राष्ट्रीय व्यावसायिक रोग संस्थान में वैज्ञानिक व सिलिकोसिस विशेषज्ञ डॉ मिहिर रूपानी
राष्ट्रीय व्यावसायिक रोग संस्थान में वैज्ञानिक व सिलिकोसिस विशेषज्ञ डॉ मिहिर रूपानी

“देशभर के श्रमिकों को प्रभावित कर सकता है सिलिकोसिस”

राष्ट्रीय व्यावसायिक रोग संस्थान में वैज्ञानिक व सिलिकोसिस विशेषज्ञ डॉ मिहिर रूपानी ने भारत में सिलिकोसिस की मौजूदा स्थिति, जोखिम और सुरक्षा उपायों पर भागीरथ से बात की
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सिलिकोसिस कैसे मजदूरों की जान ले रहा है। इस पर एक विस्तृत रिपोर्ट आप पढ़ चुके हैं।

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भारत में सिलिकोसिस और सिलिको-टीबी की वर्तमान स्थिति क्या है?

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सिलिकोसिस भारत में एक महत्वपूर्ण व्यावसायिक स्वास्थ्य चुनौती बनी हुई है, जो मुख्यतः सिलिका धूल के संपर्क में आने वाले विभिन्न उद्योगों के श्रमिकों को प्रभावित करती है। सिलिको-टीबी, जिसमें सिलिकोसिस और क्षयरोग (टीबी) का संयोग होता है, स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा है। सिलिकोसिस टीबी के विकास के जोखिम को चार गुना तक बढ़ा देता है और केवल सिलिका धूल के संपर्क में रहना भी इस जोखिम को दोगुना कर देता है। इसके परिणामस्वरूप, सिलिको-टीबी से पीड़ित मरीजों में बीमारी की प्रगति अधिक गंभीर होती है और उनके लिए मृत्यु का जोखिम सामान्य टीबी रोगियों की तुलना में अधिक होता है। इन बीमारियों का सामना करने में सबसे बड़ी चुनौती यह है कि भारत की कार्यबल का 92 प्रतिशत हिस्सा अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत है, जहां नियामक निगरानी और व्यावसायिक स्वास्थ्य सुरक्षा की कमी है। इससे सिलिकोसिस और टीबी दोनों के रोकथाम, नियंत्रण और उपचार में कठिनाइयां उत्पन्न होती हैं।

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सिलिकोसिस और सिलिको-टीबी के उच्च-जोखिम वाले क्षेत्र कौन से हैं?

A

भारत में सिलिकोसिस और सिलिको-टीबी के उच्च-जोखिम वाले क्षेत्र मुख्य रूप से वे राज्य हैं जहां खनन, पत्थर की कटाई और निर्माण कार्य जैसे उद्योग सिलिका-युक्त सामग्रियों पर अत्यधिक निर्भर हैं। राजस्थान इन सबसे अधिक प्रभावित राज्यों में से एक है। जोधपुर, जैसलमेर और उदयपुर जैसे क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर पत्थर की खदानें और पत्थर की नक्काशी के उद्योग हैं, जो देश में सिलिकोसिस की सबसे अधिक रिपोर्ट करते हैं। मध्य प्रदेश में मंदसौर जैसे क्षेत्रों में पत्थर की खदानें और स्लेट पेंसिल निर्माण सिलिकोसिस के उच्च प्रसार में प्रमुख योगदान देते हैं। गुजरात भी एक अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र है, जहां खंभात में अगेट पत्थर की प्रोसेसिंग, मोरबी और हिम्मतनगर में टाइल निर्माण और सुरेन्द्रनगर में खनन गतिविधियां सिलिकोसिस और सिलिको-टीबी के लिए राज्य को एक हॉटस्पॉट बनाती हैं। आंध्र प्रदेश के मार्कापुर में स्लेट पत्थर प्रोसेसिंग उद्योग स्थानीय श्रमिकों के लिए सिलिकोसिस के जोखिम को बढ़ाता है। इसके अलावा, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और झारखंड जैसे राज्यों में विभिन्न खनन कार्यों, विशेषकर कोयला खनन के कारण सिलिकोसिस के साथ-साथ टीबी का भी उच्च जोखिम देखा जाता है। ये उच्च-जोखिम वाले क्षेत्र दर्शाते हैं कि इन विशिष्ट उद्योगों और क्षेत्रों में व्यावसायिक खतरों को दूर करने के लिए लक्षित हस्तक्षेप की कितनी आवश्यकता है।

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क्या राज्य सरकारें मुआवजा देने से बचने के लिए सिलिकोसिस की जांच नहीं करतीं या इसके पीछे कोई और वजह है?

A

मुझे नहीं लगता कि राज्य सरकारें मुआवजा देने से बचने के लिए सिलिकोसिस का निदान नहीं करतीं। असल में, इस मुद्दे पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता। कुछ राज्यों जैसे गुजरात, हरियाणा और पश्चिम बंगाल में सिलिकोसिस पीड़ितों के लिए मुआवजा योजनाएं हैं, जो अक्सर मरीज की मृत्यु होने पर उनके परिवार को वित्तीय सहायता प्रदान करती हैं। राजस्थान इस मामले में एक अपवाद है, जो मरीज के निदान के समय, मृत्यु के समय और विधवा पेंशन के रूप में अधिक मुआवजा प्रदान करता है। असली चुनौती अनौपचारिक क्षेत्रों और उद्योगों, जैसे खदानों और छोटे कारखानों में है, जहां 92 प्रतिशत श्रमिक औपचारिक रोजगार में नहीं हैं। इनमें से कई श्रमिक ठेके पर काम करते हैं और उनके पास स्पष्ट नियोक्ता-कर्मचारी संबंध नहीं होता, जिससे उनके लिए मुआवजा प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है। अक्सर, यदि नियोक्ता को किसी श्रमिक में सिलिकोसिस के लक्षण दिखाई देते हैं, तो वे कानूनी या वित्तीय दायित्वों से बचने के लिए उस व्यक्ति को काम देना बंद कर देते हैं। सरकार इस मुद्दे का समाधान बेहतर तरीके से कर सकती है, जैसे कि नियामक निकायों को मजबूत करना, कर्मचारियों और संसाधनों में वृद्धि करना ताकि कार्यस्थलों की अधिक निकटता से निगरानी की जा सके। नियोक्ताओं के लिए भी धूल के स्तर को सुरक्षित सीमा के भीतर बनाए रखने के लिए नियम बनाए जाने चाहिए। एक और समाधान यह हो सकता है कि जोखिम भरे उद्योगों पर कर लगाया जाए और उस राजस्व का उपयोग सिलिकोसिस मरीजों को राहत देने में किया जाए।

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क्या आप सिलिकोसिस से होने वाली मौतों को मानवाधिकार और संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन मानते हैं? यदि हां, तो क्यों?

A

भारत में हर नागरिक को जीवन और उचित स्वास्थ्य सेवा का अधिकार है। हाल के वर्षों में, अदालतों ने यह भी निर्णय दिया है कि असाध्य बीमारियों से पीड़ित व्यक्तियों को दर्द निवारक देखभाल का अधिकार है, जो सिलिकोसिस पर भी लागू होता है क्योंकि इसका कोई इलाज नहीं है। सिलिकोसिस से पीड़ित मरीजों को फेफड़ों की देखभाल, नए काम की तलाश में सहायता और वित्तीय सहायता का अधिकार है, क्योंकि समय के साथ सिलिकोसिस की स्थिति और गंभीर होती जाती है। एक जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ के रूप में मेरा मानना है कि सिलिकोसिस से होने वाली मौतों पर ध्यान देना कहीं अधिक जरूरी है, बजाय इसके कि हम दोषारोपण में लग जाएं। सिलिकोसिस से होने वाली मौतें मानवाधिकार और संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन मानी जा सकती हैं। सरकारी विभाग अक्सर शोध परिणामों की अपेक्षा अदालत के आदेशों का पालन करते हैं। सरकार कारखानों और खदानों में सिलिका धूल के नियमन को लागू नहीं करती है, तो इन मौतों की जिम्मेदारी सरकार पर होती है और यह अधिकारों का उल्लंघन बन जाता है। ऐसे में, मुआवजा सरकार के कोष से या खतरनाक उद्योगों पर लगाए गए कर से दिया जाना चाहिए।

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2025 तक भारत को टीबी का उन्मूलन करना है। क्या यह लक्ष्य सिलिकोसिस की उपेक्षा करते हुए हासिल हो सकता है?

A

सिलिकोसिस को नजरअंदाज करके इसे हासिल करना बहुत मुश्किल होगा। भारत का वैश्विक निर्माण क्षेत्र में बढ़ता योगदान अधिक श्रमिकों को ऐसी नौकरियों में ला रहा है जहां वे सिलिका धूल के संपर्क में आते हैं। इससे सिलिकोसिस के मामले बढ़ेंगे, जो टीबी के जोखिम को और अधिक बढ़ाते हैं। इन श्रमिकों में से कई, विशेषकर खनन में काम करने वाले, भीड़भाड़ वाले क्षेत्रों में लंबे समय तक काम करते हैं, जिससे उनकी टीबी जैसे संक्रमणों से लड़ने की क्षमता कमजोर हो जाती है। सिलिकोसिस, एचआईवी और मधुमेह के बाद टीबी से जुड़े प्रमुख कारकों में से एक है और इसे भारत के टीबी उन्मूलन प्रयासों में विशेष ध्यान देने की जरूरत है। अफसोस की बात यह है कि सिलिकोसिस को अभी भी उतना ध्यान नहीं मिल रहा जितना मिलना चाहिए। कई लोग सोचते हैं कि सिलिकोसिस केवल खनन क्षेत्रों को प्रभावित करता है, लेकिन सिलिका धूल का खतरा अन्य स्थानों पर भी होता है, जैसे निर्माण स्थलों पर जहां ग्रेनाइट और टाइलें काटी जाती हैं। भारत के लगभग हर जिले में निर्माण कार्य चल रहा है, इसलिए सिलिकोसिस का जोखिम देश के हर हिस्से में श्रमिकों को प्रभावित कर सकता है। अगर भारत को 2025 तक टीबी उन्मूलन के अपने लक्ष्य को हासिल करना है, तो सिलिकोसिस पर नियंत्रण आवश्यक है।

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आपके अध्ययन में सिलिकोसिस बीमारी के संदर्भ में कौन-कौन से अहम तथ्य उजागर हुए? कृपया विस्तार से बताएं

A

मेरे अध्ययन से कुछ महत्वपूर्ण तथ्य सामने आए जो सिलिकोसिस के प्रभाव को दर्शाते हैं। सिलिकोसिस टीबी उपचार के नकारात्मक परिणामों का खतरा 2.3 गुना बढ़ा देता है। इसके कारण टीबी उपचार में विफलता का जोखिम 3 गुना और मृत्यु का जोखिम 2 गुना अधिक होता है। सिलिकोसिस से ड्रग-प्रतिरोधी टीबी का जोखिम 2.5 गुना बढ़ जाता है और टीबी के पुन: उपचार की आवश्यकता 4 गुना बढ़ जाती है। इन निष्कर्षों के आधार पर, हमने सुझाव दिया है कि भारत की “डिफरेंशिएटेड टीबी केयर” रणनीति में सिलिकोसिस को एक प्रमुख जोखिम कारक के रूप में शामिल किया जाना चाहिए, जैसे एचआईवी और मधुमेह को शामिल किया गया है क्योंकि ये सभी टीबी के प्रतिकूल परिणामों से जुड़े हैं। टीबी के उपचार के परिणामों में सुधार लाने के लिए, हमने एक टीबी-सिलिकोसिस सहयोगात्मक ढांचा तैयार किया है, जो टीबी-एचआईवी और टीबी-मधुमेह कार्यक्रमों के मॉडल पर आधारित है। इसके अंतर्गत दोतरफा स्क्रीनिंग का सुझाव दिया गया है, जिसका अर्थ है कि सभी सिलिका धूल के संपर्क में आए टीबी रोगियों की सिलिकोसिस के लिए स्क्रीनिंग होनी चाहिए और सभी सिलिकोसिस रोगियों (चाहे उनमें टीबी के लक्षण हों या न हों) और सभी सिलिका-धूल के संपर्क में आए ऐसे श्रमिकों की सक्रिय टीबी के लिए स्क्रीनिंग होनी चाहिए जिनमें टीबी के लक्षण हों। हमारे शोध से यह भी पता चला कि सिलिका धूल के संपर्क में आए 58 प्रतिशत अगेट-स्टोन श्रमिकों में लेटेंट टीबी संक्रमण (एलटीबीआई) पाया गया, जो सामान्य जनसंख्या की तुलना में लगभग दोगुना है। हमने सिफारिश की है कि राष्ट्रीय दिशानिर्देशों में सिलिकोसिस को सिलिका धूल के संपर्क के रूप में उच्च-जोखिम समूह के रूप में परिभाषित किया जाए और इनकी व्यवस्थित लेटेंट टीबी संक्रमण जांच और निवारक उपचार सुनिश्चित किया जाए। इस बदलाव से इस संवेदनशील जनसंख्या में लेटेंट टीबी संक्रमण से सक्रिय टीबी रोग की प्रगति को रोकने में मदद मिल सकती है। अंततः, हमने टीबी उपचार कार्डों पर सिलिका धूल के संपर्क को दर्ज करने और निक्षय पोर्टल में इस जानकारी को शामिल करने की सिफारिश की है। इससे इन उच्च-जोखिम वाले श्रमिकों के लिए लक्षित देखभाल सुनिश्चित करने के साथ-साथ सिलिकोसिस और टीबी के बीच के संबंध की बेहतर निगरानी संभव हो सकेगी।

(अस्वीकरण: इस साक्षात्कार में व्यक्त विचार और अंतर्दृष्टि पूरी तरह से मेरे व्यक्तिगत हैं और राष्ट्रीय व्यावसायिक स्वास्थ्य संस्थान (एनआईओएच), भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर), या स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग (डीएचआर) की आधिकारिक राय या दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं)

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