भारत से चेचक खत्म करने में इन महिलाओं की रही है बड़ी भूमिका

20वीं सदी में चेचक की वजह से लगभग 30 करोड़ लोगों की मौत हो गई थी, भारत में 1970 में इसे रोकने का अभियान शुरू किया गया है और इन महिलाओं की वजह से इस पर बीमारी पर अंकुश लगा
Photo: Creative commons
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चेचक (स्मॉलपॉक्स) उन कुछ बीमारियों में से एक है, जिन्हें इंसानों ने अपनी लगातार कोशिशों से खत्म कर दिया है, लेकिन 1977 में इसके खात्मे से पहले सिर्फ 20वीं सदी में ही इसने 30 करोड़ लोगों की जान ली। तेजी से फैलने वाले इस रोग के लक्षण थे, बुखार आना और शरीर पर लाल चकत्ते पड़ना। हालांकि अधिकतर लोगों को इस बीमारी से बचा लिया गया, फिर भी 10 में से तीन लोग चेचक की वजह से मारे गए।

अपने आकार, भौगोलिक जटिलता और बड़ी आबादी के चलते चेचक को जड़ से मिटाने के लिए सबसे मुश्किल जगहों में भारत शामिल था। सरकार की तरफ से 1962 में चेचक को खत्म करने के लिए राष्ट्रीय अभियान चलाने के बाद भी पूरी जनसंख्या को टीका लगाना अपने आप में चुनौतीपूर्ण काम था, खासतौर पर जब देश की आबादी तेजी से बढ़ती जा रही थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन और उसके राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवकों की कोशिशों के बिना यह रोग शायद कभी खत्म ही नहीं हो पाता। भारत ने 1970 में इनके अभियान को अपनाया था।

यूनिवर्सिटी ऑफ यॉर्क की रिसर्च फैलो नम्रता गनेरी ने भारत के चेचक प्रोग्राम पर रिसर्च की, जिसमें उन्होंने कई अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवकों द्वारा लिखे गए संस्मरणों को पढ़ा। इन स्वयंसेवकों में कई महिलाएं भी शामिल थीं, जिनके योगदान को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। इसमें स्विस-फ्रेंच माइक्राबायोलॉजिस्ट-एपिडेमोलॉजिस्ट डॉ निकोल ग्रासेट शामिल हैं, जो दक्षिण-पूर्वी एशियाई क्षेत्र की स्मॉल पॉक्स यूनिट की हेड थीं। रिसर्च करते हुए नम्रता को मैरी गिनन और कॉर्नेलिया ई डेविस के अनुभवों के बारे में पता चला, जिन्होंने भारत में चेचक खत्म करने के समय के बारे में संस्मरण लिखे थे।

मैरी गिनन

अमेरिकी डॉक्टर मैरी गिनन चिकित्सकीय पेशे में तब आई जब उन्हें समझ आया कि वे अंतरिक्षयात्री नहीं बन सकतीं, क्योंकि महिलाओं को इसकी अनुमति नहीं थी। गिनन तब अमेरिका के सेंटर फॉर डिसीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) में एपिडेमिक इंटेलीजेंस सर्विस (ईआईएस) प्रोग्राम के तहत दो साल की ट्रेनिंग ले रही थीं, जब उन्होंने भारत में चल रहे चेचक को खत्म करने के अभियान में भागीदारी करने के लिए दो बार आवेदन दिया। ईआईएस प्रोग्राम के डायरेक्टर ने उन्हें बताया कि भारत ने इस प्रोग्राम में महिला स्वयंसेवकों के प्रवेश को अनुमति नहीं दी है।

उन्होंने इस मसले को विश्व स्वास्थ्य संगठन और भारत की महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सामने रखा। गिनन की दृढ़ इच्छाशक्ति के चलते उन्हें भारत आकर तीन महीने के लिए चेचक प्रोग्राम में काम करने की अनुमति मिली। 1975 में जब वे भारत आईं तो चेचक उत्तर भारतीय राज्यों तक ही सीमित था। उन्होंने उत्तर प्रदेश कानपुर और रामपुर जिलों में काम करने के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर चेचक के मामलों की पड़ताल की और लोगों को टीके लगाए। उनके भारत से जाने के एक महीने बाद उस क्षेत्र को चेचक मुक्त घोषित कर दिया गया।

कॉर्नेलिया ई डेविस

इस अभियान में भाग लेने वाली एक अन्य महिला थीं अफ्रीकी-अमेरिकी डॉक्टर कॉर्नेलिया ई डेविस, जो 1968 में यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफॉर्निया के मेडिकल स्कूल में दाखिला लेने वाली कुछ महिलाओं में से एक थीं। उन्हें वहां पढ़ने के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी थी। डेविस ने भारत में दो साल तक काम किया। उन्हें सबसे पहले पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग, जलपाईगुड़ी और कूच बिहार जैसे पहाड़ी जिलों का काम सौंपा गया। इन क्षेत्रों का बुनियादी ढांचा खस्ताहाल था और डेविस को दूर-दराज के इलाकों तक जाने के लिए धान के खेतों से गुजरते हुए पैदल जाना पड़ता था। इस समय तक चेचक अभियान का पूरा ध्यान सिर्फ बुखार और शरीर पर पड़ने वाले चकत्तों की निगरानी करने और मृत्यु में तब्दील होने वाले चेचक के संदिग्ध मामलों के नमूने लेने तक सीमित था। इस अभियान के तहत चेचक के नए मामले की जानकारी देने वाले पहले व्यक्ति को नकद पुरस्कार देने की भी शुरुआत की गई।

डेविस ने बांग्लादेश में भी चेचक की अफवाहों की जांच की और सीमांत इलाकों में रहने वाले लोगों को टीके लगाए। इस प्रयास से चेचक को उनके क्षेत्र में आने से रोकने में मदद मिली। उन्हें पदोन्नति देकर राजस्थान का इंचार्ज बनाया गया जहां वे 18 महीने रहीं। उन्होंने चेचक के सर्च रिकॉर्ड का सर्वे किया और अप्रैल 1977 में इंटरनेशनल सर्टिफिकेशन टीम की अगुवाई की। इस टीम ने मेडिकल डॉक्यूमेंट्स को मॉनिटर किया, कई इलाकों में औचक निरीक्षण किया और 23 अप्रैल, 1977 को भारत को चेचक मुक्त घोषित किया।

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