भारत में कार्य सम्बन्धी बीमारियों और हादसों में हर वर्ष जा रही है 4.17 लाख लोगों की जान

वैश्विक स्तर पर देखें तो करीब 19 लाख लोगों की मौत के लिए कार्य सम्बन्धी बीमारियां और हादसे जिम्मेवार थे, जिनमें से करीब 7.5 लाख की जान लम्बे समय तक काम करने के कारण गई थी
भारत में कार्य सम्बन्धी बीमारियों और हादसों में हर वर्ष जा रही है 4.17 लाख लोगों की जान
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भारत में कार्य सम्बन्धी बीमारियों और हादसों में हर वर्ष करीब 4.17 लाख लोगों की जान जा रही है। यह जानकारी हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) द्वारा संयुक्त रूप से जारी रिपोर्ट में सामने आई है। इसमें 2000 से 2016 के बीच करीब 20.7 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। जो 2000 में 3.45 लाख से बढ़कर 2016 में 4.17 पर पहुंच गई है। 

वहीं 15 वर्ष से ऊपर की आयु के श्रमिकों की प्रति लाख आबादी पर देखें तो यह आंकड़ा करीब 43.7 था। रिपोर्ट के अनुसार यदि विकलांगता-समायोजित जीवन वर्षों (डीएएलवाइ) के आंकड़ों को देखें तो वो करीब 1.89 करोड़ थे। वहीं 2000 में यह आंकड़ा 1.63 करोड़ वर्ष था। 

वैश्विक स्तर पर गई 19 लाख लोगों की जान

वहीं यदि वैश्विक स्तर के आंकड़ों को देखें तो रिपोर्ट के अनुसार 2016 में करीब 19 लाख लोगों की मौत के लिए कार्य सम्बन्धी बीमारियां और हादसे जिम्मेवार थे। अनुमान है कि इनमें से करीब 81 फीसदी मौतों के लिए  गैर-संचारी रोग जिम्मेवार थे, जिनमें भी अधिकांश मौतों का कारण सांस और ह्रदय सम्बन्धी रोग थे। 

रिपोर्ट से पता चला है कि इन मौतों का सबसे बड़ा कारण क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज थी जिसके कारण करीब 4.5 लाख लोगों की जान गई थी। वहीं स्ट्रोक के चलते 4 लाख, हृदय रोग के कारण 3.5 लाख श्रमिकों की जान गई थी। कार्यस्थल पर हुए हादसे करीब 19 फीसदी मौतों के लिए जिम्मेवार थे, जिनमें करीब 3.6 लाख श्रमिकों की जान गई थी।

लम्बे समय तक काम करने के कारण गई 7.5 लाख श्रमिकों की जान

इस रिपोर्ट में व्यावसायिक जोखिमों से जुड़े 19 कारकों का अध्ययन किया गया है, जिसमें लम्बे समय तक कार्य सम्बन्धी घंटे, वायु, ध्वनि प्रदूषण, अस्थमा, कैंसर, जैसे कारकों को जिम्मेवार माना है। अनुमान है कि लम्बे समय तक काम करने के कारण श्रमिकों के स्वास्थ्य पर जो बुरा असर पड़ा है उसके चलते करीब 7.5 लाख लोगों की जान गई थी, जिसमें 2000 के बाद से करीब 29 फीसदी की वृद्धि हुई है।

रिपोर्ट के मुताबिक हर सप्ताह 55 या उससे ज्यादा घंटों तक काम करने के कारण स्ट्रोक से 3.98 लाख और हृदय रोग से 3.47लोगों की मृत्यु हुई थी। वहीं यदि 2000 से 2016 की अवधि की बात करें तो लम्बे समय तक काम करने के कारण ह्रदय रोग से होने वाली मौतों में 42 फीसदी और स्ट्रोक से मरने वालों की संख्या में 19 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। वहीं वायु प्रदूषण (पार्टिकुलेट मैटर, गैस और धुएं) के चलते 4.5 लाख श्रमिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। 

यही नहीं रिपोर्ट के अनुसार जो लोग प्रति सप्ताह 55 या उससे ज्यादा घंटे काम करते हैं उनमें स्ट्रोक सम्बन्धी जोखिम 35 फीसदी और ह्रदय रोग से मृत्यु की सम्भावना भी 17 फीसदी ज्यादा थी। वहीं दुःख की बात है कि आज भी दुनिया की करीब 9 फीसदी आबादी इससे ज्यादा घंटों तक काम करने को मजबूर है।   

यही नहीं जब से कोरोना महामारी आई है उसने लोगों पर व्यापक असर डाला है नतीजन लोग ज्यादा से ज्यादा घंटों तक काम करने को मजबूर हैं।  इस बारे में डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक डॉ टेड्रोस एडनॉम घेब्रेयसस का कहना है कि कोविड-19 महामारी ने कई लोगों के काम करने के तरीके को काफी बदल दिया है। कई जगह पर लोगों को घर से काम करने की आजादी है। जबकि कई जगह पर लोग कई घंटों तक काम करने को मजबूर हैं। यह चौंका देने वाला है कि इतने सारे लोगों की मौत की वजह उनकी नौकरियां हैं। 

वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन में पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य विभाग की निदेशक डॉ मारिया नीरा का कहना है कि "हर सप्ताह 55 घंटे या उससे अधिक घंटों तक काम करना स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर खतरा है, जिसके चलते असमय मृत्यु तक हो सकती है।"

ऐसे में इस पर सरकार, मालिकों और श्रमिकों को मिलकर काम करने की आवश्यकता है। यह सरकार और नियोक्ताओं की जिम्मेवारी है कि वो इस सम्बन्ध में नियमों का पालन करें और जहां नियमों का आभाव है वहां सरकार को इस विषय पर गंभीरता से काम करने की जरुरत है। लोगों को भी चाहिए कि वो अपने स्वास्थ्य को देखते हुए लम्बे समय तक काम करने से बचें। 

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