क्या आपने कभी सोचा है कि सूखे की स्थिति जो कभी धीरे-धीरे लम्बे समय में बनती थी, वो अब अचानक से कैसे बनने लगी है। कैसे एकाएक से पड़ने वाले सूखे की घटनाएं पहले से कहीं ज्यादा विकराल रूप ले रही हैं। इस बारे में की गई एक नई रिसर्च से पता चला है कि दुनिया में अचानक बनने वाले शुष्क परिस्थितियां पहले से कहीं ज्यादा गंभीर हो रही हैं। बता दें कि एकाएक बनने वाली इन शुष्क परिस्थितियों को आकस्मिक सूखे के रूप में जाना जाता है।
गौरतलब है कि आकस्मिक सूखे की यह घटनाएं एकाएक घटित होती हैं। नतीजन कुछ सप्ताह में ही सूखा लोगों पर हावी होने लगता है। यह उन समुदायों को प्रभावित करता है, जो अक्सर उसके लिए तैयार नहीं होते। इसके प्रभाव लम्बे समय तक अनुभव किए जाते हैं। देखा जाए तो यह पानी और खाद्य सुरक्षा के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है।
जर्नल जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने आकस्मिक पड़ने वाली सूखे की वैश्विक घटनाओं में होने वाली वृद्धि के साथ-साथ उन क्षेत्रों की भी पहचान की है जहां हाल के दशकों में स्थिति तेजी से बदतर हुई है।
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 1980 से 2019 के बीच पिछले 40 वर्षों के नासा द्वारा जुटाए जलवायु के आंकड़ों का विश्लेषण किया है। इसमें मौसम से जुड़े रिकॉर्ड, उपग्रहों से प्राप्त छवियों के साथ मिट्टी में मौजूद नमी के मॉडल शामिल थे। इस दौरान शोधकर्ताओं ने सूखे से जुड़े तीन महत्वपूर्ण पहलुओं जैसे सूखा कितनी जल्द शुरू होता है, उसका प्रभाव कितने समय तक रहता है और वो कितने बड़े क्षेत्र को कवर करता है, पर ध्यान दिया है।
अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनसे पता चला है कि दक्षिण अमेरिका और दक्षिणी अफ्रीका में स्थिति कहीं ज्यादा विकट है। वहीं दूसरी तरफ जलवायु में आते बदलावों के साथ मध्य एशिया के ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में, नमी में इजाफा हो रहा है।
इस बारे में अध्ययन से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता माहेश्वरी नीलम ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से जानकारी दी है कि, “दुनिया के कई हिस्सों में एकाएक पड़ने वाले इस सूखे द्वारा बड़े क्षेत्रों को लम्बे समय तक प्रभावित करते देखा गया है।“ बता दें कि माहेश्वरी नीलम नासा के मार्शल स्पेस फ्लाइट सेंटर और यूनिवर्सिटीज स्पेस रिसर्च एसोसिएशन में जलवायु वैज्ञानिक भी हैं।
अध्ययन में दक्षिण अमेरिकी जलक्षेत्रों पर प्रकाश डालते हुए शोधकर्ताओं ने जानकारी दी है कि वहां सूखे की परिस्थितियां बड़ी तेजी से बन रही हैं। अनुमान है कि वहां हर साल सूखे की परिस्थितियां करीब 0.12 दिन पहले बन रही है। इसका अर्थ है कि सूखा हर दशक औसतन आम समय से एक दिन पहले शुरू हो रहा है। इसके साथ ही वहां सूखे से प्रभावित क्षेत्र भी हर साल एक से तीन फीसदी की दर से बढ़ रहा है।
दुनिया से परे कराकोरम, तियानशान और हिंदू कुश जैसे ऊंचे पहाड़ों पर बढ़ रही है नमी
इसके कारणों की बात करें तो वैज्ञानिकों ने तेजी से उभरते सूखे के लिए बढ़ते वैश्विक तापमान और जलवायु परिवर्तन की वजह से बारिश के पैटर्न में आते बदलावों को जिम्मेवार माना है। अध्ययन से पता चला है कि दक्षिण अमेरिका में, विशेष रूप से दक्षिणी ब्राजील और अमेजन में, आकस्मिक पड़ने वाला यह सूखा कहीं ज्यादा गंभीर रूप ले रहा है। जो उस क्षेत्र में वनों के होते विनाश, बढ़ते तापमान और कम बारिश से मेल खाता है।
इसी तरह अफ्रीका में कांगो, अंगोला, जाम्बिया, जिम्बाब्वे, दक्षिण अफ्रीका, लेसोथो और मेडागास्कर जैसे देश भी हॉटस्पॉट के रूप में उभरे हैं। यह देश भी इसी तरह की समस्याओं का सामना कर रहे हैं। रिसर्च से यह भी पता चला है कि अफ्रीकी क्षेत्रों में बारिश की कमी से ज्यादा, बढ़ता तापमान अधिक समस्याएं पैदा कर रहा है।
किसी क्षेत्र के आकस्मिक सूखे से प्रभावित होने की आशंका कितनी ज्यादा है, यह वहां के भू आवरण पर भी निर्भर करता है। रिसर्च से पता चला है कि खासकर आर्द्र या अर्ध-आर्द्र जलवायु वाले क्षेत्रों में सवाना और घास के मैदानी क्षेत्र एकाएक पड़ने वाले सूखे के प्रति कहीं ज्यादा संवेदनशील हैं।
अध्ययन के मुताबिक दूसरी तरफ मध्य एशिया में, हिमालयी कराकोरम, तियानशान और हिंदू कुश जैसे ऊंचे पहाड़ों के आसपास जलक्षेत्रों में, अध्ययन के दौरान आकस्मिक सूखे के विस्तार में गिरावट आई है। देखा जाए तो यह प्रभाव वैश्विक प्रवृत्ति से अलग है। इन क्षेत्रों में जलवायु में आते बदलावों की वजह से बारिश में इजाफा हुआ है। वहां अब बर्फबारी की जगह बारिश ले रही है, साथ ही बढ़ते तापमान से बर्फ पिघल रही है, नतीजन मिट्टी में नमी बरकरार है।
हालांकि शोधकर्ताओं का अंदेशा है कि इन बदलावों से इस क्षेत्र में अचानक आने वाली बाढ़ की घटनाओं में वृद्धि हो सकती है, जैसा इस क्षेत्र में देखा भी गया है।
माहेश्वरी नीलम ने प्रेस विज्ञप्ति में यह भी कहा है कि, "प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली इन मापों का उपयोग यह समझने के लिए कर सकती है कि आकस्मिक पड़ने वाले सूखे में कितनी तेजी से बदलाव आ रहा है। साथ ही जोखिम और आपदाओं से जुड़ी योजनाएं बनाते समय भी इस जानकारी को शामिल किया जा सकता है, ताकि भविष्य में इस तरह की घटनाओं के लिए तैयार रहा जा सके।
उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि राजनीतिक सीमाओं से परे, जल संसाधनों के प्रबंधन के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि वाटरशेड पैमाने पर आपदाओं के प्रति भूदृश्य कैसे प्रतिक्रिया करते हैं। उनका आगे कहना है कि, "प्राकृतिक खतरे राजनीतिक सीमाओं का पालन नहीं करते।, यही कारण है कि हमने इस अध्ययन में देशों पर नहीं, बल्कि जलक्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित किया है।"
गौरतलब है कि हाल ही में यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास से जुड़े शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में खुलासा किया था कि भीषण सूखे से भारी बारिश के बीच बार-बार आते बदलावों के पीछे जलवायु परिवर्तन का हाथ है। उनके मुताबिक शायद यह बदलाव जमीन के अंदर फीडबैक लूप से प्रभावित हैं। सरल शब्दों में कहें तो मिट्टी में मौजूद नमी और वायुमंडल के बीच परस्पर क्रिया के चलते शुष्क स्थिति में भी भारी बारिश की स्थिति पैदा हो रही है।