स्वास्थ्य के क्षेत्र में बीमा केंद्रित दृष्टिकोण महामारी के दौरान कितना प्रभावी रहा? कोरोना काल में बीमाधारकों के अनुभव बताते हैं कि उन्हें वादों के अनुरूप बीमा का लाभ नहीं मिला। ऐसे में क्या सरकार स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे पर फिर से अपना ध्यान केंद्रित करेगी? हम एक लंबी सीरीज के जरिए आपको बीमा के उन अनुभवों और सच्चाईयों से वाकिफ कराएंगे जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत जब थी, तब वह लोगों को नहीं मिला...। इससे पहले की कड़ियों के लिंक नीचे दिए गए हैं। आज पढ़ें, छठी कड़ी ...
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज के लिए सिर्फ इंश्योरेंस पर ही निर्भर नहीं रह सकती है। दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संगठन जन स्वास्थ्य अभियान की राष्ट्रीय संयुक्त संयोजक सुलक्षणा नंदी कहती हैं, “संकट के समय भी सरकार निजी क्षेत्र को विनियमित नहीं कर सकी। यह इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि सामान्य तौर पर संकट के समय सरकार जिला कलेक्टरों व अन्य अधिकारियों को अस्थायी तौर पर बहुत सारी शक्तियां प्रदान करती है। इसके बावजूद सरकारी मशीनरी निजी क्षेत्र के खिलाड़ियों की ओर से बड़े पैमाने पर किए गए कदाचार की जांच करने में असफल साबित हुई।”
विशेषज्ञों का दावा है कि अगर सरकार हेल्थकेयर पर खर्च करने में असफल होती है, तो इसका पूरा बोझ लोगों पर पड़ता है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 57वें दौर के मुताबिक, भारतीय परिवार अभी भी अपने स्वास्थ्य खर्चों का 63 फीसदी हिस्सा अपनी जेब से भरते हैं। इसकी वजह स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च का बेहद कम (जीडीपी का महज 1.18 प्रतिशत) होना है। इसके चलते तमाम प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, उपमंडल और जिला स्तरीय अस्पताल संसाधनों के अभाव में बेकार हो जाते हैं। देश के स्वास्थ्य व्यवस्था के कोविड-19 का बोझ न संभाल सकने के कारणों में से एक यह भी है। कुल मिलाकर भारतीय परिवारों ने कोविड-10 के इलाज (जांच के अलावा) पर सामूहिक तौर पर सरकार की तुलना में 3.6 गुना ज्यादा पैसा खर्च किया। महामारी के दौरान गैर-कोविड मामलों में अस्पताल में भर्ती होने पर भी इसका असर महसूस किया गया।
आर्थिक सर्वेक्षण 2020-21 के अनुसार, सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय को वर्तमान के 1 फीसदी से बढ़ाकर जीडीपी के 3 फीसदी करने से “आउट ऑफ पॉकेट (ओओपी)” खर्च आधे से भी कम हो सकता है। इसमें कहा गया है कि स्वास्थ्य व्यय भयानक तौर पर नुकसानदेह होते हैं। ऐसे में सेहत पर आउट ऑफ पॉकेट खर्च कमजोर तबकों के गरीबी के दुष्चक्र में फंसने का खतरा बढ़ा देता है। सर्वे में बताया गया है कि चीन, इंडोनेशिया, फिलीपींस, पाकिस्तान और थाईलैंड जैसे कई देशों में बीते एक दशक में हेल्थकेयर पर सरकारी खर्च में हुई बढ़ोतरी से आउट ऑफ पॉकेट खर्च में काफी कमी आई है।
महामारी में एक और ट्रेंड स्पष्ट तौर पर सामने आया है कि त्वरित कार्रवाई करने वाले राज्यों ने वायरस का मुकाबला बेहतर तरीके से किया। उदाहरण के तौर पर, अरुणाचल प्रदेश में सरकार ने महामारी की तैयारी के लिए 141.94 करोड़ रुपए के अपने आपातकालीन प्रतिक्रिया और स्वास्थ्य प्रणाली तत्परता पैकेज को बेहतर ढंग से चैनलाइज किया। इसके परिणामस्वरूप राज्य दूसरी लहर से पहले ही 32 कोविड-19 स्वास्थ्य केंद्र (326 बेड), 66 कोविड-19 देखभाल केंद्र (2,497 बेड), 383 क्वारंटाइन सुविधाएं (13,411 बेड) और दो कोविड-19 अस्पताल स्थापित करने में कामयाब रहा।
अस्पतालों के नेटवर्क में सभी को निशुल्क टीकाकरण की सुविधा भी मुहैया कराई गई। सरकार का दावा है कि राज्य की पात्र आबादी में से 75 फीसदी को टीके की पहली डोज और 39 फीसदी को दोनों डोज दी जा चुकी हैं। अरुणाचल प्रदेश की सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पूरे राज्य में एक भी व्यक्ति ने आयुष्मान भारत योजना का लाभ नहीं उठाया, जबकि यहां के करीब 89 हजार परिवार इस योजना के दायरे में शामिल हैं।
ओडिशा दूसरा ऐसा राज्य है, जिसने अन्य राज्यों की तुलना में इस संकट से बेहतर तरीके से निपटा। गरीबों को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने के लिए राज्य के पास अपनी स्वास्थ्य बीमा योजना है, जिसे बीजू स्वास्थ्य कल्याण योजना के नाम से जाना जाता है। महामारी की शुरुआत से ही इसका ध्यान कोविड-19 अस्पतालों के निर्माण और बुनियादी स्वास्थ्य ढांचे को तैयार करने पर रहा है। जब 27 मार्च 2020 को राज्य में कोविड-19 के सिर्फ 3 पॉजिटिव केस थे, तभी सरकार ने 2 निजी चिकित्सा शिक्षण संस्थानों की साझेदारी में भुवनेश्वर में 500-500 बेड की क्षमता वाले 2 कोविड अस्पताल बनाने की घोषणा कर दी थी। सरकार ने सभी जिलों डॉक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ को प्रशिक्षण दिलाने में भी तत्परता दिखाई।
अगर सरकार जन-जन तक स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने के अपने लक्ष्य के लिए गंभीर है, तो उसे पब्लिक हेल्थकेयर में अपने निवेश को बढ़ाना होगा।
पहली कड़ी पढ़ें : पीएमजेएवाई का सच : बीमा का आश्वासन एक सबसे बड़ा भ्रम
पांचवीं कड़ी पढ़ने के लिए क्लिक करें : पीएमजेएवाई का सच: लुटे मरीज, फायदे में रहे अस्पताल और बीमा कंपनियां