भारत में वायु प्रदूषण से होने वाली बीमारियों के कारण बच्चों की सेहतभरी जिंदगी के साल लगातार कम होते जा रहे हैं। किसी भी आयु वर्ग के मुकाबले बच्चे इसके सबसे बड़े शिकार हैं। यह देश की आर्थिक और सामाजिक खुशहाली पर गहरी चोट कर रहा है। गर्भ में पल रहे बच्चे भी इससे अछूते नहीं हैं। जहरीली हवा के प्रभाव से न केवल जन्म के समय बच्चों में विकृतियां आ रही हैं, बल्कि इसके दीर्घकालिक असर ने उनका जीवन और भी कष्टमय बना दिया है। डाउन टू अर्थ ने हवा में बढ़ रहे इस जहर का बच्चों पर पड़ रहे प्रभाव की पड़ताल की। पहले भाग में आपने पढ़ा : गर्भ से ही हो जाती है संघर्ष की शुरुआत । दूसरे भाग में आपने पढ़ा : बच्चों पर भारी बीता नवंबर का महीना । इसके बाद की कड़ी में आपने पढ़ा - देश की दो-तिहाई आबादी प्रभावित । चौथे भाग में आपने पढ़ा - प्रजनन से लेकर गर्भ में पल रहे बच्चे की दुश्मन बनी हवा । आज पढ़ें अंतिम कड़ी :
इन सब दिक्कतों के बावजूद एक बड़ी दिक्कत आंकड़ों को लेकर है। इनसे संबंधित पर्याप्त व ठोस आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, जिससे यह साबित हो सके कि देश की भावी पीढ़ी के भविष्य और बढ़ते वायु प्रदूषण के बीच कोई संबंध है या नहीं। भारत के पास बच्चों में कैंसर के दीर्घकालिक आंकड़े हैं। ऐसे कुछ सबूत भी हैं, जो बढ़ते कैंसर के मामलों को वायु प्रदूषण से जोड़ते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से यह काफी पेचीदा है। राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री कार्यक्रम द्वारा नवीनतम उपलब्ध आंकड़े 2012 से 2016 तक हैं। यह आंकड़ा दिखाता है कि विभिन्न शहरों में सभी आयु वर्गों के मुकाबले शून्य से 14 साल तक के बच्चों में कैंसर का अनुपात 0.7 प्रतिशत और 3.7 प्रतिशत के बीच है। कैंसर रजिस्ट्री के मुताबिक, दिल्ली में सबसे अधिक कैंसर प्रभावित हैं। यहां प्रति 10 लाख पर 203.1
लड़के सभी प्रकार के कैंसर से प्रभावित थे, जबकि अरुणाचल प्रदेश के पासीघाट में केवल 12.2 लड़के प्रति 10 लाख थे। पटियाला की कैंसर रजिस्ट्री में प्रति 10 लाख लड़कों पर 121.2 मामले दर्ज किए गए। प्रदूषण से जूझ रही मुंबई भी 10वें स्थान पर रही।
इसके अलावा 0-14 वर्ष की आयु की लड़कियों के मामले में दिल्ली में यह संख्या 125.4 प्रति 10 लाख थी, जबकि पूर्वी खासी हिल्स जिले में यह संख्या 12.1 प्रति 10 लाख थी। प्रति 10 लाख पर 74 मामलों के साथ पटियाला 9वें स्थान पर रहा।
आमतौर पर, दुनिया भर में शोध अध्ययनों से पता चलता है कि वायु प्रदूषण का संपर्क तीव्र माइलॉयड ल्यूकेमिया (एएमएल) और नॉन-हॉजकिन लिंफोमा से जुड़ा हुआ है। बेंजीन, एनओएक्स और पार्टिकुलेट मैटर जैसे प्रदूषकों को बच्चों में नॉन हॉजकिन लिम्फोमा के लिए जिम्मेदार माना गया है।
नेचर जर्नल में जनवरी 2023 में प्रकाशित एक अध्ययन में पीएम2.5 स्तर के संपर्क और बच्चों में तीव्र लिम्फोब्लास्टिक ल्यूकेमिया के जोखिम के बीच संबंध पाया गया।
भारत के राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री कार्यक्रम के आंकड़ों से पता चलता है कि दिल्ली भी ल्यूकेमिया से बुरी तरह प्रभावित है। यहां 0-14 वर्ष की आयु के बीच 84.2 युवा प्रति 10 लाख ल्यूकेमिया से पीड़ित मिले, जबकि मेघालय में केवल 7.3 प्रति 10 लाख युवक प्रभावित थे, जबकि 47.2 प्रति 10 लाख लड़कियां प्रभावित थीं।
कछार जिले में यह केवल 4.9 प्रति 10 लाख है। लिम्फोमा के मामले में दिल्ली में लड़कों में यह संख्या 30.7 प्रति 10 लाख है, जो मेघालय में देखे गए 2.3 प्रति 10 लाख मामलों से काफी कम है।
लड़कियों के मामले में, दिल्ली में लिम्फोमा के मामले तीसरे स्थान पर हैं, जो हर 10 लाख पर केवल 10 है। रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि अध्ययन में शामिल एशियाई देशों में दिल्ली में सबसे अधिक लड़के प्रभावित हैं, इसके बाद चीन का जियानमेंग है। लड़कियों के मामले में दिल्ली छठे स्थान पर है। अध्ययन में शामिल सभी देशों में लड़कों के मामले में दिल्ली छठे स्थान पर और लड़कियों के मामले में 10वें स्थान पर है। यह पर्याप्त सबूत हैं, जिससे कहा जा सकता है कि वायु प्रदूषण के संपर्क में आने से वयस्कों में कैंसर हो सकता है, लेकिन बच्चों में इस तरह का अध्ययन नहीं किया गया है, जबकि बच्चों को अधिक खतरा होगा, क्योंकि वे वयस्कों की तुलना में अधिक तेजी से सांस लेते हैं और अधिक प्रदूषकों को अवशोषित करते हैं।
शोधकर्ता गर्भवती महिलाओं से जन्म लेने वाले बच्चों पर वायु प्रदूषण के प्रभाव को भी समझने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि अजन्मे बच्चों को नाल के माध्यम से अपनी मां के गर्भ में बढ़ने के लिए आवश्यक सभी चीजें मिलती हैं। 2013 में एक अध्ययन में यातायात प्रदूषण के शुरुआती जोखिम और कई बच्चों के कैंसर के बीच संबंध पाया गया, लेकिन सुझाव दिया गया कि संबंध की पुष्टि के लिए और अधिक अध्ययन की आवश्यकता है।
ऐसा ही एक अध्ययन यूनाइटेड किंगडम (यूके) में चल रहा है, जहां शोधकर्ता प्लेसेंटा का अध्ययन करके शिशुओं पर सड़क यातायात प्रदूषण के प्रभाव का अध्ययन करने की कोशिश कर रहे हैं, यह देखने के लिए कि क्या मां के रक्त में प्रदूषक प्लेसेंटा को पार करके बच्चे के रक्त में प्रवेश कर सकते हैं। इस साल नवंबर में एम्स, नई दिल्ली और आईआईटी-दिल्ली द्वारा संचालित एक राष्ट्रीय अनुसंधान नेटवर्क कोलैबोरेशन फॉर एयर पॉल्यूशन एंड हेल्थ इफेक्ट रिसर्च, इंडिया ने बच्चों पर वायु प्रदूषण के प्रभावों के आंकड़े जारी किए। इसके अनुसार, भारत में 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु के लिए वायु प्रदूषण तीसरा प्रमुख कारक है। 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए यह मृत्यु का दूसरा प्रमुख कारक है। अनुमान के अनुसार, 2010 के बाद से दिल्ली, पंजाब और हरियाणा में आउटडोर पीएम 2.5 से संबंधित 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु का प्रतिशत सबसे अधिक देखा गया।
जीवन प्रत्याशा में गिरावट
भारत में वायु प्रदूषण के कारण जीवन प्रत्याशा 5 वर्ष और 3 महीने तक कम होने की आशंका है। अगस्त 2023 में शिकागो विश्वविद्यालय (ईपीआईसी) में ऊर्जा नीति संस्थान द्वारा जारी वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक में यह आशंका जताई गई है। ईपीआईसी ने यह बात विश्व स्वास्थ्य संगठन की 5 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर सीमा के संबंध में कही है। हृदय संबंधी बीमारियों से औसत भारतीय की जीवन प्रत्याशा लगभग 4.5 वर्ष कम हो जाती है, जबकि बाल और मातृ कुपोषण से जीवन प्रत्याशा 1.8 वर्ष कम हो जाती है। दुनिया के दूसरे सबसे प्रदूषित शहर दिल्ली में वायु प्रदूषण के कारण जीवन प्रत्याशा 11 साल और 9 महीने कम होने की आशंका है। उत्तर प्रदेश में इसमें 8 साल और 8 महीने की कमी की आशंका है (देखें, जीवन प्रत्याशा के 5 बड़े खतरे,)।
पॉपुलेशन काउंसिल, नई दिल्ली और बर्मिंघम विश्वविद्यालय, यूके के इंटरनेशनल डेवलपमेंट डिपार्टमेंट द्वारा 184 शहरों पर एक व्यापक अध्ययन किया गया, जो जुलाई 2020 में बीएमजे ग्लोबल हेल्थ जर्नल में प्रकाशित हुआ। इस अध्ययन से संकेत मिलता है कि पीएम 10 के स्तर में प्रत्येक 10-यूनिट वृद्धि पर नवजात मृत्यु की संभावना 6 प्रतिशत बढ़ जाती है।
वैश्विक स्तर पर बाहरी और घर के भीतर के धूल कणों से होने वाले प्रदूषण के संपर्क में आने से जीवन के पहले महीने में लगभग 5,00,000 शिशुओं की मृत्यु हो गई है। इनमें से लगभग 1,16,000 या 23 प्रतिशत नवजात शिशु भारत में थे। स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर, 2020 के नवीनतम अनुमानों के अनुसार वायु प्रदूषण के कारण होने वाली हर चौथे नवजात की मृत्यु में से एक भारत में हुई थी। वायु प्रदूषण से जुड़ी स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों के कारण देश में हर पांच मिनट में एक नवजात की मृत्यु हो जाती है। ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज, 2019 के विश्लेषण के अनुसार, वायु प्रदूषण के कारण 2019 में पांच साल से कम उम्र के 539 बच्चों प्रतिदिन मृत्यु हुई।
इसका मतलब है कि वायु प्रदूषण से देश में हर घंटे औसतन 22 बच्चे मरते हैं यानी हर 3 मिनट में एक बच्चे (5 साल से कम) की मौत होती है। रिपोर्ट के मुताबिक, देश के चार बड़े राज्यों में उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश में बच्चों की सबसे अधिक (64 फीसदी) मौतें हुईं। अकेले उत्तर प्रदेश में हर घंटे वायु प्रदूषण के कारण होने वाले बीमारियों की वजह से 7 बच्चों की मौत हुई (देखें, हत्यारी हवा,)। अध्ययन बताते हैं कि घरों के भीतर होने वाले वायु प्रदूषण में कमी की वजह से नवजातों के विकार का बोझ कम हुआ है, लेकिन घरों के बाहर यानी परिवेशी प्रदूषण में बढ़ोतरी हुई है (देखें, पीएम 2.5 घाव करे गंभीर, )।
मार्च 2023 में प्रकाशित एक वैश्विक अध्ययन “ग्लोबल, रीजनल एंड नेशनल बर्डन ऑफ एम्बिएंट एंड हाउसहोल्ड पीएम 2.5 रिलेटेड नियोनेटल डिसऑर्डर 1990-2019” के मुताबिक, पिछले 30 वर्षों में घर के भीतर स्थित पीएम 2.5 के कारण नवजातों में विकारों का बोझ 38.35 प्रतिशत कम हो गया है। मार्च 2023 में इकोटॉक्सीकोलॉजी एंड एनवायरमेंटल सेफ्टी जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन में कहा गया है कि इस अवधि के दौरान घर के भीतर पीएम 2.5 की मात्रा में 52.33 फीसदी की कमी आई।
हालांकि, घरों के भीतर के वायु प्रदूषण की वजह से होने वाले जोखिमों और खतरों को कम नहीं आंका जा सकता है, क्योंकि अभी भी नवजातों में विकारों के बोझ की दो-तिहाई वजह घरों के भीतर का वायु प्रदूषण ही है। भारत, पाकिस्तान, नाइजीरिया और इथियोपिया में घरों के भीतर के प्रदूषण से होने वाले विकारों की तादात कुल के मुकाबले 50 फीसदी है।
वहीं, अध्ययन बताता है कि तीन दशक में एम्बिएंट पीएम 2.5 के कारण नवजात शिशुओं में विकारों का बोझ बढ़ गया है। खासकर निम्न सामाजिक जनसांख्यिकीय सूचकांक (एसडीआई) क्षेत्र (भारत, पाकिस्तान और नाइजीरिया) में इसकी तादाद 60 प्रतिशत के आसपास है।
अप्रैल 2022 में प्रकाशित एक अध्ययन में पीएम 2.5 और मृत्यु दर के बीच संबंध का पहला सबूत मिला था। इसके लेखकों ने विशेष रूप से सर्दियों के दौरान पीएम 2.5 घटकों से मृत्यु जोखिम के बारे में आगाह किया।
अक्टूबर 2023 में प्रकाशित अध्ययन की शोधकर्ता और लेखिका एकता चौधरी दिल्ली के हालिया वायु प्रदूषण संकट के संदर्भ में कहती हैं, “मैं दिल्ली में सभी नवजात शिशुओं और बच्चों के प्रति चिंतित हूं, क्योंकि वे सबसे खतरनाक हवा में सांस ले रहे हैं और हमारा हालिया अध्ययन इस बात का सबूत है कि स्थिति कितनी गंभीर है।”
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