कोविड-19 वेक्सीन के बूस्टर डोज पर उठे ये सवाल

बूस्टर खुराक को भारत में महामारी नियंत्रित करने की रणनीति का अभिन्न अंग बनाना, चिकित्सा और नैतिक दुविधाओं को जन्म दे सकता है
कोविड-19 वेक्सीन के बूस्टर डोज पर उठे ये सवाल
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भारत ने जब 'पूरी तरह टीकाकरण' करने वालों को कोविड-19 टीकों की 'एहतियाती' खुराक देना शुरू किया, तो वो न केवल बूस्टर खुराक देने वाले देशों की लीग में शामिल हो गया, बल्कि साथ ही चिकित्सा और नैतिकता को लेकर जारी चर्चा और कशमकश का भी हिस्सा बन गया।

विशेषज्ञों का भी कहना है कि नए वेरिएंटों के उभरने के साथ बार-बार बूस्टर शॉट्स की संभावना हमारी महामारी नियंत्रण रणनीति का अभिन्न हिस्सा बन सकती है, लेकिन साथ ही यह असमानता की खाई को भी और गहरा कर सकती है।

2020 में विकसित देशों द्वारा बूस्टर शॉट्स शुरू किए जाने के बाद से वैक्सीन असमानता को लेकर दुनिया में चिंताएं बढ़ गई हैं। यह बूस्टर शॉट्स लम्बे समय के लिए प्रतिरक्षा में कितना इजाफा कर सकते हैं इसको लेकर भी अभी संदेह है। हालांकि फिर भी वो आने वाले कल में सामान्य हो सकती हैं। 

गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले क्रिसमस पर स्वास्थ्य कर्मियों के लिए वैक्सीन की अतिरिक्त खुराक की घोषणा की थी; जिसे जनवरी 2022 में शुरू किया गया था। अब अन्य लोग भी इसके पात्र हो गए हैं, बशर्ते उनकी दूसरी खुराक नौ महीने पहले दी गई हो।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने भी ओमिक्रॉन के कारण पैदा हुई महामारी की लहर को लेकर टीकों पर दिए अपने अंतरिम बयान में कहा था कि मूल वैक्सीन संरचना की बार-बार बूस्टर खुराक पर आधारित टीकाकरण की रणनीति के उपयुक्त या टिकाऊ होने की संभावना न के बराबर है।

वहीं 08 मार्च को वैश्विक स्वास्थ्य निकाय ने तेजी से अपना पाला बदलते हुए कहा कि वो "प्राथमिक श्रृंखला और बूस्टर खुराक के लिए मौजूदा कोविड-19 के टीकों की तत्काल और व्यापक पहुंच का दृढ़ता से समर्थन करता है।"

टीकों की असमानता और बूस्टर की दीर्घकालिक प्रतिरक्षा प्रदान करने वाले क्षमता के बारे में चिंताएं जस की तस हैं। फिर भी यह बूस्टर जल्द ही आम हो सकते हैं। क्या इसका मतलब है कि हमारी प्रतिरोधक क्षमता घट गई है? हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में चिकित्सा, स्वास्थ्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रोफेसर शिव पिल्लई ने तर्क दिया कि न केवल प्रतिरक्षा कम हो गई है, बल्कि अब हम कुछ ऐसे वायरस से भी निपट रहे हैं जो उस वायरस से अलग है जिसके खिलाफ टीके शुरुआत में विकसित किए गए थे।

उनका कहना है कि वेरिएंट बीए.1 और बीए.2 मॉलिक्यूल के कुछ हिस्सों विशेष रूप से स्पाइक प्रोटीन में काफी नाटकीय रूप से बदलाव आए हैं। यदि हमारे भीतर लगभग 25 फीसदी एंटीबॉडी अभी भी प्रभावी हैं और 75 फीसदी नहीं हैं, तो हमें उन 25 फीसदी की बहुत आवश्यकता है, और एक बूस्टर उस संख्या को बढ़ाता है।

टीके की प्रभावकारिता पर जो आंकड़े सामने आए हैं उनका सुझाव है कि बूस्टर्स संक्रमण से अल्पकालिक सुरक्षा प्रदान करते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार टीकाकरण और बढ़ावा देने का लक्ष्य क्या है, इस पर पहले आम सहमति बनाने की जरूरत है।

टीके और चिकित्सीय कार्य बल पर लैंसेट आयोग के सह-अध्यक्ष पीटर होटेज़ ने डाउन टू अर्थ को बताया कि हर कोई इस बात से सहमत है कि अस्पताल में भर्ती होने से बचाव की जरुरत है। लेकिन इस बात को लेकर असहमति है कि क्या आपातकालीन कक्ष, लॉन्ग कोविड या संक्रमण से सुरक्षा की जरुरत है। मैं लगातार बूस्टर देने की वकालत नहीं कर रहा हूं, लेकिन हमें उम्मीद है कि अलग वैक्सीन की एक सिंगल बूस्ट भी लम्बे समय तक सुरक्षा प्रदान कर सकती है। 

वहीं पिल्लई का कहना है कि वैरिएंट-न्यूट्रल वैक्सीन विकसित करने के प्रयास चल रहे हैं। यहां, आप जिस चीज से बचाव कर रहे हैं, वो सभी कोरोनावायरस के लिए सामान्य होने वाली है। उनका कहना है कि वो सुरक्षा प्रदान करेंगी, लेकिन संक्रमण को रोकने के लिए बेहतर और सर्वश्रेष्ठ सुरक्षा वास्तव में मॉलिक्यूल के एक निश्चित हिस्से को ही लक्षित करने से आती है, जो उस वायरस और उसके स्पाइक प्रोटीन के लिए विशिष्ट होता है।

स्पष्ट नहीं कब-कब लेनी होगी बूस्टर खुराक

यह बूस्टर कब-कब लेनी है यह अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। इंडियन सार्स-कोव-2 जीनोमिक्स कंसोर्टियम के पूर्व प्रमुख और वायरोलॉजिस्ट शाहिद जमील का कहना है कि हर छह महीने में सभी के लिए एक बूस्टर अनावश्यक है। विशेषज्ञों का कहना है कि कोमोरबिडीटी से जूझ रहे लोगों के लिए एक बूस्टर की जरूरत है, लेकिन अधिकांश आबाद में पहले ही संकर प्रतिरक्षा (संक्रमण और प्राथमिक टीकाकरण से प्राप्त इम्युनिटी) है, जोकि एक अच्छी बात है।

क्या रेगुलर बूस्टिंग ने कभी वायरल संक्रमण के खिलाफ काम किया है? जमील ने डीटीई को बताया कि, “यह पहली महामारी है जिसे हम एक टीके से रोकने की कोशिश कर रहे हैं।“ इसकी सबसे निकटतम तुलना इन्फ्लूएंजा से है, जिसके लिए आपको हर साल एक टीके की आवश्यकता होती है और यहां तक ​​कि बुजुर्गों के लिए भी इसकी सिफारिश की जाती है। इबोला और सार्स-कॉव-1 के प्रकोप को बड़े पैमाने पर आइसोलेशन की मदद से नियंत्रित किया गया था, क्योंकि उस समय पर कोई टीका उपलब्ध नहीं था। 

ट्रिनिटी कॉलेज डबलिन में इम्यूनोलॉजी के सहायक प्रोफेसर निगेल स्टीवेन्सन ने समझाया कि ऐसे में यदि नियमित बूस्टर सामान्य बन जाता है, तो मौजूदा टीकों में नयापन लाना होगा। कई कंपनियां टीकों के नए संस्करण विकसित कर रही हैं जो नए उपभेदों का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन एमआरएनए वैक्सीन जैसे फाइजर/ बायोएनटेक और मॉडर्ना आदि अपडेट करने में सबसे आसान हैं।  

उनका कहना है कि यह उस समय सबसे उपयोगी होगा जब वायरस म्युटेट होकर कहीं घातक स्ट्रेन में बदल जाता है। "एक अधिक खतरनाक स्ट्रेन के खिलाफ जल्दी से एक टीका उत्पन्न करने के लिए एमआरएनए वैक्सीन पाइपलाइन को तुरंत जुटाने में सक्षम होना आवश्यक होगा।" विशेषज्ञ का कहना है कि जरूरत पड़ने पर कंपनियां इस प्रक्रिया को शुरू करने के लिए तैयार हैं।  

रोचेस्टर, मिनेसोटा के मेयो क्लिनिक में संक्रामक रोग विशेषज्ञ प्रिया संपतकुमार के अनुसार, "इन्फ्लूएंजा का टीका एक संकेत देता है। नोवेल कोरोनावायरस की तरह फ्लू का वायरस भी बदलता रहता है।" डब्ल्यूएचओ को दुनिया भर में फ्लू वायरस के नमूनों के संग्रह का समन्वय करने का काम सौंपा गया है। उनके अनुसार वैज्ञानिकों का एक समूह तब सहयोग और तय करता है कि फैलने वाला कौन सा स्ट्रेन हावी हो सकता है और उस पर एक टीके को लक्षित कर सकता है।

यह बहुत कुछ अनुमान पर आधारित होता है। “हो सकता है कि हमारे पास कोविड-19 के लिए कुछ ऐसा ही हो, जहां अंतरराष्ट्रीय निगमों को वैक्सीन में शामिल करने के लिए किन उपभेदों के साथ आने की आवश्यकता होगी।“

गहराती असमानता

स्वास्थ्य कर्मियों और 60 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को छोड़कर देश में पूरी वयस्क आबादी को बूस्टर खुराक के लिए भुगतान करना होगा। सार्वजनिक स्वास्थ्य और पहुंच के मुद्दों पर काम करने वाली वकील लीना मेंघानी का कहना है कि सरकार ने कोविड-19 महामारी के चलते एक बड़े वित्तीय बोझ को वहन किया है, लेकिन वैक्सीन का निजीकरण करने की अनुमति देने में उसे सावधानी बरतने की जरूरत है।

उन्होंने कहा कि फार्मास्युटिकल उद्योग भी हमेशा से निजी क्षेत्र में कोविड -19 के टीकों की बिक्री को बढ़ावा देना चाहता है। उनके अनुसार पिछले साल भी ऐसा ही एक प्रयास किया गया था जब 45 वर्ष से कम उम्र के लोगों को अपने खर्च पर टीका लगाने के लिए कहा गया था। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट को कदम उठाना पड़ा था।

मेंघानी का कहना है कि यह लोगों का टीका है। इसमें सरकारी फंडिंग लगी है। इसलिए बूस्टर खुराक के पात्र सभी लोगों को यह मुफ्त में मिलनी चाहिए। तथ्य यह यही कि बहुत से लोग इस बूस्टर के लिए भुगतान नहीं कर सकते हैं और ऐसे में बहुत से इसे नहीं लगाएंगे। ऐसे में इस वित्तीय बोझ की भरपाई करनी होगी।

गौरतलब है कि वैश्विक स्तर पर निर्मित टीके की खुराक का एक बहुत बड़ा हिस्सा बूस्टर शॉट प्रदान करने के लिए अमीर देशों को भेज दिया गया है, जबकि दूसरी तरफ अफ्रीकी में 80 फीसदी से ज्यादा आबादी का अभी भी टीकाकरण नहीं हुआ है। 

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