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विश्व एएमआर जागरूकता सप्ताह 2025: भारत में पशुपालन में बढ़ता एंटीबायोटिक उपयोग, बड़ी चुनौती

सरकार ने एंटीबायोटिक उपयोग पर नियंत्रण के लिए कई कदम उठाए हैं, लेकिन जागरूकता की कमी और नियमों का पालन न होना बड़ी चुनौतियां हैं
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सारांश
  • भारत में एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस (एएमआर) की समस्या पशुपालन में एंटीबायोटिक के बढ़ते उपयोग के कारण गंभीर होती जा रही है।

  • एएमआर के कारण बैक्टीरिया दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं, जिससे संक्रमण का इलाज मुश्किल हो जाता है।

  • सरकार ने एंटीबायोटिक उपयोग पर नियंत्रण के लिए कई कदम उठाए हैं, लेकिन जागरूकता की कमी और नियमों का पालन न होना बड़ी चुनौतियां हैं। 

एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस यानी एएमआर एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, जिसमें सूक्ष्मजीव समय के साथ दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं। जैसे हमारे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली बदलते संक्रमणों के अनुसार खुद को ढाल लेती है, उसी तरह माइक्रोब भी लगातार दवाओं के संपर्क में आकर बदलते हैं।

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जब बैक्टीरिया और अन्य सूक्ष्मजीव लंबे समय तक कम मात्रा की एंटीबायोटिक दवाओं के संपर्क में रहते हैं या फिर इलाज के दौरान दवाएँ पूरी अवधि तक नहीं ली जातीं, तो वे दवाओं के असर से बचने के लिए नए तरीके विकसित कर लेते हैं। परिणाम यह होता है कि वही दवाएं, जो पहले संक्रमण को आसानी से खत्म कर देती थीं, अब असरदार नहीं रह जातीं। इसे ही एंटीमाइक्रोबियल रेज़िस्टेंस कहा जाता है। यह स्थिति चिकित्सा विज्ञान की उपलब्धियों के लिए एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है और भविष्य में मानव तथा पशुओं दोनों के स्वास्थ्य पर गंभीर खतरा पैदा कर सकती है।

भारत में यह समस्या और भी गंभीर है, क्योंकि यहां लाखों ग्रामीण परिवारों की आजीविका पशुपालन से जुड़ी है। पशुधन अर्थव्यवस्था का एक अहम हिस्सा होने के बावजूद, इसमें एंटीबायोटिक दवाओं का अनियंत्रित उपयोग, पशु-चिकित्सा सेवाओं की कमी और नीतियों के क्रियान्वयन जैसी समस्याएँ एएमआर को और बढ़ा रही हैं।

एक अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि वर्ष 2050 तक बैक्टीरियल संक्रमण कैंसर की तुलना में अधिक लोगों की जान ले सकते हैं, क्योंकि वर्तमान में उपलब्ध एंटीबायोटिक दवाएं अपनी प्रभावशीलता खोती जा रही हैं। ऐसे में भारत के पशुधन क्षेत्र में एएमआर का बढ़ता खतरा न सिर्फ किसानों की आजीविका, बल्कि व्यापक सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए भी एक गंभीर संकट का संकेत है।

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दुनिया भर में मानव पोषण में पशु-आधारित उत्पादों का योगदान बेहद महत्वपूर्ण है। भारत में भी पशुधन क्षेत्र राष्ट्रीय जीडीपी में करीब 4.5 प्रतिशत का योगदान देता है और ग्रामीण आजीविका का एक मजबूत आधार है। बढ़ती आबादी की प्रोटीन जरूरतों को पूरा करने के लिए आज पशुपालन क्षेत्र कई वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग करता है। इनमें बेहतर पोषण, टीकाकरण, कृमिनाशन और स्वास्थ्य प्रबंधन से जुड़ी आधुनिक तकनीकें शामिल हैं, ताकि पशुओं की उत्पादकता को अधिकतम किया जा सके।

इसी क्रम में, एंटीबायोटिक ग्रोथ प्रमोटर्स का प्रयोग आम हो गया है। इनका उपयोग पशुओं की वृद्धि को तेज करने और संक्रमणों को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है। हालांकि, खराब पोषण, गंदगी और पशुओं की अत्यधिक भीड़भाड़ जैसे कारक अक्सर संक्रामक बीमारियों के फैलने का कारण बनते हैं, जिससे एंटीबायोटिक के प्रयोग में और वृद्धि होती है।

मानव चिकित्सा की तुलना में पशुधन क्षेत्र में एंटीबायोटिक का इस्तेमाल कहीं अधिक है। अनुमान है कि 2030 तक खाद्य पशुओं में एंटीमाइक्रोबियल खपत 2,00,235 टन तक पहुंच जाएगी। एशिया में उत्पादन प्रणालियों में आए बदलावों के कारण, पशु उत्पादन में एंटीबायोटिक उपयोग 2030 तक 46 प्रतिशत बढ़ने की संभावना है।

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गाय, मुर्गी और सूअर—इन तीन प्रमुख पशु वर्गों में औसत सालाना एंटीमाइक्रोबियल उपयोग क्रमशः 45, 148 और 1,172 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम उत्पाद दर्ज किया गया है। अमेरिकी एफडीए की 2021 रिपोर्ट के अनुसार, खाद्य पशुओं में एंटीमाइक्रोबियल उपयोग के मामले में भारत दुनिया में चौथे स्थान पर है। चीन, अमेरिका और ब्राज़ील के बाद भारत की हिस्सेदारी वर्तमान में 3 प्रतिशत है और 2030 तक इसके बढ़कर 4 प्रतिशत होने की उम्मीद है।

इस अवधि में सबसे अधिक उपयोग की जाने वाली दवाओं में टेट्रासाइक्लिन (65%), पेनिसिलिन (10%) और मैक्रोलाइड (9%) शामिल हैं।

भारतीय पशुधन क्षेत्र में तेजी से बढ़ते एएमआर (एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस) के खतरे को देखते हुए, भारत सरकार ने 2017-2021 के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना (एनएपी) ऑन एएमआर लागू की। इसमें चिकित्सकीय रूप से महत्वपूर्ण एंटीबायोटिक दवाओं पर रोक लगाने, गैर-चिकित्सीय एंटीबायोटिक उपयोग को धीरे-धीरे समाप्त करने और पशु उत्पादन में वैकल्पिक ग्रोथ प्रमोटरों को अपनाने की सिफारिश की गई थी।

सरकार ने पशु आहार में कोलिस्टिन, क्लोरैमफेनिकोल और नाइट्रोफ्यूरान जैसी एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया है। इसके साथ ही अन्य एंटीबायोटिक दवाओं के लिए “विदड्रॉल पीरियड” लागू करने और एंटीमाइक्रोबियल दवाओं के सावधानीपूर्वक उपयोग पर जोर देने जैसे महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं।

भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण ने भी ग्लाइकोपेप्टाइड्स, नाइट्रोइमिडाजोल, कारबैडॉक्स और स्ट्रेप्टोमाइसिन के उपयोग को खाद्य-उत्पादक पशुओं में प्रतिबंधित कर दिया है। प्राधिकरण ने यह भी सुनिश्चित किया है कि किसी भी एंटीमाइक्रोबियल दवा का उपयोग न सिर्फ फीड उत्पादन में, बल्कि पशुपालन की किसी भी गतिविधि जैसे दूध, मांस, अंडे और जलीय कृषि में न किया जाए।

पशुपालन और डेयरी विभाग पशु चिकित्सकों और पैरावेट्स के लिए प्रशिक्षण, दिशानिर्देश तैयार करने और एंटीबायोटिक के विकल्पों को बढ़ावा देने के जरिए एंटीबायोटिक दवाओं के जिम्मेदार उपयोग को प्रोत्साहित कर रहा है। जुलाई 2025 में भारत सरकार ने एक बड़ा कदम उठाते हुए 37 एंटीमाइक्रोबियल दवाओं, जिनमें 18 एंटीबायोटिक, 18 एंटीवायरल और एक एंटी-प्रोटोजोआ दवा शामिल है का उपयोग डेयरी पशुओं, अंडे देने वाले पक्षियों, मधुमक्खियों और मांस-उत्पादक पशुओं में पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया।

साथ ही, संबंधित सरकारी संस्थाओं ने निगरानी के दायरे का विस्तार करते हुए पशुओं और मनुष्यों दोनों को शामिल किया है, ताकि भारत में एएमआर की वास्तविक स्थिति का सही आकलन किया जा सके।

जागरूकता की भूमिका और चुनौतियां

एएमआर से निपटने में सरकार के प्रयास महत्वपूर्ण हैं, लेकिन आम जनता में जागरूकता भी उतनी ही जरूरी है। शहरी और ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों के पशुपालकों को टीकाकरण, साफ-सफाई और जिम्मेदार एंटीबायोटिक उपयोग जैसी रोकथाम आधारित पशु स्वास्थ्य पद्धतियों के प्रति जागरूक बनाना समय की आवश्यकता है।

हालाँकि देश इस दिशा में आगे बढ़ रहा है, लेकिन कई बड़ी चुनौतियां अब भी मौजूद हैं। जैसे-  अनौपचारिक और छोटे पैमाने पर होने वाले पशुपालन में नियमों का पालन कराना कठिन है। पशुपालकों का उत्पादकता को प्राथमिकता देना, सुरक्षा को नहीं, एएमआर की वास्तविक स्थिति पर भरोसेमंद डेटा की कमी और आम जनता में एएमआर और खाद्य सुरक्षा के बारे में सीमित समझ भी बड़ी चुनौतियां हैं।

इन बाधाओं के कारण एएमआर से निपटने की गति धीमी पड़ सकती है। इसलिए सरकारी नीतियों के साथ-साथ जागरूकता, प्रशिक्षण और जिम्मेदार व्यवहार अपनाना बेहद जरूरी है।

निष्कर्ष

भारत में धीरे-धीरे बढ़ता एएमआर एक वास्तविक संकट है। सरकार और अधिकतर हितधारक जैसे पशु चिकित्सक और नीति निर्माता अब इसकी गंभीरता को समझने लगे हैं और इससे निपटने के लिए कार्ययोजनाएं तैयार की जा रही हैं तथा लागू भी हो रही हैं। इसके बावजूद कई बड़ी चुनौतियां अब भी बनी हुई हैं।

भारतीय पशुधन क्षेत्र में एएमआर की वास्तविक स्थिति क्या है, यह विभिन्न पशु प्रजातियों को किस स्तर पर प्रभावित कर रहा है, और दो सबसे महत्वपूर्ण समूहों पशु चिकित्सकों और पशुपालकों के बीच जागरूकता कैसे बढ़ाई जाए, इन सभी मोर्चों पर काम की गति अभी भी धीमी है।

एएमआर के खतरे से निपटने का सबसे प्रभावी हथियार व्यापक जागरूकता और स्पष्ट रूप से यह बताना है कि क्या करें और क्या न करें। वर्ष 2025 इस दिशा में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो रहा है, क्योंकि प्रभावी नीतिगत कदम और हितधारकों के बीच सहयोग ने सतत पशु स्वास्थ्य की मजबूत नींव रखनी शुरू कर दी है।

हालाँकि, सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि नीतियों का क्रियान्वयन कितना सख्ती से हो पाता है, जमीनी स्तर पर शिक्षा कितनी व्यापक होती है, और कितनी गंभीरता से वन हेल्थ दृष्टिकोण अपनाया जाता है।

अंजू काला, आईसीएआर–भारतीय पशु चिकित्सकीय अनुसंधान संस्थान के पशु पोषण प्रभाग में वरिष्ठ वैज्ञानिक (सीनियर स्केल) हैं

अभिषेक सी. सक्सेना, आईसीएआर–भारतीय पशु चिकित्सकीय अनुसंधान संस्थान में वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं

इस लेख में व्यक्त विचार लेखकों के स्वयं के हैं और जरूरी नहीं कि डाउन टू अर्थ की राय को प्रतिबिंबित करते हों।

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