21वीं सदी के अंत तक भूमि के 20 फीसदी हिस्से में हर साल पड़ेगा सूखा, लू का प्रकोप बढ़ेगा

मध्य एशिया, पूर्वी उत्तरी अमेरिका, मध्य यूरोप, पूर्वी अफ्रीका जैसे सबसे कमजोर भौगोलिक क्षेत्रों में 21वीं सदी के अंत तक सूखा पड़ने और लू की आवृत्ति में सबसे बड़ी वृद्धि होने की आशंका जताई गई है
फोटो : विकिमीडिया कॉमन्स
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एक नए अध्ययन में बढ़ती गर्मी और सूखे की स्थितियों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की जांच की गई है। अध्ययन की अगुवाई पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ आर्ट्स एंड साइंसेज में पृथ्वी और पर्यावरण विज्ञान विभाग में प्रोफेसर माइकल मान द्वारा की गई है। 

अध्ययन में कहा गया है कि, अध्ययन के निष्कर्ष इनके प्रभाव का पूर्वानुमान लगाने में मदद कर सकते हैं, जो वैज्ञानिकों और नीति निर्माताओं को चरम मौसम की घटनाओं को रोकने और तैयारी करने के लिए बेहतर तरीके प्रदान करेगा।

प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित अध्ययन में कहा गया है कि, जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल की हालिया मूल्यांकन रिपोर्ट में उपयोग किए गए अत्याधुनिक जलवायु मॉडल लू और सूखे की घटनाओं से किस तरह निपटा जाए इस बात का जिक्र किया गया है।

अध्ययन में इनके बारे में और अधिक जानकारी हासिल करने की बात कही गई है, जबकि बढ़ते तापमान, लू की घटनाओं ने इतिहास के सबसे भयंकर जंगल की आग को जन्म दिया है।

अध्ययन में कहा गया है कि, अध्ययनकर्ता यह भी बेहतर ढंग से समझना चाहते थे कि ये घटनाएं कितनी बार घटित हो रही थीं, उनकी विशेष अवधि और उनकी तीव्रता न केवल पूर्वानुमान में सुधार कर सकती थी बल्कि मानव जीवन को और अधिक नुकसान को कम करने के तरीकों में भी सुधार कर सकती थी।

वहीं वेदर एंड क्लाइमेट एक्सट्रेमिस नामक पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में कहा गया है कि, बढ़ती गर्मी के हानिकारक प्रभाव न केवल जनसंख्या पर पड़ते हैं, बल्कि फसल की वृद्धि पर भी पड़ता है, उत्पादन कम होने से गंभीर आर्थिक नुकसान होता है और खाद्य सुरक्षा पर भी गंभीर प्रभाव पड़ता है।

सूखा और लू की घटनाएं और उनके प्रभाव

इस अध्ययन के हवाले से बताया गया है कि, शोधकर्ताओं ने पिछले तीन वर्षों में बढ़ते गंभीर सूखे और जंगल की आग के हानिकारक प्रभावों का दस्तावेजीकरण किया है।

अध्ययन के मुताबिक दो असाधारण घटनाएं जिनमें 2020 में कैलिफोर्निया के जंगलों में लगी आग और 2019 से 20 ऑस्ट्रेलियाई जंगल की आग लगने का मौसम था, जो लगभग पूरे एक साल तक चला और ब्लैक समर के रूप में जाना जाने लगा। इन्हें मिश्रित सूखा और हीट वेव के रूप में जाना जाता है। जहां  एक क्षेत्र लंबे समय तक गर्म तापमान और पानी की कमी से जूझता है।

अध्ययन में कहा गया है कि ये स्थितियां एक साथ उत्पन्न हो सकती हैं और एक-दूसरे के प्रभावों को और खतरनाक बना सकती हैं। हो सकता है गर्मी से संबंधित बीमारियों और मौतों, पीने और कृषि के लिए पानी की कमी, फसल की पैदावार में कमी, जंगल की आग के खतरों में वृद्धि और पारिस्थितिक तनाव का कारण बन सकती हैं।

अध्ययन में इस बात पर भी गौर किया गया है कि मानवजनित जलवायु परिवर्तन, इन घटनाओं की आवृत्ति और गंभीरता को और अधिक बढ़ा सकता है।

सबसे खराब स्थिति बनाम मध्यम स्थिति का अनुमानित प्रभाव

अध्ययन में दो विपरीत सामाजिक-आर्थिक तरीकों की तुलना की गई, सबसे खराब स्थिति, जिसमें समाज मानवजनित जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में विफल रहता है। एक मध्यम परिदृश्य, जिसमें कुछ उपाय किए जाते हैं और उनका पालन करने का प्रयास किया जाता है।

सबसे खराब स्थिति में, पाया गया कि 21वीं सदी के अंत तक दुनिया भर की लगभग 20 फीसदी भूमि में हर साल लगभग दो मिश्रित सूखा और लू (सीडीएचडब्ल्यू) घटनाएं होने के आसार हैं। ये घटनाएं लगभग 25 दिनों तक चल सकती हैं और इनकी गंभीरता में चार गुना वृद्धि हो सकती है।

अध्ययन में कहा गया कि, तुलनात्मक रूप से, हाल ही में देखी गई अवधि में औसत सीडीएचडब्ल्यू आवृत्ति हर साल लगभग 1.2 घटनाएं थी, जो 10 दिनों से भी कम समय तक चली।

पूर्वी उत्तरी अमेरिका, दक्षिण पूर्वी, दक्षिण अमेरिका, मध्य यूरोप, पूर्वी अफ्रीका, मध्य एशिया और उत्तरी ऑस्ट्रेलिया जैसे सबसे कमजोर भौगोलिक क्षेत्रों में 21वीं सदी के अंत तक सीडीएचडब्ल्यू आवृत्ति में सबसे बड़ी वृद्धि होने की आशंका जताई गई है।

मजबूत उपायों की अत्यंत आवश्यकता

अध्ययन में आने वाले दशकों में अधिक लगातार और तीव्र सीडीएचडब्ल्यू घटनाओं से उत्पन्न होने वाले भारी खतरे और इन घटनाओं की गंभीरता पर चुने गए उत्सर्जन मार्ग की निर्भरता पर जोर दिया गया है।

जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन होता है, सीडीएचडब्ल्यू घटनाओं से जुड़े बढ़ते खतरों से निपटने के तरीके अपनाना महत्वपूर्ण हो गया है। यह अध्ययन सीडीएचडब्ल्यू में होने वाले बदलावों को लेकर पूर्वानुमान लगाने में अहम योगदान देता है। कमजोर क्षेत्रों को मिश्रित सूखे और लू की घटनाओं के प्रभाव से बचाने के लिए उत्सर्जन में कटौती और अनुकूलन रणनीतियों सहित सक्रिय उपायों की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है।  

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