
क्वींसलैंड विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं ने अपने नए अध्ययन में खुलासा किया है कि निकल खदानों के लिए भूमि को साफ करने से जलवायु पर पिछले अनुमानों से कहीं अधिक नुकसान हो रहा है।
अपने इस अध्ययन में क्वींसलैंड विश्वविद्यालय से जुड़ी डॉक्टर एवलिन मर्विन के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने दुनिया भर की 481 निकल खदानों और भंडारों से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण किया है। अध्ययन के नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित हुए हैं।
इस अध्ययन के जो निष्कर्ष सामने आए है वो दर्शाते हैं कि निकल खनन से भूमि पर पड़ता दबाव पिछले अनुमानों की तुलना में चार से 500 गुणा तक अधिक हो सकता है।
इस बारे में डॉक्टर मर्विन ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा है कि “निकेल का उपयोग अक्षय ऊर्जा ऊर्जा के क्षेत्र में बैटरियों और मजबूत स्टील के निर्माण में किया जाता है।" उनके मुताबिक जिस तरह से अक्षय ऊर्जा और पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकियों की मांग बढ़ रही है, उसके चलते इसकी मांग 2050 तक बढ़कर दोगुनी हो सकती है।
हालांकि उनके अनुसार इसके खनन के लिए जिस तरह से पेड़-पौधों और अन्य वनस्पति को साफ किया जा रहा है उससे कार्बन उत्सर्जन बढ़ रहा है। लेकिन कार्बन रिपोर्टों और निर्णयों में अक्सर इसे नजरअंदाज कर दिया जाता है।
विश्व बैंक के अनुमान भी दर्शाते हैं कि वैश्विक तापमान को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए ऐसे इंफ्रास्ट्रक्चर को तैयार करने की आवश्यकता है जो बेहद कम कार्बन उत्सर्जित करें। हालांकि इसके लिए 2050 तक ग्रेफाइट और लिथियम खनन में करीब 500 फीसदी की वृद्धि करनी होगी।
इन पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकियों के लिए 2050 तक सबसे ज्यादा मांग एल्युमीनियम (55.8 लाख टन), ग्रेफाइट (45.9 लाख टन), निकल (22.7 लाख टन) और तांबा (13.8 लाख टन) जैसे खनिजों की होगी।
मौजूदा समय में वैश्विक निकेल उत्पादन का करीब 15 फीसदी हिस्सा स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में उपयोग किया जा रहा है। हालांकि भविष्य में यह मांग काफी बढ़ जाएगी। एक अध्ययन का अनुमान है कि इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए आवश्यक निकल की मात्रा 2030 तक बढ़कर सालाना 11 लाख टन तक पहुंच जाएगी, जो 2023 में इसके वैश्विक वार्षिक उत्पादन का करीब एक तिहाई है।
जलवायु के साथ भूमि पर बढ़ रहा दबाव
अध्ययन से पता चला है कि खनन पहले ही हर साल दुनिया में ऊर्जा-संबंधित कार्बन उत्सर्जन के करीब दस फीसदी के लिए जिम्मेवार है। इसके साथ ही यह भूमि उपयोग में आते बदलावों की भी वजह बन रहा है। नतीजें पौधों और जंगलों को होने वाली हानि से कहीं ज्यादा कार्बन उत्सर्जित हो रहा है।
हालांकि, खनन उद्योग आमतौर पर संयंत्रों से होने वाले कार्बन उत्सर्जन की रिपोर्ट नहीं करता है, और इसे जलवायु योजनाओं या स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के लिए धातुएं कहां से प्राप्त की जाएं, इस बारे में निर्णयों में शायद ही कभी शामिल किया जाता है।
शोधकर्ताओं के मुताबिक निकेल को रीसायकल करना बेहद आसान है। निकेल इंस्टीट्यूट का भी कहना है कि करीब 68 फीसदी निकल को पहले ही रीसायकल किया जा रहा है। हालांकि 100 फीसदी रीसायकल करने के बाद भी हमें इलेक्ट्रिक कारों और अक्षय ऊर्जा जैसी प्रौद्योगिकियों के लिए अधिक निकेल की आवश्यकता होगी।
डॉक्टर मर्विन के मुताबिक चूंकि इसके खनन से बचा नहीं जा सकता, इसलिए कंपनियों को पुराने वर्षावनों और मैंग्रोव जैसे स्थानों पर खनन करने से बचना चाहिए, क्योंकि एक बार काटे जाने के बाद यह फिर से उसी तरह नहीं उग सकते।
उनका यह भी कहना है कि निकल खनन से होने वाला कार्बन उत्सर्जन इस बात पर निर्भर करता है कि खदान कहां स्थित है।
उनके मुताबिक कुछ निकल खदानों से करीब-करीब न के बराबर उत्सर्जन होता है, जबकि अन्य से बेहद अधिक कार्बन उत्सर्जित होता है। कुछ मामलों में तो यह खनन ट्रकों या कोयला जलाने वाली फैक्ट्रियों से भी ज्यादा होता है।
उन्होंने अध्ययन में इस बात पर भी जोर दिया है कि चाहे यह उत्सर्जन कम हो या ज्यादा इसे रिपोर्ट किया जाना आवश्यक है।
अध्ययन में इस बात पर भी जोर दिया गया है कि कंपनियों को वर्षावनों के बजाय रेगिस्तान जैसे कम वनस्पति वाले स्थानों पर खदानें विकसित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इसके साथ ही उनके पर्यावरण पर पड़ने वाले अन्य प्रभावों पर भी विचार करना चाहिए।
शोधकर्ताओं के मुताबिक खनन कंपनियों को निकेल की बढ़ती मांग को पूरा करते हुए भूमि पर बढ़ते और होते नुकसान को कम करने के लिए भी कदम उठाने चाहिए।
अध्ययन से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता लॉरा सोन्टर का कहना है कि, "सभी खनन स्थलों के लिए भूमि उपयोग और वन विनाश से होने वाले कार्बन उत्सर्जन पर नजर रखना और उसकी रिपोर्ट करना महत्वपूर्ण है।"
अध्ययन के मुताबिक इससे कम्पनियों, खरीददारों और सरकारों को स्वच्छ ऊर्जा और प्रौद्योगिकियों के लिए निकल कहां से प्राप्त किया जाए, इस बारे में बेहतर निर्णय लेने में मदद मिलेगी।