजाब के छह जिले बरनाला, संगरूर, पटियाला, मोगा, लुधियाना और फतेहगढ़ साहिब जिम्मेवार हैं।
यह प्रदूषण देश में 27,000 मौतों के लिए जिम्मेवार है, जिसकी वजह से करीब 73,700 करोड़ रुपए के बराबर आर्थिक नुकसान हो रहा है। अकेले पटियाला और संगरूर इसमें 20 फीसदी का योगदान दे रहे हैं। ऐसे में इन जिलों में पराली और अन्य फसल अवशेषों को जलाने पर विशेष रूप से ध्यान देना जरूरी है।
अपनी इस नई रिसर्च में वैज्ञानिकों ने भारत में 2003 से 2019 के बीच फसल अवशेषों को जलाने की घटनाओं, उनके स्थान, स्वास्थ्य पर पड़ते प्रभाव और उससे होते आर्थिक नुकसान का विश्लेषण किया है। अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पराली से होने वाले प्रदूषण को जानने के लिए ग्लोबल फायर एमिशन डेटाबेस के साथ देश में जिला स्तर पर फसलों के उत्पादन से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण किया है। जिससे यह समझा जा सके किसी एक स्थान पर, वर्ष के किसी विशिष्ट समय समय में अवशेषों को जलाने से भारत की वायु गुणवत्ता में कैसे बदलाव आया है।
इस डेटा को स्वास्थ्य और आर्थिक प्रभाव से संबधित मॉडल की मदद से जोड़कर यह अनुमान लगाया गया है कि अवशेष जलाने की कौन घटनाएं, किन स्थानों पर किस समय आबादी को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रही थी और उनसे मृत्यु दर और आर्थिक नुकसान में कब सबसे ज्यादा वृद्धि होती है।
गौरतलब है कि नवंबर में गेहूं की बुवाई के लिए, आमतौर पर पंजाब में किसान अक्टूबर में काटी गई धान की फसल के बचे हुए ठूंठ या पुआल को जला देते हैं। यह जलता अवशेष हवा को कार्बन मोनोऑक्साइड, ओजोन, और पीएम 2.5 से भर देता है, जिसके चलते मीलों तक सांस लेना दुश्वार हो जाता है।
यह एक ऐसी घटना है जो हर साल पंजाब, हरियाणा और उत्तर पश्चिमी भारत के 20 लाख खेतों में दोहराई जाती है। इसके चलते स्वास्थ्य सम्बन्धी जोखिम बढ़ जाता है। विशेष रूप से सांस और ह्रदय रोग से जुड़ी समस्याएं पैदा हो जाती हैं। जो देश में हजारों लोगों की असमय मृत्यु का कारण बनती हैं।
इतना ही नहीं शोध से यह भी पता चला है कि पराली जलाने से होता यह पीएम 2.5 प्रदूषण न केवल भारत में बल्कि उत्तर-पश्चिमी हवाओं द्वारा ले जाए जाने के कारण पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश सहित पूरे दक्षिण एशिया में वायु गुणवत्ता को प्रभावित करता है।
देखा जाए तो देश में इसे रोकने के लिए राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर बड़े पैमाने पर नियम बनाए गए हैं लेकिन वो कागजी शेर बन के रह गए हैं। यही वजह है कि देश के इस हिस्से में पराली जलाने की घटनाएं बदस्तूर जारी है। इसके लिए कहीं हद तक चावल और गेहूं के अवशेषों का सीमित आर्थिक मूल्य भी जिम्मेवार है। ऊपर से चारे के रूप में पराली का घटता उपयोग, बायोफ्यूल, उर्वरक और पेपर निर्माण में इनका सीमित उपयोग भी इनको जलाने की बढ़ती घटनाओं के लिए जिम्मेवार हैं।
किसानों के पास अन्य समाधान न होने के कारण पराली को जलाना एक सस्ता और जल्द विकल्प है। जो इस तरह की घटनाओं को बढ़ावा दे रहा है। गौरतलब है कि इसको जलाने पर राष्ट्रीय प्रतिबंध पिछले साल किसानों के दबाव के कारण रद्द कर दिया गया था।
क्या है समाधान
लेकिन इस नए अध्ययन में सामने आया है कि कैसे छोटे पैमाने पर की गई लक्षित कार्रवाई पूरी आबादी पर मंडराते वायु प्रदूषण और स्वास्थ्य संबंधी जोखिम को कम कर सकती है। रिसर्च में इस समस्या के लिए जो समाधान प्रस्तुत किए हैं उनके अनुसार यदि पंजाब में किसान दिन में दो घंटे पहले फसल अवशेषों को जलाते हैं, तो वे वायु गुणवत्ता पर इसके प्रभावों का 14 फीसदी तक कम कर सकते है।
इतना ही नहीं इससे हर साल करीब 9,600 लोगों की जान बचाई जा सकती है। मतलब की इससे करीब 26,205 करोड़ रुपए (320 करोड़ डॉलर) का आर्थिक फायदा होगा।
साथ ही किसान भाई बासमती जैसी धान की किस्मों को अपनाकर, इसमें और कमी कर सकते हैं। जिनके लिए कम अवशेषों को जलाने की आवश्यकता होती है। ऐसे में इस तरह की लक्षित कार्रवाइयों से काफी फायदा मिल सकता है। यह देखते हुए कि पंजाब छह जिलों का इसमें बहुत बड़ा योगदान है यदि इन उपायों को कुछ क्षेत्रों में अपनाया जाए तो उससे काफी फायदा मिल सकता है।
इस बारे में अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता और एमआईटी से जुड़े वैज्ञानिक सेबेस्टियन ईथम का कहना है कि लक्षित और संभावित रूप से सस्ते उपाय पराली जलाने से स्वास्थ्य पर पड़ते प्रभावों को कम करने में महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं।