उत्तर प्रदेश: यमुना किनारे शव दफनाने की घटनाओं ने बढ़ाई ग्रामीणों की चिंता

कोरोना से बढ़ती मौतों के चलते रेत में शवों के दफनाने की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं
प्रयागराज से 10 किलोमीटर दूर बसे गांव बसवार के लोग कुछ दूरी पर बह रही यमुना के रेत में शवों को दफनाने की बढ़ती घटनाओं से चिंतित हैं। फोटो: गौरव गुलमोहर
प्रयागराज से 10 किलोमीटर दूर बसे गांव बसवार के लोग कुछ दूरी पर बह रही यमुना के रेत में शवों को दफनाने की बढ़ती घटनाओं से चिंतित हैं। फोटो: गौरव गुलमोहर
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गौरव गुलमोहर

"पहले दूसरे गांव से बंसवार के जमुना किनारे (यमुना) लाश नहीं आती थी लेकिन कोरोना की दूसरी लहर के बाद बारापुरवा, सेमरा, मुरलीपुर, बोंगा जैसे दूर-दराज के कई गांवों से लाशें आने लगी हैं। बाहर की लाशें आने से हमारे गांव में कोरोना फैल सकता था इसलिए हम लोगों ने गांव से लाशें जाने से रोक दिया। यहां यमुना की रेत में इसलिए कम लाशें दफ़्न हैं वर्ना अबतक जगह न बचती।" बबलू निषाद ने डाउन टू अर्थ को बताया।

बबलू निषाद बसवार के स्थायी निवासी हैं। बसवार उत्तर प्रदेश के प्रयागराज (इलाहाबाद) शहर से दक्षिण दिशा में दस किलोमीटर दूरी पर यमुना नदी के किनारे बसा है। डाउन टू अर्थ जब यहां पहुंचा तो यहां यमुना के बीच हाल ही में 15 से 20 शव दफन किए गए हैं। रेत में दफन शवों पर फल व फूल चढ़ाए गए हैं। हालांकि यह कह पाना मुश्किल है कि इसमें कितने शव कोरोना संक्रमित हैं?

बारिश होने से यमुना का जलस्तर बढ़ रहा है, लेकिन रेत में जहां शव दफन हैं, ऊंचाई पर होने के कारण वहां तक पानी नहीं पहुंचा है। गांव वालों के अनुसार पहले यमुना के बीच में सिर्फ बसवार के लोगों के शव ही दफन किए जाते थे, लेकिन कोरोना की दूसरी लहर के बाद बसवार के पास यमुना में दफन करने के लिए ज्यादा लाशें आने लगीं।

बबलू निषाद ने बताया कि जिसके पास लकड़ियों की व्यवस्था होती है वे लाश को जलाते हैं जिसके पास व्यवस्था नहीं होती वे दफ़्न करते हैं। हम रेत में लाश को दफ़्न करने के लिए 6 फिट लंबा, 4 फिट चौड़ा और 4-5 फिट गहरा गड्ढा खोदकर लाश के नीचे-ऊपर लगभग 50 किलो नमक डालते हैं जिससे लाश 7 से 8 दिन में जल जाए। ऐसा करने से बाढ़ आने के बाद लाशें ऊपर नहीं आती। हड्डियां रेत में ही दबी रहती हैं।"

बसवार गांव यमुना किनारे बसा है। गांव की कुल आबादी लगभग 5552 है जिसमें मुख्यतः निषाद, नाई, गड़ेरिया, यादव और अनुसूचित जातियों के लोग रहते हैं। घनी आबादी वाले बसवार गांव में ही इलाहाबाद शहर से प्रतिदिन लगभग 600 टन निकलने वाले कचड़े का निस्तारण प्लांट लगा है। गांव के बूढ़े, बच्चे, जवान, महिलाएं पिछले पांच सालों से सांस, बुखार, फोड़ा-फुंसी, दमा और कैंसर जैसी कई बीमारियों के मुहाने पर हैं। बसवार के लोगों के लिए कोरोना से निपटना किसी चुनौती से कम साबित नहीं हो रहा है।

बसवार गांव में पिछले दस दिनों में दस से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। अभी तक गांव में किसी ने कोरोना जांच नहीं कराया और न ही कोरोना टीका लगवाने अस्पताल गया। गांव की नन्हकी देवी (37) की मौत तीन दिन पहले बुखार से हो गई। परिवार द्वारा नन्हकी की बीमारी के बताए गए सारे लक्षण प्रथम दृष्टया कोरोना के लगते हैं लेकिन नन्हकी का अंत समय तक कोरोना जांच नहीं हो पाई। नन्हकी के पति राम बरन निषाद यमुना में मछली मारने का काम करते हैं।

वे बताते हैं कि "नन्हकी के शरीर में पहले दर्द उठा, बुखार आया और सांस लेने में दिक्कत हो रही थी। गांव के एक डॉक्टर से दवा ले रहे थे, ग्लूकोज भी चढ़वाया लेकिन आराम नहीं हुआ। अंत में लोगों से पैसे लेकर किसी तरह भूमि अस्पताल (निजी) में भर्ती कराया वहां दो दिन बाद मौत हो गई। अस्पताल में सिटी स्कैन और छाती का एक्सरे हुआ लेकिन कोरोना जांच नहीं हुई।"

2009 में बसवार गांव में एक उप-सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र बनाया गया लेकिन वर्षों से बंद पड़ा है। 

नरेंद्र कुमार विश्वकर्मा कई दिनों से बुखार से पीड़ित हैं। लेकिन कोरोना जांच कराने अस्पताल नहीं जा रहे हैं और गांव के किसी झोलाछाप से दवा ले रहे हैं। दवा की पुड़िया दिखाते हुए कहते हैं कि "गांव में हर घर में खांसी, बुखार है। हमारे गांव के झोलाछाप अच्छे हैं। वहीं जिलाये हैं। पिछली बार लॉकडाउन में न सर्दी आया न जुखाम आया लेकिन इस बार बहुत हादसा हुआ है। शहर जो दवा लाने गया वो वापस नहीं आया।"

वहीं बसवार की आशा वर्कर रानी निषाद बताती हैं कि "हम नहीं बता सकते कि गांव में कौन कोरोना संक्रमित है और कौन नहीं है। हर घर में किसी न किसी को जुखाम खासी है ही लेकिन लोग गांव के डॉक्टर (झोलाछाप) से दवा लेकर ठीक हो जा रहे हैं। कोरोना की डर से लोग हमसे दवा नहीं लेते हैं और न ही कोरोना जांच कराने अस्पताल तक जाते हैं।"

यमुना में लाशों के दफ़नाने को नदी और नदी से जुड़ी संस्कृति के विशेषज्ञ डॉक्टर रमाशंकर सिंह कहते हैं कि "इससे नदी की पारिस्थितिकी संकटग्रस्त हो गई है, अब नदी की लाशों को गलाने की अपनी क्षमता ख़तम हो चुकी है। इस समय नदियों के बेसिन में लाशों को दफ़न करना नदी किनारे रहने वाले लोगों और उस पर आश्रित जानवरों के ज़रिए बीमारियों को न्योता देना है।"

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