स्वास्थ्य के क्षेत्र में बीमा केंद्रित दृष्टिकोण महामारी के दौरान कितना प्रभावी रहा? कोरोना काल में बीमाधारकों के अनुभव बताते हैं कि उन्हें वादों के अनुरूप बीमा का लाभ नहीं मिला। ऐसे में क्या सरकार स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे पर फिर से अपना ध्यान केंद्रित करेगी? हम एक लंबी सीरीज के जरिए आपको बीमा के उन अनुभवों और सच्चाईयों से वाकिफ कराएंगे जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत जब थी, तब वह लोगों को नहीं मिला...। इससे पहले की कड़ियों के लिंक नीचे दिए गए हैं। आज पढ़ें, पांचवी कड़ी ...
अदालतों को देना पड़ा दखल
जैसे-जैसे मामले बढ़ने लगे, बीमा कंपनियों ने कोविड-19 के कैशलेस इलाज के भुगतान से इनकार करना शुरू कर दिया। नाम न छापने की शर्त पर एक जनरल इंश्योरेंस कंपनी के अधिकारी कहते हैं, “अस्पतालों के दृष्टिकोण से देखें तो उन्हें अस्पताल चलाने के लिए तुरंत पैसे चाहिए थे। वे बिलों को ऑनलाइन अपलोड करने और फिर भुगतान मांगने के झंझट से बचना चाह रहे थे।”
बीते दो वर्षों के दौरान जबसे महामारी शुरू हुई है, स्वास्थ्य बीमा से संबंधित मुद्दों को हल करने के लिए कोर्ट को कई बार दखल देना पड़ा है। 28 अप्रैल 2021 को दिल्ली हाई कोर्ट ने सभी बीमा कंपनियों को आदेश दिया कि वे इंश्योरेंस क्लेम का प्रोसेस 30 से 60 मिनट में करें, ताकि मरीजों को छुट्टी मिलने में देरी न हो और क्लेम की प्रोसेसिंग में होने वाली देरी के कारण अस्पताल के बेड ब्लॉक न हों। इसके बाद बीमा नियामक विकास प्राधिकरण (इरडा) ने इंश्योरेंस कंपनियों से कहा कि वो कोविड के कैशलेस ट्रीटमेंट क्लेम के ऑथराइजेशन के बारे में जो भी निर्णय लेती हैं, उसके बारे में नेटवर्क प्रोवाइडर्स को एक घंटे के अंदर बता दें।
जब पूरे देश के साथ ही खासतौर पर राष्ट्रीय राजधानी में बेड की कमी गंभीर समस्या बन गई, तब दिल्ली उच्च न्यायालय की तरफ से घर पर देखभाल के इंश्योरेंस कवर का मुद्दा भी उठाया गया। कोर्ट ने मई 2021 में इरडा को उन मरीजों के मामलों पर विचार करने को कहा, जिन्हें बुनियादी संसाधनों की कमी की वजह से घर पर ही इलाज कराना पड़ा था। ऐसे मामलों में बीमा के दावों पर विचार करने को कहा गया। इससे पहले जून 2020 में इरडा ने एक सर्कुलर जारी कर बीमा कंपनियों से कुछ निश्चित शर्तों के तहत अधिकतम 14 दिनों तक घर पर कोविड के इलाज का खर्च कवर करने के लिए कहा था। कोर्ट के आदेश के पालन में निगरानी एजेंसी ने जुलाई 2021 में फिर से इस बारे में एक रिमाइंडर जारी किया।
एक बड़ी समस्या अधिकतर बीमा कंपनियों की ओर से होम केयर के लिए 15 से 20 हजार रुपए की सीमा तय कर देना भी थी। लेकिन, यह सीमा उन मरीजों के लिए नाकाफी साबित हो रही थी, जिन्हें ऑक्सीजन सिलिंडर और इससे जुड़े रेग्युलेटर, नर्सिंग चार्ज, अन्य जरूरी इंजेक्शन व दवाओं के खर्च झेलने पड़ रहे थे।
बढ़ती लागत
इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि इस दौरान औसत दावा राशि में काफी ज्यादा बढ़ोतरी हुई, जिससे पता चलता है कि अस्पतालों ने ज्यादा फीस वसूली। इस अवधि के दौरान निपटाए गए दावों का औसत 99 हजार से 1 लाख रुपए के बीच रहा। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ, दिल्ली के असोसिएट प्रोफेसर मयूर त्रिवेदी दावा करते हैं कि यह कोविड काल से पहले के 39 हजार रुपए के औसत दावे से तीन गुना से अधिक है। त्रिवेदी ने यह गणना कुल दावा राशि और दावों की संख्या से संबंधित इरडा के डेटा के आधार पर की है।
हाल ही में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, दिल्ली के प्रोफेसर मनोज कुमार की ओर से 400 लोगों पर उनके कोविड ट्रीटमेंट पर किए गए खर्च को लेकर सर्वे किया। इसमें पाया गया कि कोविड पर हुआ खर्च सामान्य दिनों में दिल और फेफड़ों दोनों की बीमारियों पर होने वाले संयुक्त खर्च से भी आगे निकल गया। वहीं, पूर्व कोविड परिदृश्य में कोविड ट्रीटमेंट की औसत लागत सरकारी अस्पताल में 1,12,179 रुपए और निजी अस्पताल में 2,97,577 रुपए थी। सभी लक्षणों जैसे कि अज्ञात कारण से हुए बुखार, बुखार के साथ या उसके बिना सांस से संबंधित समस्या और इसके साथ ही दिल की बीमारी, सीने में दर्द व सांस फूलने के इलाज की लागत सरकारी अस्पताल में 4,622 रुपए और निजी अस्पताल में 28,932 रुपए थी।
परिणामस्वरूप बीमा कंपनियां नुकसान उठाने का दावा करते हुए इरडा से पॉलिसीज के पुनर्मूल्यांकन की मांग कर रही हैं। इतना ही नहीं, कई बीमा कंपनियों ने कोरोना कवच पॉलिसी की बिक्री या नवीनीकरण बंद कर दिया है। 11 बीमा कंपनियों पर किए गए सर्वे में पता चला कि इनमें से कम से कम सात कंपनियों ने वेबसाइट पर इस पॉलिसी का ऑफर देने के बाद भी इसका नवीनीकरण करना या बेचना बंद कर दिया है।
बीमा कंपनियां भले ही खराब प्रदर्शन के लिए महामारी को जिम्मेदार ठहरा रही हैं, लेकिन कोविड से पहले भी उनका क्लेम सेटलमेंट रेशियो भी उत्साहजनक नहीं था। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय के 75वें स्वास्थ्य दौर (2017-18) के अनुमानों से पता चलता है कि विभिन्न परिवारों की ओर से ली गई इंश्योरेंस पॉलिसी पर बीमा कंपनियों ने अस्पताल में भर्ती मरीजों के चिकित्सा खर्च का केवल 56.51 फीसदी ही अदा किया, जबकि बाकी 43.5 फीसदी खर्च लोगों को उनकी जेब से भरना पड़ा।
सेंट्रल गर्वनमेंट हेल्थ स्कीम और इम्प्लॉयमेंट स्टेट इंश्योरेंस स्कीम के तहत किए गए क्लेम के भुगतान का हिस्सा भी काफी कम दर्ज हो रहा है। 2017-18 में सेंट्रल गवर्नमेंट हेल्थ स्कीम में यह 49.57 प्रतिशत और इम्प्लॉयमेंट स्टेट इंश्योरेंस स्कीम के तहत यह 47.92 प्रतिशत ही रहा। इससे संकेत मिलता है कि नियोक्ताओं की तरफ से उपलब्ध कराई गईं सोशल इंश्योरेंस स्कीम्स के तहत भी अस्पताल में भर्ती मरीज के इलाज पर हुए खर्च के लिए इंश्योरेंस क्लेम का निपटान नहीं किया गया। यह हालात तब हैं जब अब इन दोनों स्कीम के तहत बड़ी संख्या में मरीजों का प्राइवेट अस्पतालों में इलाज किया जा रहा है।
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