भोपाल गैस त्रासदी : जब रेलवे कर्मचारियों ने अपनी जान दाव पर लगाकर बचाई हजारों जिंदगी

स्टेशन सुपरिंटेंडेंट हरीश धुर्वे गैस रिसने की सूचना मिलने पर वापस स्टेशन गए थे और कई ट्रेनों को मौके से रवाना किया था, लेकिन खुद को नहीं बचा पाए
भोपाल गैस त्रासदी : जब रेलवे कर्मचारियों ने अपनी जान दाव पर लगाकर बचाई हजारों जिंदगी
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विवेक त्रिवेदी

2-3 दिसंबर 1984 की सर्द रात को वरिष्ठ रेलवे अधिकारी एसके त्रेहन लगभग आधी रात को किसी समारोह से घर लौटे थे। परिवार इस बात से पूरी तरह बेखबर था कि आधी रात के समय ही भोपाल रेलवे स्टेशन स्थित उनके सरकारी आवास के करीब मौजूद यूनियन कार्बाइड प्लांट से बड़ी मात्रा में जहरीली गैस रिस चुकी है। रात के लगभग 1-1.30 बजे त्रेहन परिवार को अचानक ही आंखों में मिर्च लगने का एहसास होने लगा। तत्कालीन फोरमैन (लोकोशेड प्रभारी) त्रेहन को आशंका हुई कि पास ही स्थित लोको शेड में भाप के इंजन में किसी ने शरारत करते हुए लाल मिर्ची झोंक दी है, जिसकी वजह से कड़वा धुआं सारे क्षेत्र में फैल चुका है। उन्होंने तुरंत ही अपने कनिष्ठ कर्मचारियों को फोन करके जानकारी मांगी पर उन्हें बताया गया कि वहां मौजूद कर्मचारी भी तेज मिर्च जैसे धुएं से परेशान हैं। इसके बाद उनकी शक की सुई फौरन पास स्थित यूनियन कार्बाइड प्लांट की तरफ मुड़ गई।

उन्होंने तुरंत अपने वरिष्ठ आरक्षण सुपरवाइजर एसएस दास के पुत्र से जानकारी ली, जो प्लांट में काम करता था। उसने त्रेहन को बताया कि कोई जहरीली गैस रिस चुकी है। बाद में पता चला कि वह गैस मिथाइल आइसोसाइनाइट थी। त्रेहन ने डाउन टू अर्थ को बताया कि नाम से साफ था कि ये काफी जहरीली गैस है। अचानक ही चारों तरफ चीख पुकार सुनाई देने लगी और लोग बेतहाशा भागने लगे।

हालांकि एक वरिष्ठ अधिकारी होने के नाते त्रेहन ने मौके से भाग जाना उचित नहीं समझा और अपनी 75 वर्षीया मां, पत्नी और चार बच्चों के साथ घर में ही रुकने का फैसला किया। परिवार अपने फ्रिज में मौजूद चार बोतलों से पानी पीकर गले की जलन से निपटने की कोशिश करता रहा पर तड़के लगभग 3.30 बजे के आसपास उन पर नशा छाने लगा और धुंधला दिखाई देने लगा। त्रेहन याद करते हैं, “अचानक मैंने अपने बेटे के मुंह से झाग निकलता देखा। मुझे लगा कि अब बेटा इस दुनिया में नहीं रहा। परिवार को इस सदमे से बचाने के लिए मैंने बेटे के शरीर को एक रजाई में लपेट दिया। शायद ऐसा करना बेटे की जान बचाने में मददगार रहा क्योंकि एक मोटे कपड़े में लिपटे होने से मेरे बेटे को गैस से बचने में मदद मिल गई।”

उसके बाद सारा परिवार बेहोश हो गया और सुबह एक कनिष्ठ अधिकारी ने घर आकर सबकी खोज खबर ली। इसी बीच पारिवारिक मित्र डॉ उदय मुखर्जी अपनी जान की परवाह न करते हुए घर आए और सबको जेपी अस्पताल ले गए। त्रेहन ने देखा कि उनके घर के आसपास 30 से 40 लोग इस उम्मीद में आकर जमीन पर लेते हुए थे कि उनके अधिकारी को जब भी मदद मिलेगी तो उन्हें भी कोई न कोई आकर मदद कर देगा।

रेलवे कर्मियों का जज्बा

जब त्रेहन परिवार जैसे सैकड़ों परिवार मौत से जद्दोजहद कर रहे थे, ठीक उसी समय भोपाल स्टेशन पर रेलवे कर्मियों ने अपनी जान जोखिम में डालते हुए न केवल सैकड़ों मुसाफिरों की जिंदगी बचाई बल्कि ये भी सुनिश्चित किया कि भोपाल रेलवे स्टेशन पर हालात काबू से बाहर न हों। इन्हीं में से एक गुलाम दस्तगीर जो डिप्टी स्टेशन सुपरिंटेंडेंट के तौर पर नाइट शिफ्ट की जिम्मेदारी संभल रहे थे। उन्होंने न केवल गैस रिसाव के बीच ड्यूटी निभाई, बल्कि समझ बूझ दिखते हुए सैकड़ों मुसाफिरों की जान भी बचाई। आंखों और गले में भीषण जलन के बीच दस्तगीर ने मोर्चा संभाले रखा। हादसे के बीच लखनऊ-बॉम्बे एक्सप्रेस लगभग 1.35 बजे भोपाल स्टेशन करीब 800 से 1,000 यात्रियों के साथ आ पहुंची। दस्तगीर ने बिना समय गवाए ट्रैन को 32 मिनट के स्टॉप से पहले ही रवाना करने का आदेश दिया जबकि सिग्नल्स भी काम करना बंद कर चुके थे। साथ ही उन्होंने वरिष्ठ अधिकारियों को सूचित करके स्टेशन पर आने वाली ट्रेनों को पहले ही आसपास के स्टेशनों पर रुकवा दिया। दस्तगीर 19 साल तक बीमारियों से जूझते हुए 2003 में दुनिया से विदा हुए।

स्टेशन सुपरिंटेंडेंट हरीश धुर्वे अपने चैम्बर में ही गैस के संपर्क में आने पर मर चुके थे। उनकी स्वर्गीय पत्नी मीरा ने कुछ वर्ष पहले बताया था कि धुर्वे ड्यूटी से घर आकर गैस रिसने की सूचना मिलने पर वापस स्टेशन गए थे और कई ट्रेनों को मौके से रवाना किया था। धुर्वे के परिवार के मुताबिक, उन्हें सुबह जेपी अस्पताल में डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया था। एसके त्रेहन ने बताया कि तत्कालीन नियंत्रक रहमान पटेल पत्नी की मृत्यु हो जाने के बाद भी ड्यूटी पर डटे रहे।

रेलवे कर्मचारी बलराम ने भी जज्बा दिखाते हुए सारी रात लोकोमोटिव्स को फायर डाउन किया ताकि कोई बड़ी अनहोनी न घटे। भोपाल रेलवे स्टेशन पर मौजूद स्मारक के मुताबिक धुर्वे सहित 44 रेलकर्मियों ने अपनी जान की बाजी लगाकर सैकड़ों यात्रियों की जान बचाई थी। स्टाफ ने बीना और इटारसी की तरफ से आने वाली करीब 24 ट्रेनों को आसपास के स्टेशन पर रुकवाकर हजारों यात्रियों को मौत के मुंह में जाने से बचा लिया था। स्मारक के मुताबिक, जहां धुर्वे ड्यूटी के दौरान शहीद हुए वहीं अन्य 44 कुछ वर्षों में गैस के प्रभाव से जुडी बीमारियों की वजह से मौत के मुंह में समा गए।  

एसके त्रेहन परिवार सहित सालों गैस के रिसाव से जुड़ी बीमारियों से जूझते रहे। त्रेहन कई सालों तक अमेरिका में इलाज कराते रहे जहां डॉक्टरों ने बताया कि गैस के प्रभाव से उनके दाएं फेफड़े का लगभग 14 प्रतिशत हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया था। हालांकि वो 1986 में अमेरिका गए उस दल का हिस्सा थे जिसने मुआवजे को लेकर न्यूयॉर्क के एक कोर्ट में मुआवजे को लेकर भारत की तरफ से अपनी दलीलें रखीं थीं।

उनका कहना है कि उनके तर्कों के आधार पर कोर्ट ने भोपाल के लिए एक बड़े अस्पताल (भोपाल मेमोरियल अस्पताल) की मंजूरी दी थी जिससे पीड़ितों को उचित इलाज मिल सके। त्रेहन मानते हैं कि मुआवजे के वितरण में काफी लम्बा समय लग गया। उन्हें हमेशा इस बात का अफसोस रहा है कि यदि हादसे के बाद जल्दी मुआवजा वितरित कर दिया गया होता तो हजारों पीड़ितों को राहत मिलती जो दर्द और बीमारियों से जूझते हुए मौत के शिकार हो गए। ध्यान रहे कि यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन गैस त्रासदी विश्व की सबसे भीषण औद्योगिक हादसों में शुमार है जिसमें 3,787 लोग हादसे के तुरंत बाद मारे गए थे।  

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