गुजरात में फैले चांदीपुरा वायरस ने चार बच्चों की जान ली, जानें कितना खतरनाक है यह वायरस?

साल 2003 में आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में चांदीपुरा वायरस का एक बड़ा प्रकोप हुआ था, जिसमें 329 संक्रमित बच्चों में से 183 की जान चली गई थी।
चांदीपुरा वायरस (सीएचपीवी) रैबडोविरिडे परिवार से संबंधित आरएनए वायरस है, इसके कारण बच्चों में बुखार, फ्लू जैसे लक्षण दिखते हैं और तीव्र इंसेफेलाइटिस या मस्तिष्क में सूजन आ जाती है।
चांदीपुरा वायरस (सीएचपीवी) रैबडोविरिडे परिवार से संबंधित आरएनए वायरस है, इसके कारण बच्चों में बुखार, फ्लू जैसे लक्षण दिखते हैं और तीव्र इंसेफेलाइटिस या मस्तिष्क में सूजन आ जाती है।फोटो साभार: आईस्टॉक
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गुजरात के साबरकांठा जिले में चार बच्चों की मौत हो गई है और दो अन्य का इलाज चल रहा है। माना जा रहा है कि संदिग्ध रूप से चांदीपुरा वायरस के संक्रमण के कारण इंसेफेलाइटिस के शिकार हो गए हैं। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, स्थानीय स्वास्थ्य अधिकारियों ने मृतक और इलाज करा रहे दो बच्चों के नमूने पुष्टि के लिए राष्ट्रीय विषाणु विज्ञान संस्थान को भेजे हैं।

चांदीपुरा वायरस (सीएचपीवी) रैबडोविरिडे परिवार से संबंधित आरएनए वायरस है। यह वायरस बच्चों के लिए एक अनोखा और घातक रोगाणु है। इसके कारण बुखार, फ्लू जैसे लक्षण दिखते हैं और तीव्र इंसेफेलाइटिस या मस्तिष्क में सूजन आ जाती है।

नेचर साइंटिफिक रिपोर्ट्स नामक पत्रिका में प्रकाशित एक शोध के मुताबिक, साल 2003 में आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में इसका एक बड़ा प्रकोप हुआ था, जिसमें 329 प्रभावित बच्चों में से 183 की जान चली गई थी। 2004 में गुजरात में भी छिटपुट मामले और मौतें दर्ज की गई थी। उस समय मरीजों की चिकित्सा जांच में तेज बुखार, कभी-कभी उल्टी, ठंड लगना, संवेदी गड़बड़ी, उनींदापन और 48 घंटों के भीतर कोमा और मृत्यु दर्ज की गई थी।

यह बीमारी 2.5 महीने से 15 साल की उम्र के बच्चों की निशाना बनाती है। इसके लक्षण आम तौर पर इन्फ्लूएंजा जैसे होते हैं, लेकिन न्यूरोलॉजिकल नुकसान और एक घातक ऑटोइम्यून इंसेफेलाइटिस तेजी से विकसित हो सकता है। इसके लक्षण शुरू होने के पहले 24 घंटों के भीतर ही इसका प्रभाव दिखने लगता है। इसके प्रकोप के कारण मृत्यु दर 56 से 75 फीसदी के बीच रह सकती है।

विशेषज्ञों के मुताबिक, यह वायरस मच्छरों, टिक्स और सैंडफ्लाई जैसे वाहकों के माध्यम से फैलता है, तथा इससे बीमारी, कोमा और यहां तक कि तेजी से मृत्यु भी हो सकती है।

हालांकि चांदीपुरा वायरस का पहली बार भारत में 1965 में वर्णन किया गया था और यह मुख्य रूप से मध्य भारत में स्थानीय है, हालांकि इसे पश्चिम अफ्रीका में जानवरों और कीट में भी अलग किया गया है। इसे वेक्टर-जनित माना जाता है और यह भी माना जाता है कि यह सैंडफ़्लाइज फ़्लेबोटोमस पापाटासी के माध्यम से फैलता है।

वायरस को सैंडफ़्लाइज से अलग किया गया है और इन कीड़ों में यौन दोनों तरह से संचारित हो सकता है, हालांकि मनुष्यों में संचरण सिद्ध नहीं हुआ है। मच्छरों को चांदीपुरा वायरस के संचरण में शामिल नहीं पाया गया है, लेकिन प्रयोगशाला स्थितियों में वे वायरस के लिए सक्षम वाहक साबित हुए हैं।

इसका कोई विशिष्ट उपचार उपलब्ध नहीं है और प्रबंधन आम तौर पर सहायक होता है और इसमें इंसेफेलाइटिस वाले लोगों में दौरे और मस्तिष्क का प्रबंधन शामिल हो सकता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने चांदीपुरा वायरस को औसत अंक 350 दिया है वहीं विशेषज्ञों ने इसके खतरे को लेकर इसे 11 फीसदी के वर्ग में रखा है। चांदीपुरा वायरस से होने वाले रोग को अत्यधिक अंक देने वालों का प्रतिशत तीन गुना बढ़ गया, जबकि औसत अंक वही रहा। साथ ही प्लेग, थ्रोम्बोसाइटोपेनिया सिंड्रोम के साथ खतरनाक बुखार और रक्तस्रावी बुखार, जहां औसत अंक और इसे अत्यधिक अंक देने वालों का प्रतिशत दोनों में वृद्धि हुई।

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