पैड वुमन की जुबानी, उसकी कहानी- बेटा भी करता है गर्व

पैड वुमन के नाम से जानी जाने वाली हरियाणा के झज्जर की कविता शर्मा का डाउन टू अर्थ के लिए लिखा गया विशेष आलेख-
कविता शर्मा
कविता शर्मा
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अगर हमारे मुंह को कपड़े की मोटी तह या प्लास्टिक से ढक दोगे तो क्या हालत होगी। यही बुरी हालत होती है गर्भाशय की, जब हम कपड़ों की तह या प्लास्टिक वाले सेनेटरी पैड का इस्तेमाल करते हैं। आज मेरा बेटा भी मेरे साथ काम करता है। उसे गर्व है कि उसकी मां को लोग झज्जर (हरियाणा) की “पैड वूमैन” कहते हैं।

माहवारी पर आसानी से बात करने के लिए मैंने मुश्किल लड़ाई लड़ी है। जिस गांव में कभी महिलाओं की माहवारी को अपवित्र और गंदा माना जाता था, वहां एक महिला का सेनेटरी पैड के काम में जुटना आसान नहीं था। आठवीं पास होते ही मेरी शादी कर दी गई। मेरे जेहन में एक समस्या थी जो मेरे मन से जुड़ी थी। वह सिर्फ मेरी नहीं मेरे आसपास की सभी लड़कियों की समस्या थी।

माहवारी जीवन का वह हिस्सा था जो दिमाग पर असर कर रहा था। तभी शादी हो गई और मैं हरियाणा के झज्जर जिले के भदाना गांव आ गई। ससुराल में आकर माहवारी को लेकर मेरी सोच और गहरी होने लगी। उसी समय गांव में साथी महिलाओं के साथ एक स्वयं सहायता समूह बनाया। अब हम सब महिलाएं थीं और हम सबकी समस्या भी एक थी, माहवारी।

मैं इस मुद्दे पर कुछ करना चाहती थी। लेकिन अन्य महिलाएं इस मुद्दे को छेड़ते ही चुप्पी साध लेती थीं और मुझे भी हिकारत की नजर से देखती थीं। कुछ महिलाओं तो देखते ही ताने कसतीं कि क्या यही काम करने के लिए अब बच रहा है। लेकिन इन चीजों ने मुझे और मजबूत बनाया। मैं समझने की कोशिश करने लगी कि आखिर ऐसी क्या बात है कि एक औरत अपने ही फायदे की बात सुनने को तैयार नहीं हैं, अपने शरीर की सबसे अहम प्रक्रिया को इज्जत देने के लिए तैयार नहीं है।

मेरे पति को भी पूरे गांव में ताने सुनने पड़ते थे। मैंने सोच लिया कि कुछ भी हो जाए अब तो मैं सेनेटरी पैड बनाने का काम जरूर करूंगी। ऐसे में एक दिन झज्जर जिले में आयोजित होने वाले सरस मेले में सरकारी अधिकारियों से मिली और उन्हें अपनी इच्छा जताई।

अधिकारियों ने मेरी बात सुनी और मुझे सेनेटरी पैड बनाने का प्रशिक्षण दिलवाया। इस प्रशिक्षण के बाद ही मेरा असली संघर्ष शुरू हुआ। मेरे पास पैड बनाने की मशीन और कच्चा माल सब कुछ था। लेकिन सबसे अहम चीज थी गांव की महिलाओं का साथ। जब तक वे इस चीज की अहमियत को नहीं समझतीं, सारी कवायद बेकार थी।

अब मैं गांव के घरों में घूमती और महिलाओं से घंटों बात करती। उन्हें समझाया कि यह गंदा काम नहीं बल्कि खुद की सफाई का काम है। उन्हें बताया कि औरत के शरीर के लिए यह कितना जरूरी है। बातचीत से ही हालात सुधरे और धीरे-धीरे कुछ महिलाएं मेरे पास पैड बनाने के लिए आने लगीं। लेकिन तब भी ज्यादातर महिलाएं अपने घरों में यह नहीं बताती थीं कि वे सेनेटरी पैड बनाने जा रही हैं।

वे मेरे पास छुप-छुपा कर आती थीं कि कहीं कोई देख न ले। हालात बेहतर हुए और आसपास गांव की 80 से अधिक महिलाएं पैड बनाना सीख गईं। अब वे अपने घरों में भी बेहिचक पैड बनाती हैं। उन्होंने बताया कि एक पैकेट में पांच पैड होते हैं।

झज्जर जिले के निजी और सरकारी गर्ल्स स्कूल तो मेरे लिए मंदिर जाने जैसे हो गए थे। मैं वहां जाकर छात्राओं से बात करती और उन्हें सेनेटरी पैड की अहमियत बताती। उन्हें समझाती कि माहवारी की सेहत हम महिलाओं के लिए कितनी जरूरी है।

हर एक बच्ची का सेनेटरी पैड के साथ जुड़ना मेरे लिए भगवान को मनाने जैसा था। इस काम में शारीरिक से ज्यादा मानसिक मेहनत की। सोच बदलना आसान नहीं होता। मेरे पति, बच्चों और गांव की महिला सरपंच कमलेश देवी ने मेरी भरपूर मदद की। जिले से लेकर मुख्यमंत्री तक ने मेरे इस काम को न केवल सराहा है बल्कि पुरस्कारों और सम्मान से नवाजा। आज मेरे मां-बाप, पति और बच्चों के साथ गांव की साथी मुझ पर गर्व करती हैं। मैं संतुष्ट हूं कि मैं सोच बदलने का हिस्सा बनी।

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