मौसम विभाग द्वारा अपने साप्ताहिक अपडेट की शुरूआत से ठीक पहले, मॉनसून की भविष्यवाणी करना और फिर उसे उसके वास्तविक प्रदर्शन के साथ मिलान करना आधिकारिक तौर पर एक अंदरूनी मामला रहा है, जिसका देश बड़ी उत्सुकता से अनुसरण करता है।
लेकिन हाल में, सामान्य मॉनसून की परिभाषा ने अपनी प्रासंगिकता खो दी है, क्योंकि सप्ताह-दर-सप्ताह और महीने-दर-महीने मॉनसून के पूर्वानुमान विफल हो रहे हैं। इससे पता चलता है कि यह मौसम कितना अनियमित हो गया है।
उदाहरण के लिए, यदि इस मॉनसून को ही देखें तो इसके जून में बहुत देर से शुरू होने से लेकर जुलाई में भारी बारिश होने और फिर अगस्त में आए रिकॉर्ड-तोड़ ठहराव तक सब कुछ मॉनसून में आती अनियमितता की ओर इशारा करता है।
इसी के चलते 1901 के बाद से अगस्त में इतनी कम बारिश हुई है जो अपने आप में रिकॉर्ड है। यह मौसम पूरी तरह परिभाषित करता है कि बदलती जलवायु में मॉनसून कितना अप्रत्याशित हो गया है।
बात पुरानी जरूर है लेकिन सही भी है कि मॉनसून का प्रदर्शन देश की आर्थिक स्थिति को मापने की कुंजी है। मॉनसून में मौसमी विफलता का सबसे भयानक परिणाम सूखा है, जो सीधे तौर पर कृषि को प्रभावित करता है, जिस पर अधिकांश लोग जीवित रहने के लिए निर्भर हैं।
लेकिन, भारत में सूखे का पूर्वानुमान उस स्तर तक विकसित नहीं हुआ है जो लोगों को पहले से उसकी चेतावनी दे सके, ताकि वे इसे दुष्प्रभावों को कम करने या उसका मुकाबला करने के लिए तैयार हो सकें।
सूखे की घोषणा वर्षा के निर्धारित स्तर पर आधारित एक आधिकारिक, मौसमी गतिविधि है। हालांकि, जैसे-जैसे मॉनसून का सीजन आगे बढ़ता है, सूखा विकसित होता है और इस मौसम के हर चार महीने जून, जुलाई, अगस्त और सितंबर, इस बात पर असर डालते हैं कि क्या किसी साल में सूखा पड़ेगा। विशेष रूप से ऐसा सूखा जो कृषि को प्रभावित करता है।
इसके अलावा, हर महीने बारिश में होने वाली प्रगति निश्चित प्रकार के मौसम, पानी और कृषि संकट को जन्म देती है। उदाहरण के लिए, अगस्त में हुई कम बारिश, जो कुल मौसमी बारिश में करीब 22 फीसदी का योगदान देती है, वो जून-जुलाई के दौरान जलाशय में जमा पानी के अत्यधिक उपयोग और भूजल के जरूरत से ज्यादा दोहन को जन्म दे सकती है।
ऐसे में इसका असर खाद्य उत्पादन पर भी पड़ेगा। यदि इसे एक इकाई के रूप में विचार किया जाए, तो देश पहले ही हाइड्रोलॉजिकल सूखे की स्थिति में है, जो खेती की ओर बढ़ रहा है।
वहीं सूखे की भविष्यवाणी को लेकर अधिकांश मौजूदा पहल, अल्पावधि में मौसम की भविष्यवाणी करने या किसी मौसम में संभावित सूखे को इंगित करने के लिए समय-समय पर बारिश से जुड़े आंकड़ों को जुटाने के इर्द-गिर्द घूमती हैं।
संक्षेप में कहें तो हमारे पास भविष्य में सूखे का अनुमान लगाने के लिए कोई पूर्वानुमान पद्धति नहीं है, भले ही यह बदलती जलवायु में एक आवश्यक आर्थिक उपकरण है।
इस साल फरवरी में, भारत के एसआरएम इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी और रूस के स्कोल्कोवो इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों ने भारत में लम्बे अवधि के दौरान पड़ने वाले सूखे की भविष्यवाणी करने का प्रयास किया था।
अपने इस अध्ययन में उन्होंने 117 वर्षों में हुई बारिश और सूखे की स्थिति का विश्लेषण करने के लिए "लॉन्ग शार्ट-टर्म मेमोरी" नामक डीप लर्निंग मशीन मॉडल को तैनात किया था।
इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने 1901 से 2000 तक के औसत मासिक पूर्वानुमान का उपयोग किया। साथ ही मॉडल का परीक्षण 2001 से 2017 तक औसत मासिक पूर्वानुमान के साथ किया गया है।
स्पष्ट शब्दों में कहें तो इस मॉडल में पिछले आंकड़ों के रुझानों को लिया गया है और उनका उपयोग 2018 से 2027 के भविष्य के रुझानों का पूर्वानुमान लगाने के लिए किया गया है। इसके निष्कर्षों से पता चला है कि जुलाई 2022 से अप्रैल 2023 तक "हल्की बारिश" का दौर था और अगले अप्रैल 2027 से अक्टूबर 2027 के बीच भी ऐसी ही होगा। इसका मतलब है कि इस पूर्वानुमान सीमा में अन्य सभी अवधियों में "हल्के सूखे" की स्थिति बनी रहेगी।
अध्ययन के मुताबिक, 2027 तक कर्नाटक, गुजरात और उत्तराखंड गंभीर सूखे से प्रभावित होंगे, जबकि अरुणाचल प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, केरल, महाराष्ट्र, पंजाब, तमिलनाडु और तेलंगाना मध्यम सूखे की चपेट में होंगें। हालांकि बिहार, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर, झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना और सिक्किम में अच्छी-खासी बारिश होगी लेकिन साथी ही हर दूसरे साल सूखा भी पड़ेगा।
अब सवाल यह है कि इस पूर्वानुमान का क्या उपयोग है? देखा जाए तो सूखे को उस आपदा के रूप में जाना जाता है, जिसे व्यक्ति दूर से देख सकता है और इस प्रकार वो उसे कम करने के प्रयास कर सकता है।
जब हमारे पास लम्बी अवधि के लिए सूखे का पूर्वानुमान होता है, तो सरकार सिंचाई का पूरा लाभ उठाने, के साथ-साथ सही फसल चक्र तय करने और कम बारिश के लिए उपयुक्त फसलें निर्धारित करने जैसी सूखे से बचाव संबंधी गतिविधियों को निर्देशित कर सकती है। भारत के पास सूखा प्रबंधन का लंबा अनुभव है, लेकिन अब समय आ गया है कि वह लम्बे अवधि में सूखे के पूर्वानुमान के लिए अपना खुद का तंत्र को विकसित करे।