भारत सरकार द्वारा चारधाम राजमार्गों के सुधारीकरण के लिये विशेष योजना का शिलान्यास और 12 हजार करोड़ का आर्थिक पैकज जारी करना निश्चित ही एक प्रशंसनीय कदम था। किन्तु इसके सफल क्रियान्वयन के लिये बहुत बड़ी जिम्मेदारी इसके शिल्पकारों के ऊपर थी जिन्हें भूस्खलन, भू-धंसाव और भूकंप संवेदी अति-संवेदनशील चारधाम हिमालयी घाटियों में परियोजना के स्वरुप को तैयार करना था।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर गठित हाई पावर कमिटी ने अपनी रिपोर्ट के 10 अध्यायों में एक-मत रूप से विभिन्न पर्यावरणीय प्रभावों जैसे पहाड़ी ढालों के कटान और भूस्खलन, जल-श्रोतों पर प्रभाव, वन्यजीवों के संज्ञान, सामाजिक जन-जीवन पर प्रभाव, वन-क्षेत्र और मलबा निस्तारण के प्रभाव और आपदा प्रबंधन से सम्बंधित तमाम तथ्य उजागर किये हैं।
नये उभरे भू-स्खलन क्षेत्रों और भारी मलबे के अवैज्ञानिक निस्तारण से उत्पन्न खतरे की विभीषिका पर भी निर्माणकारी संस्थाओं और सड़क मंत्रालय को समय समय पर तत्काल सुरक्षात्मक कार्यों के लिये भी कहते रहे।
आजकल बरसात शुरू होते ही तमाम वो समस्याएं भूस्खलन और गलत रूप से निस्तारित मलबे के कारण मुखर होने लगी हैं। आए दिन चारधाम मार्ग तमाम जगहों पर भूस्खलनों के सक्रिय होने से बाधित हो रहा है और भारी मलबा स्थानीय जनमानस के जान-माल की हानि का सबब बन रहा है।
चारधाम सड़क चौड़ीकरण की परियोजना में तत्कालीन समय (2015-16) में अपनाये मानक (डीएल-पीएस, 12 मीटर) चारधाम घाटियों के पहाड़ी ढालों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। यह बात राजमार्ग मंत्रालय की प्लानिंग ज़ोन ने भी वर्ष 2018 में स्वीकार ली थी तथा मार्च-2018 में एक सर्कुलर निकाल पहाड़ी क्षेत्रों के लिए इन्हे संशोधित कर दिया था।
संशोधित मानकों के अनुसार पर्वतीय क्षेत्रों में राष्ट्रीय राजमार्ग की चौड़ाई के मानक इंटरमीडिएट लेन (7-8 मीटर) कर दिए गए थे, किन्तु फिर भी चारधाम योजना में पुराने हानिकारक मानकों (डीएल-पीएस) के तहत ही चौड़ीकरण जारी रखा गया। इस नए सर्कुलर को न्यायालय तथा कमिटी के संज्ञान में भी अंत तक नहीं लाया गया।
चारधाम घाटियों में स्थानीय जरुरत, यात्रा काल तथा सेना वाहनों की आवाजाही के लिए राजमार्ग सुधारीकरण में तीन बातें महत्व की हैं:-
1- मार्ग का आपदा के नजरिये से सुरक्षित होना।
2- मार्ग के किनारे हरित क्षेत्र/पेड़ों का रहना ताकि जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और भूस्खलनरोधी दृष्टि से भी मार्ग अनुकूल बने।
3- स्थानीय जनों, तीर्थयात्रियों के लिए परम्परागत पैदल यात्रा/आवागमन की अनुकूलता का ध्यान रखा जाए।
पुराने मानक के अनुसार अत्यधिक चौड़ीकरण के लिए बहुत अंदर तक (आम तौर से 24 मीटर तक) पहाड़ी ढलानों का कटान करने के कारण कई भूस्खलन क्षेत्र पैदा हो गए हैं। पहाड़ी कटान अधिक होने से मलबा भी अधिक पैदा हो रहा है और इसका निस्तारण घाटियों में ही होने के चलते मलबे के बड़े-बड़े ढेर भी आपदा का सबब बने हुए हैं।
स्थानीय जरुरत, सेना वाहनों तथा यात्रा की जरुरत हेतु इन घाटियों में 7-8 मीटर चौड़ी सड़क पर्याप्त है। इसमें कोई दो राय नहीं कि डबल लेन-पीएस अर्थात 12 मीटर चौड़ी सड़क (10 मीटर काली सतह के साथ) बनाने के लिए भारी तादात में पहाड़ी के कटान की जरुरत होती है और वही सड़क के मानक यदि इंटरमीडिएट लेन अर्थात 8 मीटर (5.5 मीटर काली सतह के साथ) कर दिये जायें तो लगभग 70-80 प्रतिशत नुकसान कम कर और अधिकांश भाग में तो बिना किसी कटिंग के उक्त सड़क का सुधारीकरण अधिक गुणवत्ता, कम लागत और पर्यावरणीय अनुकूल ढंग से किया जा सकता है।
चारधाम परियोजना के लिए आवंटित राशि में तो आधुनिक तकनीक द्वारा पहाड़ी ढालों को कम से कम छेड़ते हुए घाटी की तरफ से दीवारें, पुलनुमा संरचनाएं बना कटान व भरान तरीके से इंटरमीडिएट मानक के अंतर्गत सुरक्षित रूप से सड़क का उच्चीकरण किया जा सकता था। पैदल यात्रियों, साधुओं, तीर्थयात्रियों, स्थानीय जनों के लिए साथ में एक सुन्दर आस्था-पथ का निर्माण भी 8 मीटर सड़क के भीतर कर हरा-भरा मार्ग तैयार हो सकता था।
किन्तु पुराने मानक (डीएल-पीएस) के अनुसार 12 मीटर चौड़ाई प्राप्त करने के लिए एक तरफ़ा पहाड़ी कटान का तरीका अपनाया गया, क्योंकि घाटी की तरफ से इतनी अधिक चौड़ाई आम तौर से प्राप्त करना बहुत कठिन, खर्चीला और कम-गुणवत्ता युक्त काम होता। परिणामस्वरूप उत्पन्न मलबे की डम्पिंग के लिए भी भूमि का अधिग्रहण अलग से करना पड़ा और घाटियों में नदियों, जलधाराओं के मार्ग में बड़े-बड़े डम्पिंग ज़ोन तैयार हो गए जो बरसात में कई स्थानों पर आपदा का सबब बने हुए हैं।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन करते हुए परियोजना के उचित क्रियान्वयन के लिए गठित उच्च स्तरीय समिति में भी परियोजना में अपनाए गए चौड़ाई के मानक को लेकर ही विवाद की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना होने के चलते अधिकांश सदस्य बिना सड़क मंत्रालय की संस्तुति के परियोजना के स्वरुप पर कोई टिप्पणी देने से बचने लगे, अंत में मूक रहकर अधिकांश ने पुराने मानकों के पक्ष में ही मत-दान कर दिया।
इस सम्बन्ध में समस्या के मूल को इंगित करती उच्चस्तरीय कमेटी की अंतरिम रिपोर्ट में समस्त सदस्यों द्वारा एकमत होकर स्वीकारी एक उक्ति में कहा गया है किसड़क की उचित चौड़ाई का मानक तय करना ही पर्यावरणीय नुकसान की सीमा निर्धारित करेगा। और यही कमेटी के सामने सबसे बुनियादी बात थी कि सड़क की चौड़ाई का जो मानक सड़क पर्यावरण मंत्रालय ने तय किया है उसका सम्यक परीक्षण किया जाये?
सड़क चौड़ीकरण के बुनियादी मुद्दे के निर्धारण के तमाम पहलुओं पर विचार करता हुआ पहला ही अध्याय अंतरिम रिपोर्ट में तैयार कर मंत्रालय को भेजा गया था। जब सड़क चौड़ीकरण से संबधित अध्ययन एक ड्राफ्ट अध्याय के रूप में कमिटी के सामने अंतिम रिपोर्ट में निर्णय हेतु रखा गया तो सारे आंकड़े और बुनियादी अध्ययनों के बावजूद कमिटी में कार्यदायी संस्था से जुड़े सदस्य और राज्य सरकार के अधिकारियों ने अंत में सड़क मंत्रालय के चौड़ाई के मानक का यह कहते हुए बचाव करना शुरू कर दिया कि सड़क चौड़ी करने वाली कमेटी तय नहीं कर सकती और यह टर्म ऑफ रेफरेंस (टीओआर) के दायरे से बाहर है। (10 वीं बैठक के मिनट रिकॉर्ड और कार्यदायी संस्था के एक नामित सदस्य द्वारा सौंपा लिखित नोट के मुताबिक)
इसका प्रमाण यह भी है कि किसी भी विशेषज्ञ ने डीएल-पीएस के पक्ष में कोई वैज्ञानिक, व्यावहारिक अथवा पर्यावरणीय तथ्य पेश नहीं किये जो यह बताते हों कि क्यों यह मानक चारधाम परियोजना में लागू होना चाहिए ? सभी सदस्यों को सड़क मंत्रालय द्वारा अप्रूव मानक पर आपत्ति न उठाने को लेकर प्रभावित किया गया, उनको यह विश्वास दिलाया गया कि सड़क की चौड़ाई तय करना आपके दायरे के बाहर की बात है। क्योंकि अंतिम दौर की बैठकों में देहरादून में प्रभावी जमावड़ा परियोजना से जुड़े महकमे वाले लोगों का ही हो पाता था तथा अधिकांश सदस्य दूर से विडियो कांफ्रेस से सीमित भागीदारी ही कर पाते थे, इसलिए गलत प्रभाव खड़ा कर यह वोटिंग डीएल-पीएस मानक के पक्ष में सफल बनायी गयी।
इसलिए अन्य 10 अध्यायों में परियोजना के पर्यावरणीय प्रभावों की विभीषिका को एकमत रूप से दर्ज करने वाले सदस्य अंत में आश्चर्यजनक रूप से निर्णायक अध्याय में खुद ही समस्या के मूल डीएल-पीएस मानक के पक्ष में वोट कर बैठे। यह विरोधाभास और विडम्बना कमिटी की रिपोर्ट में स्पष्ट होता है। इसलिए सड़क चौड़ाई की इस बुनियादी बात को बहुमत से तय करना न्यायसंगत नहीं माना जा सकता, क्योंकि बहुमत का डीएल-पीएस के पक्ष में कोई वैज्ञानिक आधार न होकर केवल यह भ्रामक सोच है कि सड़क की चौड़ाई तय करना उनके दायरे से बाहर की बात है।
परियोजना कार्यों में संलग्न संस्थाओं और भारी भरकम धन-राशि जो इस परियोजना के लिये आवंटित हो चुकी थी, उसे खर्च करने के लिये ही निर्माणकारी कंपनियों के प्रतिनिधि इस गलत और घातक मानक को तमाम पर्यवरणीय दुष्प्रभावों के चलते भी लागू करवाना चाहते हैं। पर्यावरणीय स्वीकृति के बगैर और शर्तों के सरेआम उल्लंघन के साथ कई क्षेत्रों में काम चल रहा है, अवैध डम्पिंग हों रही है, नये-नये क्षेत्र भी ईआईए के पूरा हुए बिना ही खोद डाले गये। सब सदस्यों ने एक मत होकर यह सत्य और तथ्य स्वीकारें हैं।
यदि इस मानक को जारी रखा गया तो पहाड़ी क्षेत्रों विशेषकर संवेदनशील हिमालयी घाटियों को अपूरणीय क्षति पहुंचना तय है। सीमा सुरक्षा की दृष्टि से भी ये मानक सुरक्षित नहीं है। चारधाम परियोजना के शिल्पकारों ने इस मानक में एक किलोमीटर सड़क को अपग्रेड करने की निर्माण लागत 8-10 करोड़ रुपये रखी है, जिसमे वनभूमि को हुए नुकसान और मलबे के निस्तारण की कीमत शामिल नहीं है। इतनी भारी भरकम कीमत को खर्च करने में जुटी निर्माणकारी कंपनियां, ठेकेदार और उनकी पैरवी करने वाले इंजीनीयर, अधिकारी लोग डीएल-पीएस डिजाइन मानक को इतने भारी भरकम पर्यावरणीय नुकसान के बावजूद भी लागू करने पर उतारू हैं।
जब स्वयं केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय की प्लानिंग ज़ोन ने 2018 में यह स्वीकार कर लिया था कि यह मानक पहाड़ी क्षेत्रों के लिये हानिकारक है और इसे संशोधित कर इंटरमीडिएट लेन का मानक जारी कर दिया था, तो भी चारधाम के प्रोजेक्टों में यही डीएल-पीएस का घातक मानक अपनाया गया। मंत्रालय के चारधाम परियोजना प्रभारी ने इस सवाल के लिखित जवाब में जो बताया, उससे यही निकल के आता है कि चूंकि चारधाम परियोजना में धन-आवंटित हों चुका था इसलिए यह मानक चारधाम राजमार्गों के लिये नहीं बदला गया।
यदि केंद्रीय मंत्रालय के प्लानिंग जोन ने अपना निष्कर्ष चारधाम पर तभी लागू कर सुधार कर दिया होता तो देश के हजारों करोड रुपये ऐसे पानी में बहने से बचते, अपेक्षाकृत काफी कम खर्च पर बेहतरीन चारधाम राजमार्ग सुधारीकरण और अपग्रेड होता तथा सैकड़ों हेक्टेयर वन भूमि तथा हजारों हिमालयी वृक्ष कटने से बचते और न ही सर्वोच्च न्यायालय को यह कमिटी बनाने की जरुरत पड़ती।
अब भी जहां काम नहीं हुआ है वहाँ इंटरमीडिएट लेन मानक के अनुसार अपग्रेड कर देश का काफी धन, पर्यावरण संरक्षित कर एक उत्तम और आपदाओं में कम नुकसान पहुंचाने वाला राजमार्ग बनाया जा सकता है। ज्ञात हों कि चारधाम घाटियों की वर्तमान और भविष्य की आवश्यकताओं के लिये इंटरमीडिएट लेन राजमार्ग पर्याप्त और सर्वथा अनुकूल है। फिर क्यों डीएल-पीएस जैसे हानिकारक मानक को भागीरथी इको ज़ोन में तक घुसाने की घातक पैरवी की जा रही है ?
चारधाम राजमार्ग में बद्रीनाथ, यमुनोत्री, केदारनाथ राजमार्ग आये दिन भूस्खलन और मलबे की समस्याओं से प्रभावित हो रहे हैं। गंगोत्री राजमार्ग में केवल भागीरथी इको जोन के भीतर की कोई ऐसी खबर देखने में नहीं मिलेगी, क्योंकि अधिसूचना के चलते यहां के पहाड़ी ढाल अभी सुरक्षित हैं और स्थान विशेष को छोड़कर यहां ऐसी घटनाएं बरसात में न के बराबर हैं।
अन्य चारधाम राजमार्गों की अपेक्षा बरसात में सर्वाधिक सुरक्षित राजमार्ग आज की तिथि में भागीरथी इको जोन के भीतर का राजमार्ग का हिस्सा है। यदि यहां भी डीएल-पीएस मानक थोपा गया जो कि वैसे भी अधिसूचना से मेल नहीं खाता तो फिर इको ज़ोन के नियमों का तार-तार होना और गंगोत्री घाटी का भी अशांत और आपदामय होना तय है।
डीएल-पीएस मानक वर्ष 2015 से प्रयोग में आना शुरू हुआ। टोल-टैक्स में लाभ हेतु नई नीति के तहत सड़क मंत्रालय ने यह नया मानक बनाया, जिसके अंतर्गत डबल लेन के राष्ट्रीय राजमार्गों को टोल-टैक्स के दायरे में लाया जा सके। यह मैदानी भागों के लिये तो ठीक था, किन्तु पर्वतीय मार्गों में भारी पर्यावरणीय हानि निहित है, जब केंद्रीय परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय को भी यह ज्ञात हो गया तो उन्होंने 2018 में इसे पर्वतीय मार्गों के लिये संशोधित कर इसके स्थान पर इंटरमीडिएट लेन का प्रावधान कर दिया। किन्तु दुर्भाग्यपूर्ण रूप से चारधाम परियोजना में यह लागू रखा, जिसका खामियाजा आज संवेदनशील हिमालयी घाटियां भुगत रही हैं।
इसके शिल्पकारों से परियोजना के बुनियादी ढांचे (डीएल-पीएस मानक) के चयन में हुई चूक तथा अब इसकी असफलता और हानि को ढकने और उसी स्वरुप को आगे बढ़ाने पर आमादा रहने के अनुचित प्रयास से आहत और विवश हो, आज आपके संज्ञान में विषय को लाने पर हमें विवश होना पड़ रहा है।
विवशता और विडम्बना: गलती समझ आने और सामने दिखने पर भी हम उसे सुधारने के प्रति खुले नहीं हैं। जैसे ही बात इस बुनियादी सुधार की होने लगी तो इसे हमारे दायरे से बाहर की बात बताकर परियोजना कार्यों से जुड़ा तबका सीधे विरोध के स्वर में आ गया। सबसे बड़ा दुर्भाग्य और विडम्बना तो यह रहा है कि परियोजना के इस घातक स्वरुप के पक्षकारों (ठेकेदारों, कंपनी के अधिकारियों, निर्माणकारी एजेंसियों के प्रतिनिधियों) के प्रभाव में हमारा वैज्ञानिक तबका भी तमाम वैज्ञानिक दलीलों को दरकिनार कर डीएल-पीएस के पक्ष में खड़ा हो गया है।
एक पूर्व-निर्धारित मानक में सुधार की बात के विरोध में असहिष्णुता और हमलावर होने का रूप यहां उजागर हो गया है। और चूंकि सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना है तो गलती को न मान उसे जारी रखना ही परियोजना शिल्पकार अपना कायदा बना चुके हैं। हमारी सड़कें अच्छी हों भला इसमें कोई कैसे दो राय रख सकता है, मुद्दा परियोजना के पक्ष/विपक्ष का नहीं अपितु परियोजना के अनुकूल और उचित स्वरुप के क्रियान्वयन से जुड़ा है किन्तु इसे अनावश्यक पक्ष/विपक्ष का रूप देकर सत्य को धूमिल किया जा रहा है, और इस अनुचित प्रयासों को तथाकथित वैज्ञानिक दल का मूक बहुमत प्राप्त है ।
अपील: आशा है उपरोक्त तथ्यों को आप पूर्णतः आत्मसात कर पर्यावरण मूल्यों का विकास योजना में स्थान सुनिश्चित करवा विकास को अनुकूल स्वरुप देकर सतत बनाने में अपनी अमूल्य भूमिका निभाएंगे। पर्वतीय क्षेत्रों में और खासकर संवेदनशील हिमालयी घाटियों में डीएल-पीएस मानक को खारिज करने और इंटरमीडिएट लेन मानक को लागू करवाने को लेकर हिमालयी घाटियों के संरक्षण के मद्देनजर सरकार में सम्यक निर्णय हेतु संवेदनशीलता जगा सकें।
लेखक उत्तराखंड यूनिवर्सिटी ऑफ हॉर्टीकल्चर एंड फॉरेस्टरी, भारसर में असोसिएट प्रोफेसर हैं।