
शिमला जिले की रूचि शर्मा जब पहली बार बेटे की मां बनीं, तो सबने उन्हें ‘भाग्यशाली’ कहा, लेकिन खुद रूचि भीतर से टूटी हुई महसूस कर रही थीं। रातों की नींद गायब रहती थी, बच्चे के प्रति कभी-कभी बेरुखी, बार-बार उदासी, छोटी-छोटी बातों पर भावुक हो जाना, चिड़चिड़ापन और मन में अजीब सा खालीपन—यह सब उनके लिए बिल्कुल नया और डराने वाला था।
रूचि बताती हैं, “बच्चे के जन्म के बाद सबने मुझे सिर्फ पौष्टिक खाना खाने और खुश रहने की सलाह दी, लेकिन जब मैं बार-बार उदास हो जाती थी, तो मेरी हर शंका का केवल एक ही जवाब मिलता—‘यह तो हर मां के साथ होता है।’ किसी ने यह नहीं पूछा कि मैं कैसी महसूस कर रही हूं।” आज उनका बेटा ढाई साल का हो चुका है, रूचि धीरे-धीरे उस मानसिक तनाव से बाहर आ चुकी हैं, लेकिन उन दिनों की याद आज भी उनकी आंखें नम कर देती हैं।
यह सिर्फ रूचि की बात नहीं है, बल्कि हिमाचल प्रदेश के दूरदराज़ क्षेत्रों से लेकर पूरे देश की लाखों नई माओं की कहानी है। बच्चे के जन्म के साथ ही सारी देखभाल और ध्यान मां से हटकर नवजात की ओर चला जाता है। पहली बार मां बनी महिला एक ओर प्रसव के दर्द से उबरने की कोशिश करती है, दूसरी तरफ शारीरिक बदलाव, मानसिक तनाव, सही देखभाल को लेकर आशंकाएं और नींद की कमी— सब मिलकर उसे गहरे मानसिक दबाव में डाल देते हैं। ऐसी स्थिति में ज्यादातर महिलाएं अपनी भावनाएं व्यक्त नहीं कर पातीं, समाज और परिवार की तरफ से यही जवाब मिलता है कि ‘यह तो सबके साथ होता है।’
हिमाचल में जमीनी सच्चाई: जागरूकता और संसाधनों का अभाव
हाल ही में आईएआर मेडिकल सीरीज की एक शोध रिपोर्ट, “बियॉन्ड बर्थ: हिमाचल प्रदेश में नई माताओं के लिए प्रसवोत्तर देखभाल और मातृत्व अवसाद के बारे में सार्वजनिक जागरूकता” के मुताबिक राज्य में प्रसवोत्तर देखभाल और मातृत्व अवसाद को लेकर जागरूकता जरूर बढ़ी है, लेकिन यह अब भी अधूरी है और ग्रामीण क्षेत्रों तक इसकी पहुंच बेहद कमजोर है।
अध्ययन में 85 प्रतिशत महिलाओं ने माना है कि उन्हें कभी भी प्रसवोत्तर देखभाल या अवसाद के बारे में कोई जांच या परामर्श नहीं मिला। 81 प्रतिशत प्रतिभागियों के अनुसार, भावनात्मक दूरी मातृत्व अवसाद का एक अहम लक्षण है, वहीं 83 प्रतिशत ने माना कि परिवार का सहयोग अवसाद की गंभीरता को कम कर सकता है।
84.3 प्रतिशत ने समाज में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े कलंक को स्वीकार किया है। वहीं 85.5 प्रतिशत प्रतिभागी मानती हैं कि सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों के माध्यम से जागरूकता बढ़ाई जा सकती है, लेकिन जमीनी स्तर पर अब भी बहुत कम काम हो रहा है।
आशा वर्कर का अनुभव : ग्रामीण माताओं की अनकही बातें
मंडी जिले में आशा वर्कर के रूप में कार्यरत कविता देवी का कहना है कि उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है नई बनी माताओं के मनोवैज्ञानिक हालात को समझना और उन्हें आवश्यक भावनात्मक सहयोग प्रदान करना।
वे बताती हैं, “जब मैं अपने फील्ड विजिट पर जाती हूँ, तो महिलाओं के साथ खुलकर बात करने का मौका मिलता है। वे हमें अपनी गुप्त, सबसे निजी समस्याएं और भावनाएँ बताती हैं, जो वे अपने परिवार या समाज के डर से कहीं और साझा नहीं कर पातीं।”
कविता का अनुभव है कि खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में पहली बार माँ बनने वाली महिलाओं में मानसिक तनाव की उच्च दर देखी जाती है। वे कहती हैं “ऐसी महिलाएं जिनके यहाँ बेटी हुई हो, या जो परिवार के खिलाफ जाकर विवाह कर चुकी हों, उन पर सामाजिक और पारिवारिक दबाव अधिक होता है। उनकी स्थिति बहुत नाजुक होती है”
वह आगे समझाती हैं, “इन महिलाओं के पास पहले से ही बच्चे के जन्म के बाद होने वाले शारीरिक और मानसिक बदलावों की सही जानकारी बहुत कम होती है। जब इनके ऊपर परिवार और समाज का सहयोग नहीं मिलता, चाहे वह मायके से हो या ससुराल से, तो उनकी मानसिक स्थिति और भी बिगड़ जाती है। यह अकेलापन, तनाव और अवसाद को जन्म देता है।”
कविता कहती हैं, “हम आशा वर्कर महिलाओं के साथ लगातार संवाद बनाती हैं और उनको भावनात्मक समर्थन देती हैं । उनकी बातों को हम ध्यान से सुनती हैं और उन्हें समझाती हैं कि वे अकेली नहीं हैं। जब कभी हमें लगता है कि समस्या हमारी सीमा से बाहर है और विशेषज्ञ मदद की जरूरत है, तो हम तुरंत डॉक्टरों और मानसिक स्वास्थ्य टीम से संपर्क करते हैं। फिर हम उनका निरंतर साथ देते हैं ताकि वे अकेले न महसूस करें।”
वह यह भी स्वीकार करती हैं कि समाज में मानसिक स्वास्थ्य के विषय में खुलकर बात करने से डर बहुत है। “अक्सर महिलाओं को मानसिक स्वास्थ्य की बात करने में ‘बेज्जती’ या ‘कलंक’ महसूस होता है। इसी वजह से वे अपनी तकलीफ छुपाने लगती हैं और सही समय पर सहायता नहीं ले पातीं। यह हमारी बड़ी चुनौती है कि हम उन्हें विश्वास दिलाएं कि बात करना कमजोरी नहीं, बल्की साहस है।”ग्रामीण बनाम शहरी अंतर — सुविधाएं, शिक्षा और बदलाव की गति
शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता और सुविधाओं का जबरदस्त अभाव है। गांवों में एक तो स्वास्थ्य सुविधाएँ सीमित हैं, दूसरा सामाजिक ढांचा ऐसा है कि मानसिक स्वास्थ्य को ज्यादातर नजरअंदाज किया जाता है।
संयुक्त परिवारों में महिलाओं पर अपेक्षाओं का दबाव अधिक होता है और अपनी भावनाएं वे छुपा लेती हैं। शैक्षिक स्तर भी अक्सर कम होता है, जिससे मानसिक स्वास्थ्य को समझने और उसकी केयर करने की समझ नहीं बन पाती।
तीन दशक से महिलाओं से जुड़े विषयों की गहन पड़ताल कर रही वरिष्ठ पत्रकार अर्चना फुल्ल कहती हैं, “हमारे समाज में आज भी महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य को गंभीरता से नहीं लिया जाता, ख़ासकर तब जब वह माँ बनने वाली होती है या बन चुकी होती है। अधिकतर परिवारों में प्रसव के बाद होने वाले मानसिक उतार-चढ़ाव को ‘सामान्य मूड स्विंग’ मानकर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।”
वह अपने अनुभव साझा करते हुए बताती हैं, “मैंने ख़ुद अपने मातृत्व के शुरुआती दिनों में इस मानसिक अकेलेपन को महसूस किया। बिना किसी ख़ास वजह के रोना आता, अंदर से घुटन और निराशा का भाव रहता। सबसे बड़ी चुनौती थी इसे अपने तक रखना, क्योंकि आसपास के लोग इस स्थिति को पूरी संवेदनशीलता से नहीं समझते थे।”
अर्चना आगे कहती हैं, “माँ बनने के साथ मुझे कई बार ऐसा लगा कि क्या मैं अपना करियर छोड़ दूँ? मानसिक अवसाद के चलते मैं बहुत ज़्यादा शंकालु और चिड़चिड़ी हो गई थी। काम में मेरा ध्यान नहीं लगता था और हर छोटी बात पर डर लगता कि मुझसे कोई गलती हो जाएगी। फिर भी, मैंने खुद को संभाला और अपनी माँ से लगातार बात करती रही, जिन्होंने मेरा बहुत साथ दिया, जिससे मैं उस मानसिक स्थिति से बाहर निकल पाई। असली बदलाव तभी शुरू होगा जब हम मातृत्व अवसाद को एक बीमारी और चुनौती के तौर पर स्वीकार करेंगे, न कि सिर्फ़ ‘भावनात्मक कमज़ोरी’ मानेंगे। एक माँ का मानसिक स्वास्थ्य केवल उसकी ही नहीं, बल्कि पूरे परिवार और समाज के लिए भी ज़रूरी है। मैं दूसरी महिलाओं से कहना चाहती हूँ कि अगर कोई माँ लगातार अनमनी, थकी हुई, अकेली या निराश महसूस करे तो इसे छिपाए नहीं। खुलकर बात करें और मदद माँगें। अपनी ज़िंदगी और पहचान को सिर्फ़ त्याग तक सीमित न करें, क्योंकि एक स्वस्थ और ख़ुश माँ ही एक मज़बूत समाज की नींव बनती है।”
बीएमसी साइकिएट्री में प्रकाशित शोध के लेखक और अनुभवी एपिडेमियोलॉजिस्ट डॉ. उमेश कुमार भारती कहते हैं, “मातृत्व एक स्वाभाविक जीवन का चरण होने के बावजूद, यह महिला के लिए शारीरिक एवं मानसिक दोनों तरह की चुनौतियाँ लेकर आता है। प्रसव के पहले और बाद की मानसिक स्थिति अक्सर अनदेखी रह जाती है, लेकिन यह महिला के जीवन पर गहरा प्रभाव डालती है। कई बार प्रसवोत्तर अवसाद के लक्षण जैसे उदासी, अकेलापन, चिड़चिड़ापन, और भावनात्मक असंतुलन को सामान्य मूड स्विंग समझकर छोड़ दिया जाता है, जबकि ये गंभीर स्थिति का संकेत होती है।”
उन्होंने आगे बताया, “हिमाचल प्रदेश जैसे क्षेत्रीय और ग्रामीण इलाकों में मातृत्व अवसाद की जागरूकता बहुत सीमित है, जिससे महिलाएं सही समय पर सहायता नहीं पा पाती हैं। पारंपरिक सामाजिक संरचनाओं, परिवारिक दबाव और कलंक के कारण, माताएं अपनी मानसिक पीड़ा छुपाती हैं, जिससे उनकी समस्या बढ़ती है। परिवार का सहयोग इस स्थिति को कम करने में निर्णायक भूमिका निभाता है, इसलिए सामाजिक और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं द्वारा संवेदनशीलता से इस विषय पर काम करना अत्यंत आवश्यक है।”
डॉ. भारती ने सुझाव दिया, “हमारे शोध में यह भी पाया गया है कि प्रसव से पहले ही यदि महिलाओं को मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूक किया जाए और नियमित रूप से जांच की जाए, तो प्रसवोत्तर अवसाद की गंभीरता को बहुत हद तक कम किया जा सकता है।
इसके लिए समुदाय आधारित स्वास्थ्य कार्यक्रम, मानसिक स्वास्थ्य पर परिवार और समाज का खुला संवाद, और स्वास्थ्य कर्मियों का प्रशिक्षण जरूरी है। केवल शारीरिक स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करना अब पर्याप्त नहीं है, मातृत्व के मानसिक पहलू को भी प्राथमिकता देना होगा, ताकि नवजात और मां दोनों का समग्र स्वास्थ्य सुनिश्चित हो सके।”
पारंपरिक परिवारों की मानसिकता : संवाद की कमी और बदलाव की जरूरत
हिमाचल के पारंपरिक परिवारों में शारीरिक देखभाल तो प्रमुखता से होती है, लेकिन मानसिक स्वास्थ्य को लेकर संवाद या जागरूकता लगभग नहीं है। परिवारों में अपेक्षाओं का बोझ, सीमित अवसर और संवादहीनता के बीच महिलाएं चुपचाप अपना दर्द सहती रहती हैं, जबकि शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के बावजूद, मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समाज अभी भी पीछे है।
समस्या को समझते हुए ज़रूरत है सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियों में मानसिक स्वास्थ्य को बराबरी का दर्जा मिले। प्रसवोत्तर देखभाल में मानसिक स्वास्थ्य जांच को जरूरी बनाया जाए, सामुदायिक स्वास्थ्य कर्मियों को प्रशिक्षित किया जाए ताकि वे महिलाओं की मानसिक स्थिति पहचान सकें, और परिवार व समाज में एक खुले संवाद की शुरुआत हो सके। परिवार का सहयोग, सामाजिक कलंक तोड़ने के लिए जागरूकता कैंपेन, और सामुदायिक कार्यक्रम सामने आना आज की जरूरत है।
हिमाचल की पहाड़ियों में जहां मां का स्थान बेहद ऊँचा है, वहां मातृत्व के मानसिक और भावनात्मक पक्ष को अनदेखा करना सही नहीं। स्वस्थ मां ही स्वस्थ समाज की नींव है, इसलिए “यह तो सबके साथ होता है” की सोच बदलकर “हम सब तुम्हारे साथ हैं” का माहौल बनाना ही सच में जनस्वास्थ्य का लक्ष्य होना चाहिए।
जैसा कि रूचि ने कहा “अगर मुझे पहले पता होता कि यह एक बीमारी है, तो शायद मैं इतना नहीं टूटती” अब वक्त आ गया है कि हम नई माताओं की इस अनसुनी पीड़ा को समझें और उन्हें इससे उबरने में मदद करें।
"लेखक एक लाडली मीडिया फेलो हैं। इसमें व्यक्त विचार और राय लेखक के अपने हैं। यह ज़रूरी नहीं कि लाडली और UNFPA इन विचारों से सहमत हों।"