अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष: मिलिए इन लखपति दीदियों से, जानिए कैसे अपने बूते बन गई लखपति

स्वयं सहायता समूह से जुड़ी एक करोड़ से अधिक महिलाएं लखपति दीदी बन चुकी हैं। कैसी होती हैं यह लखपति दीदी, यही जानने का प्रयास करती एक रिपोर्ट
पहाड़ी अनाज के जरिए उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले की पवित्रा राणा  साल भर में पौने दो लाख रुपए तक कमा लेती हैं (फोटो: वर्षा सिंह)
पहाड़ी अनाज के जरिए उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले की पवित्रा राणा साल भर में पौने दो लाख रुपए तक कमा लेती हैं (फोटो: वर्षा सिंह)
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1 फरवरी 2024 को केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में कहा, “83 लाख स्वयं सहायता समूह नौ करोड़ महिलाओं को सशक्त व आत्मनिर्भर बनाकर ग्रामीण भारत के सामाजिक व आर्थिक परिदृश्य को बदल रहे हैं। इन समूहों ने एक करोड़ महिलाओं को लखपति दीदी बनने में मदद की है। वे (लखपति दीदी) दूसरों के लिए प्रेरणा बन रही हैं। उन्हें सम्मानित कर उनकी उपलब्धियों को मान्यता दी जाएगी और इस सफलता से उत्साहित होकर लखपति दीदी बनाने का लक्ष्य दो करोड़ से बढ़ाकर तीन करोड़ करने निर्णय लिया गया है।”

आखिर ये लखपति दीदी कौन हैं? यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने पड़ताल की तो पता चला कि अक्टूबर 2021 में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से जारी बयान में उनका जिक्र किया गया था। इसमें कहा गया था कि ग्रामीण विकास मंत्रालय ने स्वयं सहायता समूहों से जुड़ी ग्रामीण महिलाओं को लखपति बनाने के लिए एक पहल की शुरुआत की है। इसका उद्देश्य ग्रामीण महिलाओं को प्रति वर्ष कम से कम एक लाख रुपए कमाने में सक्षम बनाना है। इसके लिए मंत्रालय ने अगले दो वर्षों में 2.5 करोड़ ग्रामीण स्वयं सहायता समूह की महिलाओं को आजीविका सहायता प्रदान करने की योजना बनाई है। हालांकि 15 अगस्त 2023 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की कि वह देश में दो करोड़ लखपति दीदी देखना चाहते हैं। इसी का जिक्र करते हुए वित्त मंत्री ने कहा कि यह लक्ष्य बढ़ाकर तीन करोड़ किया जाएगा।

लखपति दीदी अभियान को राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन का हिस्सा बनाया गया था। इसके तहत महिलाओं को कृषि और इससे जुड़ी गतिविधियों से लेकर पशुधन, गैर-लकड़ी वन उत्पाद के अलावा घरेलू स्तर की आजीविका की गतिविधियों के लिए तीन लाख रुपए तक का लोन देने का प्रावधान किया गया। साथ ही, महिलाओं को प्रशिक्षण देने का भी प्रावधान था। अभियान महिलाओं के िकतने काम आ रहा है, यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने पांच राज्यों की पांच लखपति दीदी से बात की और जाना कि लखपति बनना उनके लिए क्या मायने रखता है?

समूह से संगठन

उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के भटवाड़ी ब्लॉक के गंगोरी गांव की 37 वर्षीय पवित्रा राणा 16 साल पहले अपने खेतों में सब्जियां और पहाड़ी अनाज उगाने और बाजार में बेचने का काम करती थीं। लेकिन उत्पादन और मुनाफा बहुत कम था। 2008 में स्वयं सहायता समूह “गंगा मइया” से जुड़ने और 2022 में कई समूहों को मिलाकर बने भागीरथी अन्नपूर्णा सब्जी उत्पादक स्वायत्त सहकारिता एफपीओ (किसान उत्पादक संघ) बनाने के सफर में पवित्रा न केवल खुद आगे बढ़ीं बल्कि गांव की अन्य महिलाएं भी आत्मनिर्भर बनीं। उनके एफपीओ में करीब 200 महिलाओं और 100 पुरुष शामिल हैं। वह बताती हैं, “अपने खेतों में सब्जियां हम पहले भी उगाते थे, लेकिन अकेले काम करने और थोड़े से उत्पादन को बाजार में ले जाने से कोई फायदा नहीं मिलता था। इसलिए गांव की महिलाओं ने मिलकर स्वयं सहायता समूह बनाया। यह समूह आसपास के गांवों से सब्जियां और अनाज इकट्ठा करता है और उसे बेचने बाजार ले जाता है।”

पवित्रा बताती हैं कि बाजार में मंडुवा-झंगोरा जैसे पारंपरिक पहाड़ी अनाजों की मांग और कीमत बेहतर है। हमने मिलेट्स को लेकर काम करना शुरू किया है। 2023 में कृषि विभाग को हमने 30 टन मंडुवा बेचा। हम अपने और आसपास के गांवों से मंडुवा इकट्ठा करते हैं और फिर इसे बाजार में बेचते हैं। अपने उत्पाद को अब हम उत्तरकाशी से लेकर देहरादून, ऋषिकेश और हरिद्वार तक ले जाते हैं। पिछले साल हमने गांववालों के घर जाकर 35 रुपए किलो की दर से मंडुवा खरीदा, जबकि कृषि विभाग को 38.46 रुपए के भाव से बेचा। इस हिसाब से उन्होंने 10.5 लाख रुपए में खरीद और 11.54 लाख की बिक्री की। इससे जो भी मुनाफा (करीब एक लाख रुपए) हुआ वो सभी सदस्यों में बराबर बांट लिया गया। इस प्रकार के अन्य कई फसलें भी बेची जा रही हैं। इसका एक फायदा यह भी है कि गांव के लोगों को अपनी उपज लेकर बाजार नहीं जाना पड़ता और उन्हें उसकी कीमत घर पर ही मिल रही है।

पवित्रा कहती हैं कि पहले बिचौलिया या ठेकेदार हमसे 18-20 रुपए किलो के भाव से हमारे पहाड़ी अनाज खरीद लेते थे और खुद अच्छा मुनाफा कमाते थे। लेकिन अब हम अपने खेत और बाजार दोनों की जिम्मेदारी खुद उठा रहे हैं। इससे हमारी आजीविका में सुधार हुआ है। पवित्रा बताती हैं कि पहाड़ी अनाज के जरिये वह एक साल में अब डेढ़ से पौने दो लाख रुपए तक कमा लेती हैं। उनका कहना है, “स्वयं सहायता समूह को किसान उत्पादक संघ बने दो साल ही हुए हैं। हमें अपने काम को बहुत आगे ले जाना है।”

बदली जिंदगी

छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के गांव पाडाभट (पोस्ट कनकी) में नेमा मानिकपुरी के घर उनकी बिटिया भारती की शादी की तैयारियां चल रही हैं। उसकी शादी बस्तर में पदस्थ नेशनल सिक्योरिटी गार्ड (एनएसजी) के साथ हो रही है। हाल ही में उन्होंने नए घर में पूजा की है। उनके पास न खेती है और न ही घर चलाने में मदद करने वाला दूसरा सहारा। महज सब्जी बेचकर उन्होंने बेहद मुफलिसी में परिवार को पाला है। 1995 में उनके पति घर छोड़कर चले गए थे। वह कभी लौटकर नहीं आए। नेमा अपनी दो बेटियों के साथ बकरियों के घर में रहती थीं। उन्होंने आजीविका के लिए सब्जी बेचने का काम शुरू किया। पर इससे कुछ खास भला नहीं होता क्योंकि वह बाजार से सब्जी लातीं और बेचतीं। इससे उन्हें ज्यादा लाभ नहीं मिलता।

साल 2004 में उन्होंने 10 सदस्यीय स्वयं सहायता समूह बनाया, जिसे एकता स्वयं सहायता समूह नाम दिया गया। शुरुआत में इसमें दस-दस रुपए जमा किए गए। इससे उनके पास इतनी पूंजी जमा हो गई कि वह खुद ऐसी दुकान से सामान ला सकें, जहां से उन्हें अधिक लाभ हो सके। सब्जी के साथ ही स्वयं सहायता समूह का काम चलता रहा। उनके समूह का सालाना 9 लाख रुपए का लेनदेन होता है। नेमा की बेटी भारती बताती हैं कि समूह की वजह से ही उनकी जिंदगी बदल पाई। वह पढ़ लिख पाईं और आज अपने पैरों पर खड़ी हैं। आज उनका परिवार सालाना चार लाख रुपए की आय अर्जित करता है।

20 हजार रुपए की मासिक कमाई

कमला खराड़ी राजस्थान के डूंगरपुर जिले के ओड़ाबड़ा गांव की रहने वाली है। उनकी उम्र 35 वर्ष है। उनका ताल्लुक आदिवासी समाज से है। कमला ने आठवीं तक पढ़ाई की है। कमला के स्वयं सहायता समूह का नाम “जय बाबा रामदेव” है। 2011 में वह समूह से जुड़ीं। इससे पूर्व वह अपने पति के साथ खेती करती थीं। मौसमी खेती की वजह से बाकी दिनों में मनरेगा में काम करने भी जाते थे। कमला ने बताया कि इससे कर्ज भी नहीं चुका पाते थे। समूह से लोन लेकर उन्होंने खुद के लिए गांव में एक किराने की दुकान खोली और पति के लिए एक टेम्पो खरीदा। इससे उसकी आर्थिक स्थिति सुधरी और उन्होंने पक्का मकान भी बनवा लिया। उनके तीनों बच्चे स्कूल जाते हैं।

कमला अभी दुकान के अलावा दूसरी महिलाओं को स्वयं सहायता समूह बनाने के लिए प्रेरित और प्रशिक्षित भी देती है। उनके समूह में 12 महिलाएं हैं, जिन्हें सरकार से लोन और अनुदान का सहयोग मिलता है। साथ ही, खेती के लिए बीज और खाद भी मिलते हैं। वह अभी राज्य सरकार की संस्था राजीविका से भी जुड़ी हुई है, जहां से उन्होंने कृषि विभाग, पशुपालन विभाग और पंचायती राज विभाग से महिला सशक्तिकरण का प्रशिक्षण लिया है। कमला ने शुरुआत घर का खर्च चलाने के लिए में दो हजार रुपए का लोन लिया जिसकी ब्याज दर 1 प्रतिशत थी। फिर उन्होंने पांच हजार रुपए लेकर घर में बिजली का कनेक्शन कराया। उसके बाद तीस हजार रुपए का लोन लेकर घर बनवाया। बाद में 50 हजार का लोन लेकर किराने की दुकान खोली। कमला बताती है कि उसने 50 हजार रुपए का लोन लेकर ही अपने पति को टेम्पो दिलाया, जिससे वह सब्जी बेचता है। वह पुराना लोन चुकाती है और नया लोन ले लेती है। वर्तमान में कमला अपनी किराने की दुकान से करीब 20 हजार रुपए प्रतिमाह कमा लेती है और उसका पति 25 हजार रुपए प्रतिमाह कमा लेता है।

बचत से संवारी जिंदगी

नीतू वाडीवा की शादी 2010 में मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के गांव धपाड़ा में जयप्रकाश वाडीवा से हुई थी। विवाह के बाद उन्होंने बी. कॉम किया। उन्हें पता चला कि आजीविका मिशन के अंतर्गत स्वयं सहायता समूह बनाए जा रहे हैं। वह एकता स्वयं सहायता समूह से 2016 में जुड़ गईं, जहां महिलाएं हर महीने 20 रुपए जमा करती थीं। समूह से जुड़कर उन्हें वित्तीय साक्षरता, बुक कीपिंग, समूह प्रबंधन, समूह में लेनदेन, ग्राम सखी आदि बहुत से प्रशिक्षण प्राप्त करने का मौका मिला। समूह से जुड़ने के 8 महीने बाद ही डेवलपमेंट एम्पावरमेंट फाउंडेशन से उन्हें ऑनलाइन काम करने के लिए कॉमन इनफार्मेशन सेंटर दिया गया। 2015 में उनका चयन हुआ, जो दो साल का प्रोजेक्ट था। इसमें उन्हें आधार कार्ड निकालना, समग्र आईडी, खाते से पैसे निकलवाना, बच्चों के नवोदय के फॉर्म भरना, हितग्राही पंजीयन, खसरा नक्शा निकालना आदि सीखा। इसका फायदा यह हुआ कि प्रोजेक्ट की अवधि खत्म होने के बाद भी आज तक काम मिल रहा है। अब वह उन्नति संकुल (कई स्व सहायता समूहों को मिलाकर एक संकुल बना दिया जाता है) के माध्यम से 2 पंचायत के 24 समूहों का काम भी देखती हैं। अब तक उनके समूह को अलग-अलग योजनाओं के तहत लगभग तीन लाख रुपए का फंड भी मिल चुका है। वह बताती हैं, “समूह से जुड़ने से पहले मैं दो से तीन हजार रुपए सिलाई आदि करके कमाती थी, लेकिन अब उनकी सालाना आय सवा लाख रुपए तक पहुंच गई है”।

फूलों की खेती से कमाई

झारखंड के खूंटी जिले के गांव पारटोली, हिटूटोला की प्रीति देवी के परिवार के पास दो एकड़ जमीन है। वे पारंपरिक खेती करते थे, उससे उनके परिवार के खाने के लिए अनाज तो हो जाता था, लेकिन दूसरी जरूरतों के लिए तरसना पड़ता था। किसी ने उन्हें सलाह दी कि वे यदि अपने खेतों में गैंदा फूल लगाए तो हाथों हाथ बिक जाएगा। लेकिन प्रीति और उनके पति की चिंता यह थी कि गैंदा फूल के पौधे लाने के लिए पैसा कहां से आएगा। 27 साल की प्रीति गांव में बनी विकास गणपति महिला मंडल नाम के स्वयं सहायता समूह की सदस्या हैं।

यह समूह महिलाओं को लोन भी देता है। उन्होंने स्वयं सहायता समूह से 30 हजार रुपए का लोन ले लिया और गैंदे के पौधे लेकर अपने एक एकड़ के खेत में लगा दिया। लगभग चार महीने बाद जब फूल तैयार हो गए तो उन्होंने छठ और दीवाली के समय व्यापारी खेत में ही आकर फूल खरीद लिए। इस तरह पहली ही फूल की उपज 90 हजार रुपए के बिक गई। इससे पहले उन्होंने सरकारी अधिकािरयों की सलाह पर अपने खेत की मेड़ों पर आम के पेड़ भी लगा लिए थे। सीजन में आम भी अच्छी कीमत पर बिक गया। खरीफ में उन्होंने धान लगाने के लिए स्वयं सहायता समूह से लोन लिया। अब वह धान इतना पैदा कर लेते हैं कि बाजार में बेच भी सकें। आर्थिक तंगी कुछ कम हुई तो पति ने ऑटो चलाना शुरू कर दिया है। प्रीति देवी बताती हैं कि अब साल भर की उनकी कुल आमदनी 1 लाख रुपए से अधिक हो जाती है। इसमें वह हर साल लोन चुका भी देती हैं। और जब जरूरत पड़ती है, तब स्वयं सहायता समूह से लोन ले लेती हैं। बाकी पति भी ठीकठाक कमा लेते हैं। इस तरह उनका नाम लखपति दीदी में शुमार हो गया है। वह कहती हैं कि पहले घर की हालत ठीक नहीं थी तो पति को बाहर कमाने जाना पड़ता था, लेकिन अब अपने खेतों से ही अन्न के अलावा इतनी आमदनी हो जाती है कि पति को दूर नहीं जाना पड़ता।

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