हर तरह के तापमान में रहेंगी वैक्सीन सुरक्षित, वैज्ञानिकों ने खोजा नया तरीका

वैज्ञानिकों ने एक ऐसा तरीका खोज निकाला है जिसकी मदद से वैक्सीन को बिना रेफ्रिजरेशन के बदलते तापमान में भी सुरक्षित रखा जा सकता है
हर तरह के तापमान में रहेंगी वैक्सीन सुरक्षित, वैज्ञानिकों ने खोजा नया तरीका
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वैज्ञानिकों ने एक ऐसा तरीका खोज निकाला है जिसकी मदद से वैक्सीन को बदलते तापमान में भी सुरक्षित रखा जा सकता है| इससे पहले वैक्सीन को सुरक्षित रखने के लिए रेफ्रीजिरेटर में रखना पड़ता था| जिससे उसका तापमान 2 डिग्री से 8 डिग्री सेल्सियस के बीच बना रहे| ऐसा नहीं होने पर यह वैक्सीन उपयोगी नहीं रह जाती थी|

पर अब ऐसा नहीं होगा, इस खोज की मदद से वैक्सीन को फ्रिज की मदद के बिना भी लम्बे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है| जिससे वैक्सीन को दूर दर्ज के क्षेत्रों में भी आसानी से ले जाया जा सकता है| इससे पहले वैक्सीन को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए फ्रिज या किसी ऐसी चीज में रखकर ले जाया जाता था जिससे उसका तापमान कम रहे| यह तकनीक उन लाखों बच्चों के लिए वरदान साबित होगी जो दूरदराज के क्षेत्रों में रहते हैं और जिन तक वैक्सीन ख़राब होने के डर से नहीं पहुंच पाती है| नतीजतन, दुनिया भर में लाखों बच्चे जीवन-रक्षक टीकाकरण से चूक जाते हैं।

कैसे काम करती है यह तकनीक

इस तकनीक में प्रोटीन के अणुओं को सिलिका शेल (कवर) में रखने से उसकी संरचना 100 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान में अप्रभावित रहती है| इस तरह इसको कमरे के सामान्य तापमान पर तीन सालों तक सुरक्षित रखा जा सकता है| यह खोज यूनिवर्सिटी ऑफ बाथ द्वारा की गयी है| जिसके बारे में विस्तृत शोध अंतराष्ट्रीय जर्नल साइंटिफिक रिपोर्टस में प्रकाशित हुआ है|

इस तकनीक को न्यूकैसल विश्वविद्यालय के सहयोग से यूनिवर्सिटी ऑफ बाथ द्वारा तैयार किया गया है| इसमें वैक्सीन को सिलिका के अंदर फिट कर दिया जाता है| जिसे एनसिलिकेशन के नाम से जाना जाता है| इस तकनीक पर लैब में दो साल पहले काम करना शुरू किया गया था| जिसका परिक्षण अब वास्तविकता में वैक्सीन पर किया गया है|

इसकी उपयोगिता को जानने के लिए वैज्ञानिकों ने टेटनस के टीके पर परिक्षण किया था| इसके लिए शोधकर्ताओं ने वैक्सीन के दो नमूने तैयार किये जिसमें से एक को सिलिका शेल में फिट किया जबकि दूसरे को सामान्य स्थिति में ही रहने दिया| फिर उन्होंने इस वैक्सीनों को साधारण पोस्ट से 300 मील दूर बाथ से न्यूकैसल भेजा| जहां पहुंचे में इसे करीब दो दिन का समय लगता है| इन टीकों का चूहों पर परिक्षण किया गया| जिस वैक्सीन को सिलिका शेल में रखा गया था उसने तुरंत ही चूहे में इंजेक्ट होने के बाद काम करना शुरू कर दिया| पर जिस वैक्सीन को सामान्य अवस्था में भेजा गया था, उसका चूहे के इम्यून सिस्टम पर कोई असर नहीं पड़ा| जो स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि सिलिका के कवर के बिना भेजी गयी दवा रास्ते में क्षतिग्रस्त हो गयी थी|

पांच से 15 सालों तक वैक्सीन को रखा जा सकता है सुरक्षित

डॉ असेल सरबेवा, जोकि यूनिवर्सिटी ऑफ़ बाथ के केमिस्ट्री डिपार्टमेंट से जुडी हैं| साथ ही इस परियोजना की प्रमुख भी हैं, उन्होंने बताया कि “हमें जो डेटा मिला है वो बहुत ही रोमांचक है क्योंकि यह दिखाता है कि सिलिका की परत न केवल वैक्सीन में मौजूद प्रोटीन की संरचना को बनाये रखती है| इसके साथी ही वो टीके में मौजूद प्रतिरक्षा के गुण को भी कायम रखती है।“ “इस परियोजना में टेटनस के टीके पर परिक्षण किया गया था| जोकि छोटे बच्चों को तीन खुराक में दी जाने वाली डीटीपी (डिप्थीरिया, टेटनस और पर्टुसिस) वैक्सीन का हिस्सा है। इसके बाद हम अलगे चरण में डिप्थीरिया और फिर पर्टुसिस के ऊपर काम करेंगे। हम तीनों डीटीपी वैक्सीन के लिए एक सिलिका केस बनाना चाहते हैं| जिससे दुनिया के हर बच्चे तक इन टीकों को पहुंचाया जा सके और इसके लिए उन्हें कोल्ड स्टोरेज पर भी निर्भर न रहना पड़े।" अभी इन वैक्सीन के लिए टीके के निर्माण के बाद से उन्हें बच्चों में लगाए जाने तक कोल्ड स्टोरेज में रखना पड़ता है| पर दुर्गम स्थानों में हर जगह कोल्ड स्टोरेज उपलब्ध नहीं होता है|

असेल सरबेवा के अनुसार सिलिका एक अकार्बनिक पदार्थ है जो जहरीला नहीं होता है| उनका अनुमान है की एनसिलिकेशन की मदद से वैक्सीन को अगले पांच से 15 सालों तक इस्तेमाल के लायक रखा जा सकता है| साथ ही आने वाले समय में सभी तरह की वैक्सीन को इस तकनीक की मदद से सुरक्षित रखा जा सकेगा| इसके साथ ही यह तकनीक अन्य प्रोटीन-आधारित उत्पादों, जैसे एंटीबायोटिक्स और एंजाइमों को सुरक्षित रखने में मददगार होगी।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, 2018 में 1.94 करोड़ शिशुओं को जरुरी जीवन रक्षक टीके नहीं लग पाए थे| इनमें से लगभग 60 फीसदी बच्चे भारत, अंगोला, ब्राजील, कांगो, इथियोपिया, इंडोनेशिया, नाइजीरिया, पाकिस्तान, फिलीपींस और वियतनाम में रहते हैं| जबकि आंकड़ों पर गौर करें तो करीब 50 फीसदी वैक्सीन इस्तेमाल से पहले ही प्रतिकूल तापमान के चलते ख़राब हो जाती हैं| ऐसे में यह तकनीक उन बच्चों के लिए वरदान सिद्ध होगी जो इन जरुरी टीकों से वंचित रह जाते हैं|

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