टीकमगढ़: अस्पतालों में प्रसूति दर बढ़ने के बाद भी मांओं और नवजातों की हालत खराब

बहुत कम महिलाओं की हो प्रसवपूर्व उचित देखभाल पाती है, जबकि प्रोत्साहन राशि के लिए ज्यादातर महिलाएं सरकारी अस्पतालों में डिलीवरी कराती हैं
टीकमगढ़ में अस्पतालों में डिलीवरी कराने वाली महिलाओं की तादात बढ़ी है। फोटो: तरण दयोल
टीकमगढ़ में अस्पतालों में डिलीवरी कराने वाली महिलाओं की तादात बढ़ी है। फोटो: तरण दयोल
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मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ के जिला सरकारी अस्पताल के जच्चा-बच्चा वार्ड के सभी 28 बेड भरे हुए हैं। पिछले दशक के अधिकांश समय में इसी वार्ड की यही स्थिति रही है।

ज्यादातर महिलाएं सरकारी अस्पताल में डिलीवरी कराने इसलिए पहुंच रही हैं क्योंकि ऐसा करने पर उन्हें अन्य सरकारी योजनाओं के अलावा आर्थिक मदद भी दी जा रही है, चाहे वह सीधे नकदी के रूप में हो या अन्य फायदों के रूप में। हालांकि डिलीवरी की संख्या बढ़ने के बावजूद सरकारी अस्पताल में इसके लिए बुनियादी ढांचा पर्याप्त नहीं है और जच्चा-बच्चा की जान की हिफाजत की कोई गारंटी नहीं है।

19 साल की सरिता (बदला हुआ नाम) ने कुछ दिन पहले जिला सरकारी अस्पताल में बच्चे को जन्म दिया है। वह तनाव में दिखीं, वजह-उनके नवजात बच्चे का वजन काफी कम था और उल्टियां करने की वजह से उसे पिछले सप्ताह से नवजात बच्चे की देखभाल के लिए बने विशेष वार्ड में रखा गया है। वह कहती हैं, - ‘मुझे अपनी बच्चे की हालत के बारे में कुछ पता नहीं है’। 

इस अस्पताल में कुल 102 बेड, चार सीनियर डॉक्टर, नौ मेडिकल ऑफिसर और बीस नर्सें हैं। काम के बोझ के चलते ज्यादातर स्टाफ तनाव में है। यहां रोजाना तीस से चालीस डिलीवरी कराई जाती हैं। नाम न छापने की शर्त पर अस्पताल की एक नर्स बताती हैं, ‘वैसे तो एक सामान्य डिलीवरी के बाद एक महिला को 48 से 72 घंटे अस्पताल में देखरेख के लिए रखना चाहिए लेकिन पर्याप्त जगह न होने के चलते हम कई बार ऐसा नहीं कर पाते। इसलिए कई बार सामान्य डिलीवरी वाली महिला की हम एक दिन बाद ही छुट्टी कर देते हैं।’
 
पिछले दशक की शुरुआत मे यहां जिन महिलाओं की सीजेरियन डिलीवरी होनी होती थी, उन्हें झांसी के मेडिकल कॉलेज भेज दिया जाता था, जहां पहुचंने में यहां से ढाई घंटे लगते हैं। 2015 से 2020 के बीच इस सरकारी अस्पताल में केवल एक डॉक्टर ऐसे थे, जो सीजेरियन डिलीवरी कराने में सक्षम थे। अस्पताल के एक सूत्र ने बताया कि अब यह संख्या चार हो गई है।  

अपर्याप्त प्रसवपूर्व देखभाल

स्थानीय महिलाएं, जो डिलीवरी के लिए अस्पताल आती हैं, उन्हें गर्भावस्था के दौरान उचित देखभाल नहीं मिल पाती। 28 महिलाओं के वार्ड में आमतौर पर केवल एक महिला ऐसी थीं, जो गर्भावस्था के दौरान तीनों जरूरी जाचें करा पाई थी। जबकि बाकियों में से किसी की दो जाचें हुई तो किसी की एक भी नहीं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने ख्ूान की कमी वाली महिलाओं की जांच करने, जन्मजात विसंगतियों का जल्द पता लगाने, कम आयरन-स्तर को रोकने और मां और भू्रण के उचित पोषण को सुनिश्चित करने के लिए गर्भावस्था के दौरान कम से कम चार जांचें जरूरी बताईं हैं।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के जिला कार्यक्रम अधिकारी आदित्य तिवारी ने बताया कि टीकमगढ़ की स्थिति यह है कि यहां की कुल गर्भवती महिलाओं में से केवल आधी, गर्भ के पहले तीन महीने में जांच करा पाती हैं। उनके मुताबिक, नियमित जांच न होने की वजह से गर्भ में पल रहे बच्चे के समय से पहले जन्म लेने या उसके वजन के कम रहने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं।

सरिता के मामले को ही लें, जिनका बच्चा अभी नवजात बच्चों की देखभाल के लिए बने विशेष वार्ड मे है। इस वार्ड की कुल क्षमता बीस बेड की है और जबकि जितने बच्चे यहां रखे जाते हैं, उससे डेढ़ गुना ज्यादा इसमें भर्ती होने का इंतजार कर रहे होते हैं।

नवजात बच्चे के विशेष वार्ड के प्रभारी डॉ़ कमलेश सूत्रकार ने कहा कि जन्म लेने वाले कुल बच्चों में से 10-12 फीसदी को विशेष वार्ड में रखने की जरूरत पड़ती है। जिसकी वजहें समय से पहले प्रसव और जन्म के समय दम घुटना आदि हो सकती हैं। सरकारी अस्पताल में नवजात बच्चों की मृत्यु-दर भी इसी सीमा में है।

उन्होंने कहा, ‘ महिलाएं सरकारी अस्पताल में डिलीवरी, उन्हें मिलने वाले पैसे की खातिर कराती हैं लेकिन वे गर्भ के समय लिए जाने वाले जरूरी पोषण को लेकर जागरुक नहीं हैं।’ उनके मुताबिक, उनके वार्ड से 2-3 फीसदी बच्चों को जटिलता बढ़ जाने के चलते झांसी के मेडिकल कॉलेज रेफर करना पड़ता है।

दस लाख से ज्यादा आबादी वाली जिले की ज्यादातर आबादी गांवों में रहती है। अस्पताल की स्त्री-रोग विशेषज्ञ डॉ प्रियंका शर्मा के मुताबिक, ‘ ग्रामीण इलाकों में ज्यादा बच्चे पैदा करने के चलते महिलाएं खून की कमी का शिकार होती हैं। दूसरी मुख्य वजह, उन्हें पर्याप्त पोषण न मिलना हैं। जिसके चलते प्रसवोत्तर रक्तस्राव, उच्च रक्तचाप और खून की कमी आदि ज्यादातर महिलाओं की मौत की प्रमुख वजहें बनती हैं।’

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के जिला कार्यक्रम अधिकारी आदित्य तिवारी बताते हैं कि इन्हीं वजहों के चलते 89 फीसद डिलीवरी स्वास्थ्य केंद्रों में होने के बावजूद यहां सुरक्षित प्रसव से जुड़े अन्य कारक बहुत प्रभावी हैं। जिले की नवजात बच्चों की मृत्यु दर तीस है जबकि सागर डिवीजन में मातृत्व मृत्यु-दर 189 है। इस डिवीजन में टीकमगढ़ के अलावा पन्ना, दमोह, सागर, छत्तरपुर और निवाड़ी जिले शामिल हैं।

टीकमगढ़ में 22 जन स्वास्थ्य केंद्र, सात सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और एक जिला अस्पताल है। इसके बावजूद यहां स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे में कई खामियंा हैं। तिवारी कहते हैं, ‘हर जन स्वास्थ्य केंद्र, और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में स्टाफ की कमी है, उनमें जितने कर्मचारी होने चाहिए, कुछ तो उनके आधे कर्मचारियों के साथ काम कर रहे हैं जबकि कुछ में तो एक भी नर्स नहीं है।’ 22 जन स्वास्थ्य केंद्रों में से केवल 11 में चौबीस घंटे काम करने वाले लेबर रूम हैं जबकि नवजात बच्चों की देखरेख की व्यवस्था, दो कें्रदों जतारा और पृथ्वीपुर में काम ही नहीं कर रही है।’

टीकमगढ़ के चीफ मेडिकल ऑफिसर डॉ पीके माहोर के मुताबिक, हम काफी समय से स्टाफ की कमी से जूझ रहे हैं। सरकार अस्पतालों में डिलीवरी की संख्या बढ़ रही है, जिसके चलते हमें स्टाफ को फिर से ट्रेनिंग देने की जरूरत है, जिससे वे जटिल मामलों को संभाल सकें।

कई अध्ययनों में यह पाया गया है कि सरकारी अस्पतालों में डिलीवरी की बढ़ती तादाद इसकी गांरटी नहीं है कि मातृत्व मृत्यु-दर  घटेगी। 2014 में ‘सांइस’ मैग्जीन में प्रकाशित एक पेपर में तर्क दिया गया कि - सवाल उन सुविधाओं का है, जो सरकारी अस्पतालों में प्रसव से पूर्व, उसके दौरान और बाद में उपलब्ध कराई जाती हैं।

वहीं, द पब्ल्कि लाइब्रेरी ऑफ साइंस (प्लॉस) में प्रकाशित एक अध्ययन में सरकारी अस्पतालों में जन्म दर और मातृत्व मृत्यु-दर के बीच संबंध का आकलन किया गया। इसमें बताया गया: ‘गांवों की महिलाएं डिलीवरी के लिए पास के जिन केंद्रों पर जाती हैं, उनमें बुनियादी समस्याएं है। इसके चलते सुरक्षित प्रसव कराना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। यहा वजह है कि प्रसव केंद्रों तक पहुंचने केे बावजूद कई बार उनकी जान नहीं बच पाती।’

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