इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई
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पुस्तक समीक्षा: पत्रकारिता और साहित्य का साझा उपक्रम

ब्लाइंड स्ट्रीट उस बीट की रिपोर्टिंग है जिसे पत्रकारिता में कमतर आंका जाता है
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“अपने दृष्टिबाधित मित्र मनीष, पार्वती और सखी मीना के लिए जिनके कारण ही ये उपन्यास संभव हो सका”। उपन्यास “ब्लाइंड स्ट्रीट” में प्रदीप सौरभ जिन लोगों को यह रचना समर्पित करते हैं वो आगे किताबी किरदार के रूप में भी मिलते हैं। बजरिए डीयू, जामिया और जेएनयू न हम सिर्फ बेनूर होते मानवीय मूल्य बल्कि विचारधारा का विसर्जन करती राजनीति को भी देखते हैं। प्रदीप सौरभ मूलत: पत्रकार हैं। पत्रकारिता की विधा का मूल धर्म होता है चौंकाना। जो दिख रहा है, वो क्यों दिख रहा है और इसके बदले क्या दिखना चााहिए था यह बताना। लेकिन इसका असर यह होता है कि एक समय के बाद असली पत्रकार खुद चौंकना बंद कर चुके होते हैं। समाज में नैतिकता और आदर्शों के अति आग्रहों के बीच उनकी यह समझ पुख्ता हो जाती है कि नायकत्व गढ़ी हुई गाथा ही होती है। प्रदीप सौरभ उन पत्रकारों में से हैं जो नैतिकता और नायकत्व को आवरणहीन कर उसका साधारणपन बाहर लाते हैं।

आम तौर पर ज्यादातर पत्रकारों की राजनीतिक संस्मरणात्मक किताबें आती हैं और लोग इन्हें पसंद भी करते हैं। पत्रकारों को नेताओं को करीब से जानने-समझने का मौका मिलता है और वे उनके उन्हीं तथ्यों को बाद में रोचक तरीके से किताब के रूप में सामने लाते हैं। लेकिन “ब्लाइंड स्ट्रीट” उस बीट की रिपोर्टिंग है जिसे पत्रकारिता में कमतर माना जाता है। हाशिये पर पड़े नेत्रहीन समाज के लोग। जब एक संवेदनशील पत्रकार इन्हें नजदीक से देखेगा तो उसे लिखने के लिए बहुत सी चीजें मिलेंगी। लेकिन अखबारी रिपोर्टिंग की एक सीमा है। रिपोर्ट की जा सकती है कि अंध विद्यालय की लड़कियों ने यौन उत्पीड़न के खिलाफ प्रदर्शन किया। लेकिन दो कॉलम की उस खबर के बाद पत्रकार अपने मथते दिमाग का क्या करे कि कौन हैं वे लोग जो उनके शरीर को नोचते हैं जिनके साथ पहले ही इतनी बड़ी नाइंसाफी हो चुकी है। आखिर संतान को भगवान की देन मानने वाले देश के लोग उसके अंधेपन का पता चलते ही उन्हें अपना हिस्सा मानने से इनकार कैसे कर सकते हैं। शारीरिक चुनौतियां झेल रहे लोगों के लिए ये समाज चुनौतियों की दीवार इतनी ऊंची कैसे कर देता है कि वो उसे लांघ ही न सकें। रिपोर्टिंग की सीमा में उलझे ये भाव आगे जाकर औपन्यासिक विस्तार पाते हैं। प्रदीप सौरभ का यह उपन्यास उन्हीं भावों का विस्तार है।

“तीसरी ताली”, “देश भीतर देश” और “सिर्फ तितली” जैसे उपन्यासों को लिख कर प्रदीप सौरभ पहले ही यह साबित कर चुके हैं कि वे वर्जित विषयों पर सिर्फ चर्चित होने के लिए नहीं लिख रहे हैं। उनके अंदर एक सरोकारी प्रतिबद्धता है जो उनके पत्रकारीय अनुभवों को औपन्यासिक किरदार बना देते हैं।

“ब्लाइंड स्ट्रीट” में प्रदीप सौरभ नेत्रहीनता पर लिखे और दिखाए गए स्टीरीयोटाइप को तोड़ते हैं। प्रदीप सौरभ कहते हैं कि हमारा समाज या तो नेत्रहीन को देवता बना देगा या निरीह। वो कोई सामान्य आदमी नहीं हो सकता। सबसे अहम है उन्होंने इस चुनौतीपूर्ण दुनिया के वर्गीय संघर्ष को भी सामने रखा है। क्या सभी दृष्टिहीनों की चुनौतियां एक जैसी हैं? यहां प्रदीप सौरभ एक पूरी दुनिया का खाका खींचते हैं। बाबुल और कोयल के किरदार उस उच्च वर्ग की अगुआई करते हैं जहां सड़क पार करने, परीक्षा में लिखने या नौकरी से इतर वर्गीय चुनौतियां भी हैं। एक वर्ग ऐसा भी है जो अपने नेत्रहीन बच्चों को मंदिर या किसी अन्य जगह पर छोड़ देता है तो एक वर्ग ऐसा भी है जो दया नहीं दिखाओ वाले स्वाभिमान की लड़ाई लड़ता है।

नेत्रहीन भी उतना ही लालची, भ्रष्ट हो सकता है जितना आंखों वाला। पारंपरिक और सिनेमाई किरदारों में जहां नेत्रहीनों को चारित्रिक उच्चता प्रदान की है वहां भी प्रदीप सौरभ एक सीढ़ी लगाते हैं और सबको अलग-अलग पायदान पर बिठाते हैं। एक आम इंसान के दिमाग में यही बिठा दिया गया है कि एक नेत्रहीन को एक नेत्रहीन से ही शादी करनी चाहिए। प्रदीप सौरभ के किरदार बताते हैं कि एक नेत्रहीन भी आंखों वाले से शादी करना चाहता है तो एक आंखोंवाला इसलिए नेत्रहीन से शादी करना चाहता है क्योंकि उसके पास सुरक्षित व सरकारी नौकरी है। एक आत्मनिर्भर नेत्रहीन लड़की शादी के बंधन में बंधने से बेहतर अपने फोटोग्राफी जैसे सपने को पूरा करना चाहती है।

नेत्रहीनों को जिस सूरदास परंपरा से जोड़ दिया जाता है प्रदीप सौरभ का आधुनिक किरदार उस पर इस तरह प्रहार करता है, “अंतर्दृष्टि एक भ्रम है।” बाबुल ने अपनी व्याख्या देते हुए कोयल को बताया, सूरदास के संदर्भ में यह सिर्फ महिमामंडन के लिए प्रयोग किया जाता है। सूरदास असल में श्रद्धा का मामला है ही नहीं। यह भी अभी विवाद का विषय है कि वे अंधे थे। मेरी सोच ये कहती है कि उनकी रंग की अवधारणा ही विकसित नहीं हुई थी। वे सिर्फ कृष्ण को देखते थे। इसके अलावा और कुछ वह देखते ही नहीं थे। इसलिए उन्हें अंधा कहा गया होगा। अंध कृष्णभक्त। ठीक वैसे ही जैसे आजकल मोदी जी को देखने वाले अंधभक्तों को दिखने के बावजूद भी असलियत दिखती नहीं।

हमारे समाज की रचना एकवर्गीय या एक रैखिक है। सारी व्यवस्था उन्हीं के लिए है जिसे सामान्य माना गया है। जब नेत्रहीनों के लिए परिवार में ही प्रशिक्षण नहीं है तो उनके साथ सड़क पर कैसा व्यवहार होगा? नेत्रहीनों के प्रदर्शन पर पुलिसिया कार्रवाई पर प्रदीप सौरभ लिखते हैं-“वह लाठीचार्ज ब्लाइंडों के नजरिए से नहीं किया गया। पुलिस को कभी ऐसे लोगों से निपटने की ट्रेनिंग ही नहीं मिली।” अंधेपन को लेकर समाज में अभी भी कितना अंधेरा है, यह किताब उस पर पूरी रोशनी डालती है। नेत्रहीन व्यक्ति अंधविश्वास और चैरिटी के बीच उलझा हुआ है। लेप्रोसी के मरीज को दूध से नहला कर अंधे को पिलाना, गर्भ न ठहरने पर औरतें अपने मासिक धर्म का खून खाने में मिलाकर अंधों को खिलाती हैं ताकि उनका गर्भ ठहर जाए आज भी यह सब होता है। नेत्रहीनों को कोई पढ़ाए, उसके लिए रीडिंग करे तो सिर्फ इसलिए कि वे सब अपना परलोक सुधारना चाहते हैं।

उपन्यास में कहा गया है, “अंधापन इतनी बड़ी समस्या नहीं है, सबसे बड़ी समस्या है उनको इंसान मानने की। दान दक्षिणा से चलते ब्लाइंड स्कूल। ब्लाइंड के नाम पर चलने वाले संगठन रोजगार कार्यालय में तब्दील हो गए।” नेत्रहीनों के नाम पर चलने वाले एनजीओ के भ्रष्टाचार को प्रदीप सौरभ जिस तरह सामने रखते हैं वो एक खोजी पत्रकार ही कर सकता है। ब्लाइंड स्ट्रीट नेत्रहीनों की दुनिया को ऐतिहासिक संदर्भ में देखने की दृष्टि प्रदान करता है। प्रदीप सौरभ लिखते हैं, “इतिहास ऐसा विषय है जो हमें सिखाता है कि जो आप देखना चाहते हैं, वह देख सकते हैं। शांति से मरना है तो शांति से जीना है। कुछ अभावश नहीं होता, कुछ स्वभाववश नहीं होता।” जब यूरोप और अमेरिका में जन्मांधता खत्म हो चुकी है तो भारतीय संदर्भ में अभाव और स्वभाव की यह मुठभेड़ पत्रकारिता और साहित्य के साझा उपक्रम के रूप में एक नई सड़क खोलती है जिस पर जाने के लिए पहले आपको कई छोटी गलियों से गुजरना होता है।

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