रोगाणुरोधी प्रतिरोध औसतन हर दिन 13,562 लोगों की जान ले रहा है; फोटो: आईस्टॉक
रोगाणुरोधी प्रतिरोध औसतन हर दिन 13,562 लोगों की जान ले रहा है; फोटो: आईस्टॉक

एएमआर सप्ताह पर विशेष: जीवाणु रोधी प्रतिरोध का गहराता संकट

विश्व स्वास्थ्य संगठन हर साल 18-24 नवंबर के दौरान विश्व रोगाणुरोधी जाकरूकता सप्ताह (वर्ल्ड एन्टी माइक्रोबियल अवेयरनेस वीक) मनाता है
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अभी जब हम यह लेख लिख रहे हैं, इस दौरान दुनिया भर के राजनेता सऊदी अरब के जेद्दा में रोगाणुरोधी प्रतिरोध के खिलाफ़ कार्रवाई करने की अपनी प्रतिबद्धता पर चर्चा कर रहे हैं । एक ऐसी प्रतिबद्धता जिस पर सितंबर 2024 के संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों द्वारा दूसरे 'पोलिटिकल डिक्लेरेशन ऑन एन्टी माइक्रोबियल रेजिस्टेंस’ में सहमति व्यक्त की गई थी।

रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एएमआर), ,खासकर एंटीबायोटिक प्रतिरोध मानवता के लिए एक गंभीर खतरा है और संयुक्त राष्ट्र की बैठक में देशों ने 2030 तक सामूहिक कार्रवाई पर सहमति व्यक्त की है।

2016 (जब एएमआर पर पहली राजनीतिक घोषणा को अपनाया गया था) और आज के बीच, लगभग 180 देशों ने राष्ट्रीय ए एम आर कार्य योजनाएँ प्रस्तुत की हैं। भारत ने भी एक व्यापक योजना विकसित की है, लेकिन वैश्विक दक्षिण के अन्य संसाधन-विवश देशों की तरह, इसका कार्यान्वयन असफल रहा है।

ठोस कदम उठाए जाने की यह वैश्विक तात्कालिकता इसलिए है क्योंकि एंटीबायोटिक्स सामान्य जीवाणु संक्रमण के इलाज में भी अप्रभावी होते जा रहे हैं। अस्पतालों और गहन देखभाल इकाइयों में प्रयोग की जानेवाली जीवनरक्षक दवाएं भी विफल हो रही हैं।

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साल 2021 में 47 लाख मौतें एंटीबायोटिक प्रतिरोध से जुड़ी थी और लगभग 11.5 लाख मौतों का यह सीधा कारण था। साल 2019 में भारत में लगभग 3 लाख मौतें बैक्टीरियल एएमआर या एंटीबायोटिक प्रतिरोध के कारण हुईं और यह दस लाख से अधिक मौतों के लिए जिम्मेवार था।

एंटीबायोटिक प्रतिरोध को एचआईवी और मलेरिया दोनों से ज़्यादा खतरनाक माना जा रहा है, शायद कोविड महामारी से भी ज़्यादा, जिसके कारण 2020 के बाद से लगभग 70 लाख मौतें हुई हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि यह 'खामोश' महामारी, जोकि एक सतत संकट बनकर उभरी है, 2025 और 2050 के बीच 3.9 करोड़ लोगों की जान लेगी, ऐसे अनुमान लगाए गए हैं ।

चूंकि भोजन के लिए उगाए जाने वाले जानवरों और पौधों में बैक्टीरिया का संक्रमण होना आम है, अतः अनियंत्रित एंटीबायोटिक प्रतिरोध से खाद्य और पशुधन उत्पादकता और किसानों की आजीविका पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ने की उम्मीद है । ऐसा खासकर निम्न और मध्यम आय वाले देशों में होने की आशंका है।

यह संकट भविष्य में और भी बढ़ सकता है, क्योंकि नए एंटीबायोटिक्स की पाइपलाइन बेहद कमज़ोर है। पिछले कई दशकों में, नए एंटीबायोटिक्स विकसित करने में शामिल रहीं ज़्यादातर बड़ी दवा कंपनियाँ कैंसर के साथ-साथ मेटाबॉलिक, ऑटोइम्यून और न्यूरोडीजेनेरेटिव बीमारियों के लिए नई दवाएँ विकसित करने में जुट गई हैं, जिससे उन्हें ज़्यादा राजस्व और मुनाफ़ा प्राप्त होता है।

अगर नई दवाएँ विकसित हो भी जाएं तो एंटीबायोटिक निर्माता उन्हें निम्न और मध्यम आय वाले देशों में बेचने से कतराते हैं, क्योंकि उन देशों में पर्याप्त बिक्री और राजस्व नहीं मिलता है, जिससे ऐसे देशों में लोगों के लिए नए एंटीबायोटिक्स उपलब्ध नहीं हो पाते। मौजूदा प्रभावी एंटीबायोटिक्स तक पहुँच की कमी पहले से ही एक बड़ी चिंता का विषय है और ऐसी परिस्थितियों में बड़ी संख्या में मौतों का कारण बनती है।

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बैक्टीरिया को मारने के लिए बनाए गए एंटीबायोटिक्स अप्रभावी होते जा रहे हैं, क्योंकि जब उनका अत्यधिक उपयोग या दुरुपयोग किया जाता है, ऐसी स्थिति में बैक्टीरिया उनके प्रभाव के प्रति प्रतिरोध विकसित कर सकते हैं। इसलिए मानव-स्वास्थ्य, पशु-स्वास्थ्य, फसल और खाद्य-पशु उत्पादन में दवाओं के अत्यधिक उपयोग या दुरुपयोग का मतलब है बैक्टीरिया में उपजा प्रतिरोध। ये जीवाणु बहु-दवा प्रतिरोधी या सुपरबग बन सकते हैं और भोजन, अपशिष्ट और पर्यावरण मार्गों के माध्यम से आगे फैल सकते हैं।

भारत अपनी बड़ी आबादी की खाद्य और पोषण सुरक्षा जरूरतों को पूरा करने के लिए फसलों और पशुओं की मदद से बड़ी मात्रा में भोजन का उत्पादन करता है। ऐसी स्थिति में एंटीबायोटिक के अति प्रयोग और दुरुपयोग पर नजर रखना और इन खाद्य-पशु और फसल क्षेत्रों को भोजन और अपशिष्ट मार्गों के माध्यम से फैलने वाले एंटीबायोटिक प्रतिरोध का प्रमुख स्रोत बनने से रोकना बेहद जरूरी हो जाता है।

देश की 850 मिलियन पोल्ट्री आबादी का लगभग 62 प्रतिशत वाणिज्यिक पोल्ट्री में है, जो आमतौर पर संक्रमण के अनुकूल परिस्थितियों और रोकथाम के उपायों की कमी के फलस्वरूप एंटीबायोटिक दवाओं और रसायनों पर निर्भर है। वैश्विक दूध उत्पादन में 20 प्रतिशत से अधिक हिस्से के साथ, भारत दुनिया में दूध का सबसे बड़ा उत्पादक है। 2019 की नवीनतम पशुधन जनगणना के अनुसार भारत में गाय और भैंसों के रूप में लगभग 125 मिलियन दुधारू पशु (दूध देने वाले और सूखे) हैं। वैश्विक मछली उत्पादन में लगभग 8 प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ, भारत जलीय कृषि उत्पादन में दूसरे स्थान पर है और समुद्री खाद्य पदार्थों का चौथा सबसे बड़ा निर्यातक है।

इसके अलावा, अपशिष्ट मार्गों पर भी अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है -न केवल बड़े खाद्य-पशु और फसल क्षेत्रों पर बल्कि एंटीबायोटिक निर्माण पर भी; भारत एंटीबायोटिक दवाओं का एक बड़ा उत्पादक और निर्यातक है जिसने दुनिया को लागत प्रभावी एंटीबायोटिक दवाएं उपलब्ध कराई हैं । अस्पताल के कचरे पर भी अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि यह अक्सर मुश्किल से उपचारित होने वाले बहु-दवा प्रतिरोधी बैक्टीरिया का स्रोत होता है।

तो, क्या किया जाना चाहिए?

भारत को ग्रोथ प्रमोटर के रूप में एंटीबायोटिक के उपयोग को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की आवश्यकता है। भारत अभी भी उन कुछ देशों में से है, जिन्होंने मुर्गीपालन में ग्रोथ प्रमोटर के तौर पर एंटीबायोटिक के उपयोग को आधिकारिक तौर पर प्रतिबंधित नहीं किया है। चिकन फ़ीड, इसमें एंटीबायोटिक की उपस्थिति या इसकी लेबलिंग किसी भी अनिवार्य कानून के तहत विनियमित नहीं है। यह केवल हाल ही में अपडेट किए गए भारतीय मानक ब्यूरो के स्वैच्छिक मानक के दायरे में आता है।

विभिन्न खाद्य-पशु क्षेत्रों में और चिकित्सीय या गैर-चिकित्सीय उद्देश्यों के लिए एंटीबायोटिक के प्रकारों के अनुसार कितनी मात्रा में एंटीबायोटिक का उपयोग किया जाता है, यह जानना महत्वपूर्ण है । इस तरह की आधारभूत जानकारी किसी भी हस्तक्षेप की सफलता की योजना बनाने और मापने तथा राष्ट्रीय एंटीबायोटिक शमन/रिडक्शन लक्ष्य निर्धारित करने के लिए एक शर्त है।

बीमारी को रोकने या नियंत्रित करने के लिए एंटीबायोटिक दवाओं के बड़े पैमाने पर उपयोग को अभी भी उस तरह से हतोत्साहित नहीं किया जा रहा है जैसा कि किया जाना चाहिए । उदाहरण के लिए 2022 से ही यह यूरोपीय संघ में स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित है। केंद्रीय पशुपालन और डेयरी विभाग अक्टूबर 2024 में मानक पशु चिकित्सा उपचार दिशा-निर्देश लेकर आया, जो लंबे समय से लंबित था। भविष्य में हमें यह सुनिश्चित करना है कि दिशा-निर्देशों को जमीनी स्तर पर कैसे अपनाया जाता है और यह वास्तव में एंटीबायोटिक दवाओं के विवेकपूर्ण उपयोग को कितना बढ़ावा देता है।

अस्पतालों में प्रयुक्त महत्वपूर्ण जीवनरक्षक एंटीबायोटिक्स को संरक्षित किया जाना चाहिए और खाद्य-पशु क्षेत्रों में चरणबद्ध तरीके से समाप्त किया जाना चाहिए, खासकर गैर-चिकित्सीय उद्देश्यों के लिए। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने पोल्ट्री, डेयरी, मत्स्य पालन और शहद के उत्पादन में कुछ एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है। यह कोलिस्टिन के उपयोग पर प्रतिबंध के अतिरिक्त है।

कई साल पहले जानवरों और शहद से मिलने वाले खाद्य पदार्थों में एंटीबायोटिक अवशेषों के लिए मानक तय किए जाने के बावजूद, खाद्य पदार्थों में एंटीबायोटिक दवाओं की शायद ही कोई निगरानी होती है। एफएसएसएआई भारतीय उपभोक्ताओं को यह भरोसा दिलाने में सक्षम नहीं है कि उनके चिकन, मछली या अंडे एंटीबायोटिक दवाओं से सुरक्षित हैं। 2017-18 में किये गए राष्ट्रीय दूध सर्वेक्षण के अलावा, जिसमें एंटीबायोटिक्स पाए गए, कोई परीक्षण नहीं हुआ है।

भारत को कृषि क्षेत्रों में खाद के रूप में पशु फार्म अपशिष्ट का उपयोग करने में भी सक्षम होना चाहिए, लेकिन प्रतिरोध के प्रसार से बचने के लिए इस अपशिष्ट का उपचार किया जाना चाहिए और इसे एएमआर-सुरक्षित बनाया जाना चाहिए।

निवारक उपायों को बढ़ाने के लिए एक रोडमैप समय की मांग है। इसमें स्पष्ट किया जाना चाहिए कि पशु आवास, विकल्प, टीके, जैव सुरक्षा और नई उन्नत नस्लों के साथ क्या किया जाना चाहिए और एंटीबायोटिक दवाओं की आवश्यकता को कम करने के लिए उनमें कैसे निवेश और प्रचार किया जाना चाहिए।

स्थानीय और विकेन्द्रीकृत खाद्य प्रणालियों को बढ़ाने और औद्योगिक गहन प्रणालियों पर निर्भरता को कम करने की दिशा में दीर्घकालिक दृष्टिकोण पर ध्यान देने की आवश्यकता है। घरेलू मुर्गी पालन को बढ़ावा देना और डेयरी क्षेत्र में सहकारी मॉडल की सफलता का लाभ उठाना एंटीबायोटिक के उपयोग को कम करने के अलावा जलवायु, आजीविका और पोषण के सह-लाभ प्रदान करता है।

अब हमें एएमआर राष्ट्रीय कार्य योजना 2.0 की आवश्यकता है। पहली योजना 2021 तक लागू थी। यह एक सही लागत एवं प्राथमिकता वाली सुचिंतित योजना होनी चाहिए जिसमें विभिन्न मंत्रालयों और विभागों की स्पष्ट जवाबदेही हो और इसकी हालात पहली राष्ट्रीय एएमआर कार्य योजना जैसी न हो, ऐसी स्थिति से बचने के लिए पर्याप्त वित्त पोषण की आवश्यकता है।

केरल जैसे कुछ राज्यों में की गई कार्रवाई एक अच्छी पहल के रूप में सामने आई है। जागरूकता पैदा करने के लिए ‘एंटीबायोटिक साक्षर केरल’ अभियान; मानदंडों का एक सेट अपनाने वाले स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों को प्रमाणित करने के लिए ‘एंटीबायोटिक स्मार्ट अस्पताल’ पहल; एंटीबायोटिक दवाओं की ओवर-द-काउंटर बिक्री पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से ऑपरेशन ‘अमृत – संपूर्ण स्वास्थ्य के लिए रोगाणुरोधी प्रतिरोध हस्तक्षेप’; और ‘रोअर – रोगाणुरोधी प्रतिरोध पर क्रोध’ कार्यक्रम जिसमें वैधानिक चेतावनियों और जागरूकता संदेशों के साथ नीले लिफाफे में एंटीबायोटिक दवाओं की बिक्री शामिल है।

मानवता के सामने उपस्थित इस बड़े खतरे को रोकने और नियंत्रित करने के लिए भारत को एकजुट होना चाहिए। हमसे बहुत उम्मीदें हैं और एक मजबूत, समन्वित, सामयिक कार्रवाई हमारे हित में होगी।

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