हैदराबाद की स्लम बस्तियों की महिलाओं में प्रजनन संबंधी बीमारी में तेज वृद्धि

हैदराबाद के हेल्पिंग हैंड फाउंडेशन द्वारा कराए गए सामुदायिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण में यह बात निकलकर आई
फोटो का इस्तेमाल प्रतीकात्मक किया गया है। फोटो: तरण दयोल
फोटो का इस्तेमाल प्रतीकात्मक किया गया है। फोटो: तरण दयोल
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हैदराबाद की शहरी स्लम बस्तियों में महिलाओं में प्रजनन और गैर-संक्रामक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं में वृद्धि तेज हुई है। यह स्थिति मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (आशा) की महत्वपूर्ण लेकिन उन पर अत्यधिक काम के बोझ को भी दर्शाती हैं। हैदराबाद स्थित गैर सरकारी संगठन हेल्पिंग हैंड फाउंडेशन (एचएचएफ) द्वारा हाल ही में किए गए सामुदायिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण से यह बात निकलकर आई है।

एचएचएफ द्वारा संचालित प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में हाशिए पर पड़े इन समुदायों की 22,000 से अधिक महिलाओं के सर्वेक्षण में पाया गया कि 40 प्रतिशत महिलाएं अनियमित मासिक धर्म से पीड़ित हैं, जिसमें पॉलीसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम (पीएसीओएस) एक बड़ी चिंता का विषय है। खराब आहार और अनियमित जीवनशैली के कारण होने वाले हार्मोनल विकार ने इस क्षेत्र की 40 प्रतिशत किशोरियों और लगभग 50 फीसदी वयस्क महिलाओं के स्वास्थ्य को प्रभावित किया है।

हेल्पिंग हैंड फाउंडेशन के अनुसार इन स्वास्थ्य केंद्रों में आशा कार्यकर्ता लगातार महिलाओं की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को देखती हैं। आशा कार्यकर्ता समुदाय आधारित स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करती हैं। ध्यान रहे कि इनके प्रमुख कार्यों में प्रसव पूर्व देखभाल और टीकाकरण से लेकर गैर संक्रामक रोगों की निगरानी करना भी शामिल है। हालांकि यहां पर स्वास्थ्य परिस्थितियों में हो रही लगातार वृद्धि के कारण आशा कार्यकर्ताएं खुद को कमजोर पा रही हैं।

स्वास्थ्य अधिकारियों का कहना है कि तेलंगाना में लगभग 30,000 आशा कार्यकर्ता हैं, जिनमें से लगभग 2,500 अकेले हैदराबाद में ही पंजीकृत हैं और सक्रिय रूप से सेवा कर रही हैं। सामुदायिक स्तर की स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में एक रीढ़ के रूप में काम करते हुए आशा कार्यकर्ता मातृ और बाल स्वास्थ्य, टीकाकरण और बीमारी की रोकथाम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती आ रही हैं। ध्यान रहे कि अक्सर दूर-दाराज इलाकों में स्वास्थ्य संबंधी सेवा के लिए आशा कर्यकर्ता ही हैं।

फाउंडेशन के सर्वेक्षण में यह भी बताया गया है कि 22 फीसदी किशोर लड़कियां एनीमिया से पीड़ित थीं, जबकि लगभग आधी (45 प्रतिशत) गर्भवती महिलाएं एनीमिया से पीड़ित थीं। गर्भावस्था से जुड़ी जटिलताएं बहुत अधिक आम थीं। 15 फीसदी महिलाओं ने गर्भावस्था के कारण उच्च रक्तचाप का अनुभव किया, वहीं 11 फीसदी को गर्भकालीन मधुमेह था और प्रसव के बाद की स्थितियां तो बहुत अधिक खराब थीं, जिनमें से 24 प्रतिशत ने उच्च रक्तचाप की शिकायत की, 20 प्रतिशत महिलाएं अवसाद का सामना कर रही थीं और 43 प्रतिशत बच्चे जन्म के बाद लगातार शारीरिक परेशानियों और दर्द से पीड़ित थे।

फाउंडेशन का कहना है कि सौ फीसदी यह बात सच है कि आशा कार्यकर्ता प्राथमिक स्वास्थ्य नेटवर्क की तो रीढ़ तो बनी हुई हैं लेकिन उन पर अत्यधिक न केवल काम का बोझ है बल्कि उनको सीमित संसाधनों से भी जूझना पड़ता है। नवजात शिशु की देखभाल से लेकर पुरानी बीमारियों से निपटने के लिए उनके पास सीमित मात्रा में ही संसाधन मौजूद हैं।

सर्वेक्षण में कहा गया है कि इनमें से अधिकांश स्वास्थ्य संबंधी स्थितियों पर समय रहते जागरुकता अभियान चलाकर रोका जा सकता है। साथ ही अनियमित जीवनशैली के कारण हो रही बीमारियों को भी समय रहते रोका जा सकता है। विशेषज्ञों का तर्क है कि आशा कार्यकर्ताओं की क्षमता को बढ़ने के लिए इस क्षेत्र में अधिक से अधिक निवेश किए जाने की जरुरत है। सर्वेक्षण में सुझाव दिया गया है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) आधारित नवजात और मातृ स्वास्थ्य उपकरण शुरू करने, प्रजनन स्वास्थ्य परामर्श में प्रशिक्षण बढ़ाने और सबसे महत्वपूर्ण है आशा कार्यकर्ताओं के लिए वेतन बढ़ाने और उनके काम करने की स्थिति में सुधार सबसे अधिक जरूरी है। 

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