दक्षिणी दिल्ली के गोविंदपुरी स्थित आचार्य नरेंद्र देव कॉलेज में ग्रेजुएशन और पीएचडी के छात्र रितम दास, सरोज चौधरी और रितु अरोड़ा हर दो से तीन महीने में मिट्टी के सैंपल लेने के लिए शहर के इलाकों में जाते हैं और इन सैंपल से बैक्टीरियोफेजेज को अलग करते हैं। बैक्टीरियोफेजेज, वह वायरस है, जो बैक्टीरिया को मार सकते हैं।
ये छात्र अपनी प्रोफेसर उर्मी बाजपेयी के साथ इन बैक्टीरियोफेजेस की मदद से तपेदिक (टीबी) का इलाज खोजने की कोशिश कर रहे हैं। 2018 में दुनिया भर में रिफैंपिसिन- रेजिस्टेंट टीबी के डेढ़ लाख से ज्यादा नए मामले सामने आए। इनमें से 78 फीसद मल्टीड्रग रेजिस्टेंट टीबी के मरीज थे। विश्व ट्यूबरक्लोसिस रिपोर्ट 2019 के मुताबिक, 2018 में कुल वैश्विक मरीजों का 27 फीसद हिस्सा भारत में था।
बैक्टीरियोफेजेस प्राकृतिक रूप से उन जगहों पर पाए जाते हैं, जहां बैक्टीरिया होते हैं और ये छात्र ऐसी जगहों से सैंपल जमा कर रहे हैं, जहां ऐसे बैक्टीरिया भरपूर मात्रा में मौजूद हो सकते हैं। छात्रों के समूह को द्वारका, फरीदाबाद और जनकपुरी से भी सैंपल में कारगर फेजेस मिले हैं।
बाजपेयी को लगता है कि फेजेस एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस की समस्या को एक हद तक हल कर सकते हैं, लेकिन उनके काम में रुकावट आ रही है, क्योंकि उसके पास पैथोजन (रोगजनकों) पर काम करने की सुविधाएं नहीं हैं। इसके बिना छात्र सीधे टीबी बैक्टीरिया (माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस) पर काम नहीं कर सकते हैं और उन्हें माइकोबैक्टीरियम स्मेगमैटिस पर काम करना पड़ता है।
बाजपेयी कहती हैं, “हमें सिर्फ वायरल जेनेटिक मटीरियल सीक्वेंस मिलता है और फिर हम यह पता लगाने के लिए कि क्या ये काम करते हैं, कंप्यूटर मॉडल का इस्तेमाल करते हैं। टीम उन एंजाइम्स का पता लगा रही है, जो बैक्टीरिया पर असर करते हैं।
भारत में हालांकि क्लीनिकल ट्रायल चल रहे हैं, लेकिन फिलहाल बैक्टीरियोफेजेस को इलाज के लिए मंजूरी नहीं मिली है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू), वाराणसी में इनका इस्तेमाल ठीक नहीं होने वाले घावों के इलाज के लिए किया जा रहा है।
बीएचयू के इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज में माइक्रोबायोलॉजी विभाग के प्रमुख गोपाल नाथ का कहना है कि बैक्टीरियोफेजेस का इस्तेमाल ऐसे पुराने घावों के इलाज के लिए किया जा सकता है, जो प्रचलित इलाज से ठीक नहीं होते हैं।
वह कहते हैं, “एक समस्या है बैक्टीरियम से बायोफिल्म का निर्माण, क्योंकि यह एंटीबायोटिक को घाव में घुसने नहीं देती है। ” इस रुकावट को पार करने के लिए, उन्होंने एस्चेरिचिया कोलाई, स्टेफाइलोकोकस ऑरियस और स्यूडोमोनस एरुगिनोसा के कस्टामइज बैक्टीरियोफेजेस के कॉकटेल का इस्तेमाल किया, जो 12 से 60 वर्ष की उम्र के बीच के 20 मरीजों के घावों से जमा किए गए थे।
बैक्टीरियोफेज के कॉकटेल को त्वचा में घाव पर एक दिन के अंतराल पर लगाया गया और टीम ने 3-5 डोज के बाद काफी सुधार देखा। 20 में से सात रोगी 21 दिनों के अंदर पूरी तरह ठीक हो गए। यह महत्वपूर्ण अध्ययन जून 2019 में इंटरनेशनल जर्नल ऑफ लोअर एक्स्ट्रीमिटी वुंड्स में प्रकाशित हुआ था।
भारत के बाहर भी इन फेजेस का इस्तेमाल किया जा रहा है। अमेरिका की एक बायोटेक्नोलॉजी कंपनी है फेजप्रो, जो हैजे के फैलाव के खिलाफ बैक्टीरियोफेजेस का उपयोग कर रही है। उनकी दवा प्रोफेलिटिक-वीसी को मुंह से लिया जा सकता है और यह खासकर हैजा संक्रमण के संपर्क में आने वाले उन लोगों के लिए फायदेमंद है, जो बीमार लोगों की देखभाल करते हैं।
बाल्टीमोर स्थित कंपनी इंट्रालिटिक्स इंक, प्रजनन दवाएं और महिलाओं के स्वास्थ्य के क्षेत्र में बैक्टीरियोफेज आधारित दवाओं का इस्तेमाल करने और वेजाइनल माइक्रोबायोम को स्वास्थ्यकर बनाने के लिए बैक्टीरियोफेज आधारित दवाओं को विकसित करने की कोशिश कर रही है।
उनके उत्पादों में से एक इको-एक्टिव क्रोहन बीमारी से पीड़ित मरीजों में इसके साथ होने वाले ई-कोलाई बैक्टीरिया को निशाना बनाता है। न्यूयॉर्क के माउंट सिनाई अस्पताल में इसका क्लीनिकल ट्रायल दूसरे चरण में पहुंच चुका है। हालांकि फेज थेरेपी काफी विशिष्ट और कस्टमाइज इलाज है, और साथ ही इसमें कई जटिलताएं भी हैं।
शंकर अधिया, जो अमेरिका स्थित नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट से जुड़े हैं, कहते हैं, “फेज थेरेपी कोई उस तरह की दवा नहीं होगी जैसी आपका डॉक्टर प्रेस्क्रिप्शन पर लिखता है। इसे फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा लाइलाज संक्रमणों के इलाज के लिए अनुमोदित कुछ केंद्रों द्वारा खासतौर से तैयार किए गए फेज कॉकटेल से पुराने संक्रमण के इलाज लिए अपनाया जाना है।”
वह कहते हैं “केंद्रों को विशिष्ट गुणों वाले, विषाक्त पदार्थों और लाइसोजेनिक से मुक्त सटीक फेज का विशाल भंडार रखना होगा। फेज थेरेपी में मरीज के लिए कस्टमाइज दवा तैयार करने के लिए कुछ दिनों का इंतजार करना भी शामिल है।”
(मेधा भट्ट के इनपुट्स के साथ)
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