जिस समय सिद्धन्ना येलालिंगा आमतौर पर अपने चार एकड़ के खेत में ज्वार की फसल लगाने की तैयारी कर रहे होते हैं, उस समय यह 62 वर्षीय किसान पिछले वर्ष खराब हो चुकी अपनी फसल से मवेशियों के लिए चारा इकट्ठा करने में जुटे हैं।
चिंता में डूबे येलालिंगा कहते हैं, “तीन क्विंटल ज्वार की जगह केवल 10 किग्रा. ज्वार हुआ है। बहुत ज्यादा नुकसान हो गया है।” उनकी खरीफ की फसल तूर भी केवल तीन क्विंटल हुई है जो पिछले वर्ष की फसल के पांच प्रतिशत से भी कम है।
येलालिंगा जिस स्थिति का सामना कर रहे हैं वह कर्नाटक के उत्तर में कालबुर्गी जिले में स्थित उनके गांव लाडचिंचोली की ही समस्या नहीं बल्कि यह स्थिति पूरे कर्नाटक में देखी जा सकती है जहां वर्ष 2018 में मॉनसून की लगातार कमी ने किसानों की पानी की जरूरत बढ़ा दी है।
पास की ही आलंद तालुका के नेल्लुर गांव के किसान शंकर पाटिल आगे आने वाले महीनों की विकट स्थिति से चिंतित दिखाई देते हैं। उनकी चने की फसल से आमदनी होनी तो दूर, अंकुर तक नहीं फूटा है।
पाटिल सूखे पड़े कुएं में झांकते हुए कहते हैं, “बारिश न सिर्फ कम हुई है बल्कि असमय भी हुई है। इसने फसल को तो खराब किया ही है, साथ ही हमारे जलस्रोतों को भी प्रभावित किया है। सब कुछ सूख चुका है। यहां आमतौर पर 10-12 फुट पानी होता है, लेकिन इस वर्ष लगभग दो महीनों से यह सूखा पड़ा है।”
दक्कन के पठार के कम वर्षा वाले क्षेत्र में पड़ने के कारण समस्त उत्तरी आंतरिक कर्नाटक के लिए सूखा बहुत ही आम है। यहां एक वर्ष में औसतन 650 मिमी. वर्षा होती है जिसमें से अधिकांश वर्षा दक्षिण पश्चिम मॉनसून के दौरान होती है तथा अक्टूबर और नवंबर में उत्तर पूर्वी मॉनसून की बौछारें पड़ती हैं।
यह क्षेत्र अपनी तेज धूप के साथ-साथ सिंचाई सुविधाओं की कमी के लिए जाना जाता है। सिंचाई सुविधाओं की दयनीय स्थिति के कारण यह इलाका देश में शुष्क कृषि के लिए बदनाम है।
यद्यपि इस इलाके की बदनामी को लेकर बहस की जा सकती है, लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं कि सिंचाई सुविधाओं के अभाव में किसानों ने सूखे की स्थिति को स्वीकार कर लिया है।
हालांकि, पिछले वर्ष की स्थिति ने सूखे के जानकार कृषि विशेषज्ञों को भी हाशिए पर ला दिया है। सबसे पहले दक्षिण पश्चिम मॉनसून उम्मीद से कम रहा जिसमें औसतन 506 मिमी. की तुलना में 30 प्रतिशत कम बारिश दर्ज की गई।
इसके बाद उत्तर पूर्वी मॉनसून की कमी ने इस संकट को और बढ़ाया। इस क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले 12 जिलों में से केवल एक जिले में यह अभाव 50 प्रतिशत से कम है जबकि तीन चौथाई इलाके में यह कमी 60 प्रतिशत से अधिक है।
कालबुर्गी कृषि विज्ञान केंद्र के कार्यक्रम संयोजक राजु तेग्गेली कहते हैं, “किसानों से प्राप्त जानकारी दर्शाती है कि पूरे क्षेत्र में 85-90 प्रतिशत नुकसान हुआ है।
एक बोरवेल से अपनी तीन एकड़ जमीन पर गन्ना उगाने वाले किसान तथा स्थानीय ग्रामीण विकास एनजीओ बयालु सीमे रूरल डेवलपमेंट समस्थे (बीएसआरडीएस) के निदेशक सुबन्ना बिरादर बताते हैं, “बोलवेल हमारी पानी की जरूरत को पूरा करने में कुछ हद तक ही मदद कर सकते हैं, हम अब भी मुख्य रूप से बारिश पर ही निर्भर हैं और इस साल बारिश हुई ही नहीं है। यहां तक कि बोरवेल भी इस कमी को पूरा करने की हालत में नहीं हैं। बोरवेल के बावजूद 50 प्रतिशत से अधिक फसल का नुकसान हुआ है।”
कर्नाटक राज्य प्राकृतिक सूखा निगरानी प्रकोष्ठ (केएसएनडीएमसी) के निदेशक जीएस रेड्डी कहते हैं, “इस वर्ष यद्यपि सितंबर से पहले अच्छी बारिश हुई है, तथापि रबी की फसल के लिए अहम माने जाने वाले समय में बारिश बिल्कुल नहीं हुई। परिणामस्वरूप, उत्तरी और पूर्वी कर्नाटक के अधिकांश हिस्सों में आर्द्रता का स्तर (एमएआई) 25 प्रतिशत से कम रहा है, जो गंभीर सूखे को दर्शाता है।”
केंद्र सरकार के भूमि उपयोग सांख्यिकी आंकड़ों के अनुसार, कालबुर्गी जिले में 10,49,210 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र में से केवल 8.7 प्रतिशत पर सिंचाई हुई है।
एक ओर जहां सरकारी नहरों और जलाशयों से केवल 1.8 प्रतिशत इलाका सींचा गया है वहीं दूसरी ओर बोलवेल और कुओं ने 58,346 हेक्टेयर क्षेत्र की सिंचाई आवश्यकता को पूरा किया है। नेल्लोर और उसके आसपास स्थित गांवों के लिए दोन्नुर गांव के निकट 10 हेक्टेयर में स्थित जलाशय लगभग 1500 परिवारों के लिए सिंचाई का एकमात्र साधन है।
यद्यपि जलाशय से निवासियों तक पानी पहुंचाने के लिए अब तक कोई नहर शुरू नहीं की गई है, फिर भी यह दो दशकों से सिंचाई का मुख्य स्रोत बना हुआ है। दोन्नुर गांव के गुंडप्पा चिंचावलिकर की तूर, उड़द और मूग की 90 फीसदी फसल इस वर्ष खराब हो गई है। वह कहते हैं, भीषण गर्मी आने तक जलाशय का पानी पर्याप्त रहता है लेकिन इस बार यह सर्दियों के लिए भी पूरा नहीं पड़ रहा।
अधूरी और अप्रयुक्त नहर वाला यह जलाशय कीचड़ से भरा गड्ढा लगता है।
दोन्नुर की स्थिति पूरे कर्नाटक, विशेष रूप से उत्तरी कर्नाटक की स्थिति को दर्शाती है। केएसएनडीएमसी के अनुसार, उत्तरी और पूर्वी जिलों में सिंचाई के काम आने वाले लगभग 80 प्रतिशत छोटे जलाशय दिसंबर 2018 के अंत तक सूख चुके थे।
जनवरी 2019 के अंत में राज्य सरकार द्वारा तैयार की गई एक अन्य रिपोर्ट दर्शाती है कि राज्य के 43 प्रतिशत जलाशय सूख चुके हैं, बाकी बचे जलाशयों में केवल 30 प्रतिशत पानी बचा है।
दक्षिण पश्चिम मॉनसून के बाद सरकार द्वारा राज्य की सभी 176 तालुकाओं को सूखा प्रभावित घोषित करने के बाद राज्य सरकार ने एक बार फिर रबी के मौसम के दौरान 156 तालुकाओं को सूखा प्रभावित घोषित कर दिया है।
सूखा प्रभावित क्षेत्रों की परेशानी
कर्नाटक के 31.8 लाख हेक्टेयर रबी क्षेत्र का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा उत्तर में स्थित है जो सूखे और पानी की कमी से सबसे ज्यादा प्रभावित है।
वर्ष 2018-19 के दौरान तिलहन और मोटे अनाज के कृषि क्षेत्र में क्रमश: 61 प्रतिशत और 15 प्रतिशत की कमी आई है।
रेड्डी कहते हैं, “18 लाख हेक्टेयर के कृषि क्षेत्र अथवा कुल कृषि क्षेत्र के लगभग 70 प्रतिशत भाग में 50 प्रतिशत से अधिक फसल का नुकसान हुआ है। पिछले मौसम में यह संख्या 21 लाख हेक्टेयर थी।
शुरुआती अनुमानों के अनुसार, रबी के मौसम में 11,350 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है जबकि खरीफ के मौसम में 16,000 करोड़ रुपए के नुकसान का अनुमान है।
वर्ष 2019 में पेश किए गए राज्य के बजट से राज्य की अर्थव्यवस्था पर इसका प्रभाव स्पष्ट था जिसके अनुसार, कर्नाटक में सूखे के कारण राज्य की विकास दर पिछले वर्ष 10.4 प्रतिशत से 9.6 प्रतिशत पर आ गई।
केएसएनडीएमसी द्वारा जारी सूखा प्रभावित रिपोर्ट 2017 दर्शाती है कि राज्य के लगभग 60 प्रतिशत क्षेत्र में वर्ष 2001 से 2015 के बीच 9-11 वर्ष सूखा पड़ा है।
वर्ष 2015 के बाद चार वर्ष में से तीन वर्ष गंभीर और लंबा सूखा पड़ा है। रिपोर्ट बताती है कि कर्नाटक की सभी तालुकाओं में से एक तिहाई से अधिक तालुका सूखे से ज्यादा या बहुत ज्यादा प्रभावित हैं।
स्थानीय लोगों ने बताया कि पशुपालन में कमी आई है, हालांकि जिन लोगों ने मवेशी रखे थे, वे भी अब इन्हें बेच रहे हैं। अंबरया बैजंत्री के पास 20 बकरियां और चार एकड़ जमीन थी जिसे वे अपने भाई के साथ मिलकर इस्तेमाल करते थे।
इस वर्ष उनकी चार एकड़ जमीन पर कोई पैदावार नहीं हुई फिर भी तूर की खरीफ फसल के लिए उनके भाई के 30,000 रुपए लग गए। इस नुकसान की भरपाई के लिए बैजंत्री को अपनी पांचवी बकरी बाजार कीमत से 50-60 प्रतिशत कम दाम पर बेचनी पड़ी।
पैसे की कमी की दोहरी मार
खेतों में बहुत कम काम होने के कारण छोटे भूस्वामियों और भूमिहीन मजदूरों ने पंचायत की महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के स्थानों पर जाना शुरू कर दिया है।
नवंबर 2018 से मनरेगा कामगारों की संख्या बढ़ी है। परियोजना की प्रगति की निगरानी के लिए रखे गए स्थानीय टेक्नीशियन सदानंद जामदार बताते हैं, “नहर खोदने और गांव की सड़क बनाने का काम तीन महीने पहले शुरू हुआ था, तब से लेकर अब तक दोन्नुर ग्राम पंचायत के तीन गांवों और दो थंदा (अनौपचारिक बस्तियां) से आने वाले कामगारों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। लोगों के पास काम नहीं बचा है इसलिए पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष मनरेगा स्थलों पर काम करने वाले लोगों की संख्या लगभग 40 प्रतिशत बढ़ी है।
100 दिनों के लिए प्रति व्यक्ति 250 रुपए प्रतिदिन की रोजगार गारंटी स्थानीय लोगों के लिए आमदनी का अहम जरिया है, खासतौर पर सूखे के दौरान।
नेल्लुर के निकट नहर बनाने के काम में लगे 180 लोगों में से एक भूमिहीन किसान अंबरया बिरादर कहते हैं, “हमें जिंदा रहने के लिए रोज मेहनत करनी पड़ती है, इस वर्ष हमारी आमदनी का मुख्य जरिया मनरेगा के तहत किया गया काम है। यह अधिकांश भूमिहीन किसानों के साथ हो रहा है क्योंकि खेतों में अब काम ही नहीं बचा है।”
मनरेगा के तहत मजदूरों की बढ़ती संख्या के कारण मजदूरी का भुगतान चुनौती बन गया है। बड़ी संख्या में लोगों के मनरेगा के साथ जुड़ने से राज्य पैसे की मांग कर रहा है जबकि कामगार भुगतान न मिलने का आरोप लगा रहे हैं।
कालबुर्गी में अगस्त 2018 सूखा स्पष्ट हो गया था। तब में मनरेगा के तहत कार्य 1.25 लाख से बढ़कर जनवरी 2019 में 7.17 लाख हो गया था।
मनरेगा गतिविधियों की राज्य निगरानी के अनुसार, राज्य में व्यक्ति द्वारा प्रति माह किए जाने वाले काम में निरंतर बढ़ोतरी हुई जो अप्रैल 2018 में 38.22 लाख से बढ़कर दिसंबर 2018 में 1.47 करोड़ तक पहुंच गया। मजदूरी का भुगतान न होने के कारण तब से इसमें 30 प्रतिशत से अधिक की गिरावट आई है।
यद्यपि, पिछले वर्षों के दौरान अधिक संख्या में लोगों की भागीदारी के कारण मनरेगा की मजदूरी के बिलों में बढ़ोतरी हुई है, तथापि राज्य ने आरोप लगाया है कि केंद्र ने मजदूरी और सामान की लागत के बकाया 1,932 करोड़ रुपए का अब तक भुगतान नहीं किया है।
मनरेगा की मजदूरी का भुगतान न करने के सवाल का जवाब देते हुए राज्य ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्री कृष्ण बायरे गौड़ा कहते हैं, 12 फरवरी 2019 को राज्य विधानसभा सत्र के दौरान केंद्र ने 2,049 करोड़ रुपए के बिल के बदले केवल 117 करोड़ रुपए जारी किए जबकि पिछले वर्षों की मजदूरी का भुगतान भी बाकी है।
वह साथ ही कहते हैं कि राज्य मनरेगा अधिनियम 2005 में निर्धारित अपने हिस्से से ज्यादा देने के लिए मजबूर है। डाउन टू अर्थ से बातचीत में गौड़ा कहते हैं, “नेशनल इलेक्ट्रॉनिक फंड मेनेजमेंट सिस्टम के तहत मजदूरी (मनरेगा की) जारी करना शत-प्रतिशत भारत सरकार की जिम्मेदारी है। वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान, 23 दिसंबर, 2018 से अब तक 427.29 करेाड़ रुपए की मजदूरी का भुगतान करना अब भी बाकी है।”
मनरेगा के तहत बढ़ते बकाया भुगतान को देखते हुए जनवरी 2019 में केंद्र ने इस योजना के लिए अतिरिक्त 6,000 करोड़ रुपए जारी करने की घोषणा की थी, लेकिन इससे बकाया भुगतान पूरा होने की उम्मीद नहीं है क्योंकि सभी राज्यों में मनरेगा के तहत फिलहाल 12,000 करोड़ रुपए से अधिक बकाया हैं।
इसी प्रकार केंद्र सरकार द्वारा सूखे का सामना करने के लिए राज्य को दी गई सहायता में भी भेदभाव दिखाई देता है। पिछले वर्ष, खरीफ की फसल के दौरान भीषण सूखे के बाद राज्य ने 100 तालुकाओं में फसल को हुए नुकसान की भरपाई के लिए 2,434 करोड़ रुपए की सहायता मांगी थी।
इसके स्थान पर केंद्र ने केवल 949.49 करोड़ रुपए ही प्रदान किए हैं जो मांगी गई निधि का लगभग 40 प्रतिशत है, जबकि सूखे से प्रभावित अन्य राज्यों जैसे महाराष्ट्र को इसका लगभग पांच गुना दिया गया है।
तथापि, रेड्डी पक्षपात से ज्यादा निधि का निर्धारण करने के तरीके को दोषी मानते हैं। एनडीआरएफ के अनुसार, केवल भीषण सूखे, जहां 50 प्रतिशत से अधिक नुकसान हुआ हो, के मामले में ही केंद्र से सहायता दी जाती है।
क्षेत्र की गणना के लिए सरकार अस्पष्ट तरीका अपनाती है। सबसे पहले प्रत्येक राज्य के छोटे और मझौले किसानों की भूमि के अनुपात के आधार पर उनकी सूखा प्रभावित भूमि की गणना की जाती है। भीषण सूखे से प्रभावित शेष क्षेत्र को राज्य के बड़े किसानों के पास उपलबध औसत भूमि से बांटा जाता है ताकि सूखे से प्रभावित बड़े किसानों की संख्या का अनुमान लगाया जा सके।
बड़े किसानों की संख्या को 2 से गुणा करके उनके पास उपलब्ध सूखा प्रभावित क्षेत्र की गणना की जाती है जो सरकार द्वारा किसानों को दी जाने वाली 2 हेक्टेयर की भूमि धारिता सीमा को दर्शाता है।
रेड्डी के अनुसार, मूल्यांकन के इस तरीके से सूखा प्रभावित क्षेत्र 30 प्रतिशत तक कम हो जाता है जिसके लिए सहायता दी जाती है जो मांगी गई सहायता से काफी कम है।
इस बीच, फसल बर्बाद होने और पैसे की तंगी के कारण, राज्य में किसानों के कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है और इसी के साथ किसानों की आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं। वर्ष 2018 के चुनावों के बाद राज्य सरकार ने ऋण माफी की घोषणा की थी जिससे आत्महत्या के मामलों में कमी आई थी, लेकिन अब ऐसे मामले फिर से बढ़े हैं।
दत्तारगाओ बस्ती में रहने वाले 30 वर्षीय मन्नू गेमु राठौड़ कहते हैं, “खेती करना जोखिम का काम है। एक साल आप मुनाफा कमाते हैं और अगले पांच साल हो सकता है आप कुछ भी न कमा पाएं। इसलिए अगर कोई जाखिम नहीं ले सकता तो वह इसे छोड़ने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता। यही अब भी हो रहा है।” दत्तारगाओ बस्ती के ही एक किसान ने कर्ज के बोझ और फसल खराब होने के कारण आत्महत्या कर ली थी।
राज्य ने 1,611 करोड़ रुपए की ऋण माफी की घोषणा की है। सरकार को आशा है कि इससे किसानों की आत्महत्याओं को रोकने में मदद मिलेगी। हालांकि केवल पैसा बहाने से कर्नाटक के जल संकट से छुटकारा मिलने की उम्मीद नहीं है।