इम्यूनिटी की समझ : कितनी आसान, कितनी मुश्किल ?

इम्यूनिटी किसी एक वस्तु को खाकर या न खाकर नहीं बढ़ायी जा सकती और न कोई एक अच्छा-बुरा आचार उसके लिए जिम्मेदार ही है
Photo: istockphoto
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इम्यूनिटी यानी प्रतिरक्षा शब्द जितना विज्ञान में इस्तेमाल होता है , उससे कहीं अधिक आम बोलचाल में। वैज्ञानिकों और डॉक्टरों से अलग आम सामान्य जन इन शब्दों को ढीले-ढाले ढंग से प्रयोग करते हैं। आपको बार-बार ज़ुकाम होता है ? लगता है आपकी प्रतिरोधक क्षमता कम है! आप को कमजोरी महसूस होती है? डॉक्टर से अपनी इम्यूनिटी की जाँच कराइए और पूछिए कि इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए क्या खाएं, कैसे रहें , कैसा जीवन जिएं! 

इम्यूनिटी को समझने के लिए शरीर के एक मूल व्यवहार को समझना जरूरी है। सभी जीवों के शरीर निज और पर का भेद समझते हैं। वे जानते हैं कि क्या उनका अपना है और क्या पराया। शरीरों के लिए अपने-पराये की यह पहचान रखनी बेहद जरूरी होती है। अपनों की रक्षा करनी है, परायों से सावधान रहना है। जो पराये आक्रमण करने आये हैं --- उनसे लड़ना है , उन्हें नष्ट करना है। 
शरीर का प्रतिरक्षक तन्त्र यानी इम्यून सिस्टम इसे अपनत्व-परत्व के भेद को बहुत भली-भांति जानता है। उदाहरण के लिए, मनुष्य के शरीर की प्रतिरक्षक कोशिकाओं को पता चल जाता है कि अमुक कोशिका अपने रक्त की है और अमुक बाहर से आई जीवाणु-कोशिका है।

फिर वह अपने परिवार की रक्त-कोशिका से अलग बर्ताव करता है और बाहर से आयी जीवाणु-कोशिका से अलग। यह भिन्न-भिन्न बर्ताव प्रतिरक्षा-तन्त्र के लिए बेहद जरूरी है। जब तक पहचान न हो सकेगी , रक्षा भला कैसे होगी !
प्रतिरक्षा-तन्त्र को लोग जितना सरल समझ लेते हैं, उससे यह कहीं बहुत-ही ज्यादा जटिल है। इम्यूनिटी किसी एक वस्तु को खाकर या न खाकर नहीं बढ़ायी जा सकती और न कोई एक अच्छा-बुरा आचार उसके लिए जिम्मेदार ही है।

प्रतिरक्षा-तन्त्र में अनेक रसायन हैं, भिन्न-भिन्न प्रकार की कोशिकाएं हैं। इन सब का कार्य-कलाप भी अलग-अलग है। यह एक ऐसे हजार-हजार तारों वाले संगीत-यन्त्र की तरह जिसके एक तार को समझकर या बजाकर उत्तम संगीत न समझा जा सकता है और न बजाया ही। 
जटिलता के अलावा प्रतिरक्षा-तन्त्र का दूसरा गुण सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होना है। प्रतिरक्षक कोशिकाएं हर जगह गश्त लगाती हैं या पायी जाती हैं: रक्त में, त्वचा के नीचे , फेफड़ों व आंतों में, मस्तिष्क व यकृत में भी। इस जटिल सर्वव्याप्त तन्त्र के दो मोटे हिस्से हैं: पहला अंतस्थ प्रतिरक्षा-तन्त्र और दूसरा अर्जित प्रतिरक्षा-तन्त्र। इम्यून सिस्टम के इन दोनों हिस्सों को समझकर ही हम इसके कार्यकलाप का कुछ आकलन कर सकते हैं।
अन्तःस्थ का अर्थ है जो पहले से हमारे भीतर मौजूद हो। अंग्रेजी में इसे इनेट कहते हैं। प्रतिरक्षा-तन्त्र के इस हिस्से में वह संरचनाएं, वह रसायन और वह कोशिकाएं आती हैं , जो प्राचीन समय से जीवों के पास रहती रही हैं। यानी वह केवल मनुष्यों में ही हों, ऐसा नहीं है; अन्य जीव-जन्तुओं में भी उन-जैसी संरचनाएं-रसायन-कोशिकाएं पाई जाती हैं, जो संक्रमणों से शरीर की रक्षा करती हैं।
उदाहरण के तौर पर हमारी त्वचा की दीवार और आमाशय में पाए जाने वाले हायड्रोक्लोरिक अम्ल को ले लीजिए। ये संरचना और रसायन अनेक जीवों में पाये जाते हैं और इनका काम उन जीवों को बाहरी कीटाणुओं से बचाना होता है। इसी तरह से हमारे शरीर के मौजूद अनेक न्यूट्रोफिल व मोनोसाइट जैसी प्रतिरक्षक कोशिकाएँ हैं। ये सभी अन्तस्थ तौर पर हम-सभी मनुष्यों के भीतर मौजूद हैं।
अन्तःस्थ प्रतिरक्षा-तन्त्र सबसे पहले किसी कीटाणु के शरीर में दाखिल होने पर उससे मुठभेड़ करता है। पर यह बहुत उन्नत और विशिष्ट नहीं होता। इस तन्त्र की कोशिकाओं की अलग-अलग शत्रुओं की पहचान करने की ट्रेनिंग नहीं होती।

शत्रु को मुठभेड़ में नष्ट कर देने के बाद ये कोशिकाएं इस युद्ध की कोई स्मृति यानी मेमोरी भी नहीं रखतीं। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए अब तनिक प्रतिरक्षा-तन्त्र के दूसरे हिस्से अर्जित प्रतिरक्षा-तन्त्र को समझिए। 
अर्जित का अर्थ होता है अक्वायर्ड। वह जो हमारे पास है नहीं , हमें पाना है। वह जो विरासत में नहीं मिला , बनाना पड़ेगा। प्रतिरक्षा-तन्त्र का यह अधिक उन्नति भाग है। इसके रसायन और कोशिकाएँ विशिष्ट होते हैं , यानी ख़ास रसायन और कोशिकाएं खास शत्रु-कीटाणुओं से लड़ते हैं। प्रत्येक किस्म के कीटाणुओं के शरीर में प्रवेश करने पर खास किस्म की प्रतिरक्षक कोशिकाओं का विकास किया जाता है, जो कीटाणुओं से लड़कर उन्हें नष्ट करती हैं। लड़ाई में इन कीटाणुओं को हारने के बाद ये कोशिकाएं अपने भीतर इन हराये गये कीटाणुओं की स्मृति रखती हैं, ताकि भविष्य में दुबारा आक्रमण होने पर और अधिक आसानी से इन्हें हरा सकें। लिम्फोसाइट-कोशिकाएँ अर्जित प्रतिरक्षा-तन्त्र की प्रमुख कोशिकाओं का प्रकार हैं। 
अन्तःस्थ और अर्जित , प्रतिरक्षा-तन्त्र के दोनों हिस्से मिलकर के शत्रु-कीटाणुओं से लड़ते हैं। किसी संक्रमण में अन्तःस्थ प्रतिरक्षा अधिक काम आती है , किसी में अर्जित प्रतिरक्षा , तो किसी में दोनों। इतना ही नहीं कैंसर-जैसे रोगों में भी प्रतिरक्षा तन्त्र की कोशिकाएं लड़कर उससे शरीर को बचाने का प्रयास करती हैं। कैंसर-कोशिकाएं यद्यपि शरीर के भीतर ही पैदा होती हैं , किन्तु उनके सामने पड़ने पर प्रतिरक्षा-तन्त्र यह जान जाता है कि ये कोशिकाएं वास्तव में अपनी नहीं हैं , बल्कि परायी व हानिकारक हैं। ऐसे में प्रतिरक्षा-तन्त्र कैंसर-कोशिकाओं को तरह-तरह से नष्ट करने का प्रयास करता है। 
वहीं, अर्जित प्रतिरक्षा-तन्त्र का विकास संक्रमण से हो सकता है और वैक्सीन लगा कर भी। संक्रमण से होने वाला विकास प्राकृतिक है और टीके ( वैक्सीन ) द्वारा होने वाला विकास मानव-निर्मित होता है। 
वर्तमान कोविड-19 पैंडेमिक ( वैश्विक महामारी ) एक विषाणु सार्स-सीओवी 2 के कारण हो रही है। इस विषाणु के शरीर में प्रवेश करने के बाद प्रतिरक्षा-तन्त्र के दोनों हिस्से अन्तःस्थ व अर्जित प्रतिरक्षा-तन्त्र सक्रिय हो जाते हैं। वे विषाणुओं से भरी कोशिकाओं को तरह-तरह से नष्ट करने की कोशिश करते हैं। चूंकि यह विषाणु नया है , इसलिए ज़ाहिर है कि अन्तःस्थ प्रतिरक्षा-तन्त्र इससे सुरक्षा में बहुत योगदान नहीं दे पाता। ऐसे में अर्जित प्रतिरक्षा तन्त्र पर ही यह ज़िम्मा आ पड़ता है कि वह उचित कोशिकाओं व रसायनों का विकास करके इस विषाणु से शरीर की रक्षा करे।  
मनुष्य के प्रतिरक्षा-तन्त्र के लिए यह संक्रमण नया है , वह उसे समझने और फिर लड़ने में लगा हुआ है। ऐसे में उचित टीके ( वैक्सीन ) के निर्माण से हम प्रतिरक्षा-तन्त्र की उचित ट्रेनिंग कराकर अर्जित प्रतिरक्षा को मजबूत कर सकते हैं। उचित प्रशिक्षण पायी योद्धा-कोशिकाओं के पहले से मौजूद होने पर शरीर के भीतर जब सार्स-सीओवी 2 दाखिल होगा , तब ये कोशिकाएँ उसे आसानी से नष्ट कर सकेंगी। किन्तु सफल वैक्सीन के निर्माण व प्रयोग में अभी साल-डेढ़ साल से अधिक का समय लग सकता है , ऐसा विशेषज्ञों का मानना है। 
अपने व पराये रसायनों व कीटाणुओं में भेद , जटिलता और शरीर-भर में उपस्थिति और अन्तःस्थ व अर्जित के रूप में दो प्रकार होना प्रतिरक्षा-तन्त्र की महत्त्वपूर्ण विशिष्टताएँ हैं। इस प्रतिरक्षा तन्त्र को न आसानी से समझा जा सकता है और न केवल प्रयासों से हमेशा स्वस्थ रखा जा सकता है। प्रतिरक्षा-तन्त्र काफ़ी हद तक हमारी आनुवंशिकी यानी जेनेटिक्स पर भी निर्भर रहता है। कोशिकाओं के भीतर स्वस्थ जीन ही आएँ , इसके लिए हम बहुत-कुछ कर नहीं सकते। नीचे बताये गये चार विषयों पर किन्तु हम ज़रूर ध्यान दे सकते हैं ; साथ ही आसपास के पर्यावरण से प्रदूषण को घटाकर प्रतिरक्षा-तन्त्र को स्वस्थ रखने का साझा प्रयास भी कर सकते हैं। 
1 ) सही और सन्तुलित भोजन का सेवन। 
2 ) निरन्तर शारीरिक व मानसिक व्यायाम। 
3 ) उचित निद्रा व तनाव से मुक्ति। 
4 ) नशे से दूरी। 
यह ध्यान रखना चाहिए कि जिस तरह से कोई केवल पढ़ने से पास नहीं हो सकता , उसी तरह केवल कोशिश करने से इम्यून सिस्टम को मज़बूत नहीं किया जा सकता है। क्योंकि पढ़ना पास होने की कोशिश है , पास होने की गारंटी नहीं। उसी तरह प्रतिरक्षा-तन्त्र को सही खा कर , ठीक से सो कर , नशा न करके, तनाव से दूर रहकर व व्यायाम द्वारा स्वस्थ रहने की केवल कोशिश की जा सकती है। 
व्यक्तिगत और सार्वजनिक पर्यावरण को यथासम्भव स्वस्थ रखना ही प्रतिरक्षा-तन्त्र के सुचारु कामकाज के लिए हमारा योगदान हो सकता है। आनुवंशिकी तो फिर जैसी है , वैसी है ही। 
(लेखक डॉ.स्कन्द शुक्ल चिकित्सा विज्ञान और प्रतिरक्षा विषय के विशेषज्ञ हैं।)

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